नैनीताल के ड़ेढ़ दिन के प्रवास में एक आने की भी चीज नहीं खरीदी। वापसी की यात्रा में देखा कि टेढ़ी मेढ़ी उतरती सड़कों के किनारे कुछ लोग स्थानीय उत्पाद बेच रहे थे। एक के पास मूली थी, दूसरे के पास माल्टे। पीले गोल माल्टे की खटास दूर से ही समझ आ रही थी। वे नहीं चाहियें थे। मूली बैंजनी रंग लिये थी। आकर्षित कर रही थी। एक जगह रुक कर चबूतरे पर बैठे किशोर से खरीदी। दस रुपया ढ़ेरी। दो ढ़ेरी।
अगले दिन (आज) इलाहाबाद में घर पंहुचने पर पूछा गया – क्या लाये? बताने को सिर्फ मूली थी। बैंजनी रंग लिये मूली। मेरी पत्नी जी ने मूली देख एक पुरानी कजरी याद की –
सब कर सैंया गयें मेला देखन
उहां से लियायें गैया, भैंसिया।
हमार सैंया गये मेला देखन
ऊतो लियायें कानी गदहिया . . .
(सबके पति मेला देखने गये। वे खरीद लाये गाय-भैंसें/झुलनी/बटुली/कलछुल/सिंधोरा – सब काम की चीजें। मेरा पगलोट आदमी मेला देखने गया तो कानी गधी (प्रथमदृष्ट्या बेकार चीज) ले कर चला आया!)
इति मम पर्यटनम् फर्स्ट इन्टरेक्शनम्!!!

जबसे वर्धा आया हूँ तबसे मूली खाने को नहीं मिली। बरसात बीतने के बाद आजकल कहीं दिखायी भी दे रही है तो इतनी बेडौल, बदरंग और बासी कि खरीदने की हिम्मत नहीं हुई। कीमत चालीस रुपये किलो।शुक्र है कि कजरी सुनने को नहीं मिली।
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शाक-सब्जी खरीदने के अधिकार का अतिक्रमण करें और कजरी सुनने को न मिले ऐसा कैसे हो सकता है।
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बहुत अच्छी प्रस्तुति। दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई! राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है! राजभाषा हिन्दी पर – कविता में बिम्ब!
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अगली बार हम भी ट्राई मार लेंगे…
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आप तो 'संगम' के राज कपूर की तरह व्यवहार कर रहे हैं।
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हा हा हा. बिलकुल सटीक उदहारण :)
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हा हा … मजा आ गया! अब थोडा रीता आंटी की आवाज में वो कजरी भी हो जाए :)
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muki bade kaam ki hai sab kuch pacha deti hai lakin khud nahi pachti hai.
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आते जाते बहुत बार यह मूली रखी देखी है लेकिन आज तक खरीदी नही . अगले हफ़्ते फ़िर जा रहा हूं तब जरूर ही आपकी पसन्द की बैगनी मूली खरीदुन्गा
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हम जब टूर पर जाते थे, हमें कुछ खरीदने की सख्त मनाही थी।Daily allowance बचाकर वापस आने पर श्रीमति के हाथ में दे देने का सिस्टम बरसों से चल रहा है।अच्छा सिस्टम है। हमें सोचना नहीं पढता क्या खरीदूँ, क्या नहीं।उसे भी विशेष आनन्द प्राप्त होता है बचा हुआ DA खर्च करने का।
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