सर्विसेज

मेरी पत्नीजी अपने परिवेश से जुड़ना चाहती थीं – लोग, उनकी समस्यायें, मेला, तीज-त्योहार आदि से। मैने भी कहा कि बहुत अच्छा है। पर यह जुड़ना किसी भी स्तर पर पुलीस या प्रशासन से इण्टरेक्शन मांगता हो तो दूर से नमस्कार कर लो। इस बात को प्रत्यक्ष परखने का अवसर जल्द मिल गया। वह वर्दी वाला पुलिसिया दम्भी अकड़ के साथ बैठा रहा मुहल्ले की मेला-बैठक में। मेरी पत्नीजी ने परिचय कराने पर उसका अभिवादन करने की गलती भी कर ली। [१]

हमें संस्कार मिले हैं कि अगर झाड़ू लगाने वाली स्त्री भी ठीक ठाक वस्त्रों में सामने आती है (और परिचय कराया जाता है, या नहीं भी कराया जाता) तो अपनी कुर्सी छोड़ खड़े हो कर उसका अभिवादन करना है। नारी की इज्जत सिखाई गई है बचपन से। और यहां था यह डण्डे का जोर जानने और सांस्कृतिक/नैतिक मूल्यों से शून्य वर्दी वाला!

नीच!


नत्तू पांड़े का ढोल बजाता बंजनिया (खिलौना) ज्यादा मानवीय है पुलीस वाले की अपेक्षा:

GDP1023


नेताओं ने प्रशासनिक और पुलीस सेवाओं को आजादी के बाद भी अपने फायदे के लिये भारतीय सेवाओं के रूप में बनाये रखा। अगर ये बहुत अच्छा प्रबन्धन करने वाली सेवायें हैं तो भारत इतना लदर फदर क्यों है? जनता अभी भी इनको डेमी-गॉड्स के रूप में क्यों देखती है? क्यों है इतना भ्रष्टाचार? अगर यह प्रशासन का स्टीलफ्रेम है, तो माफ करें, स्टील जंग/मोर्चा खा गया है। खुरचिये तो मोर्चा ही निकलेगा। लोहा नजर ही न आयेगा। दस परसेण्ट लोहा बचा हो शायद। और वर्तमान नौकरशाही का दशमांश ही शायद जरूरी है भारत के लिये। 

बहनजी दलित बनाम सवर्ण वाली वर्णव्यवस्था बदलने की बात करती हैं। पर शायद ज्यादा जरूरी है कि सर्विसेज की वर्णव्यवस्था का त्याग किया जाये। दुखद है कि वे; और बदलाव की बात करने वाली सभी पार्टियां; इन्ही सर्विसेज की मथनी से देश दुहना चाहती हैं/दुह रही हैं। कोई इस मथनी को नहीं छोड़ना चाहता।

हमारा प्रजातन्त्र इन सरकारी सेवाओं की सवर्णता को पोषित करता है। उसकी बजाय तो राजशाही बेहतर! उसमें जो भी गंद हो, इस तरह का दुमुंहापन तो नहीं होता!


[१] यह घटना छ आठ महीने पहले की है। मैं इसके बारे में लिखता भी नहीं; अगर एक नाई की दुकान पर बड़े स्टाइल से एक बन्दे को पुलीस को “हरामी” सम्बोधन देते न सुना होता।  


पोस्ट पर री-विजिट:

लोग किसी सर्विस (प्रशासन या पुलीस) को उसमें मिले अच्छे या बुरे लोगों से आंक रहे हैं। सवाल उनका नहीं है।

एक बन्दा, पर्याप्त आदर्शवादी, एक सर्विस ज्वाइन करता है। वह अपना चरित्र सर्विस को देना चाहता है। पर कुछ ही समय में वह सर्विस उसे निगल लेती है। लोग जबरी रिश्वत देते हैं और उसे देने के नायाब तरीके निकाल लेते हैं। वह बन्दा “लेने” पर भी अपने को ईमानदार होना जस्टीफाई कर लेता है। लुगाई आती है और वह सुविधायें (और पैसा) चाहती है। फिर पड़ोसी की सामर्थ्य से तुलना का दौर आता है। आदर्शवाद चें बोल जाता है। अच्छे व्यवहार का छोटा सा द्वीप बचता है – जिसे वह बन्दा अपनी कविता/संस्मरण/पुस्तकों/ब्लॉग पर चमका कर टांगता है।

ब्लडी/शिट/नीच/बास्टर्ड/बदतमीज और आकण्ठ अक्षमता में डूबी सर्विस उसे लील लेती है। अन्यथा, भारत लदर फदर क्यों है? :)


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

19 thoughts on “सर्विसेज

  1. @ रवि रतलामी – मैने सतीश दत्त पाण्डेय आई.पी.एस. (रिटायर्ड) की पेंग्विन से छपी दौरान-ए-तफ़तीश खरीदी। इस ध्येय से कि पुलीस का पुलिसिया पक्ष भी दिखेगा। पर वहां यही सो-कॉल्ड ह्यूमन फेस ही फैला दीखा।यह प्रशस्ति गायन सभी की बायोग्राफिकल चीज में नजर आता है। हमारी तुरही (ब्लॉग) में भी होगा।

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  2. यूँ पुलिस तंत्र से मेरा भी दूर का नाता है, और यह विभाग सर्वाधिक भ्रष्टों की सूची में संभवतः सबसे ऊपर है, मगर यहाँ भी अपवाद स्वरूप मानव होते हैं.नीचे दी गई पोस्ट की कड़ी एक पुलिसिया की ही है -http://kuchehsaas.blogspot.com/2010/03/blog-post_27.html

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  3. सडा गला सिस्टम है तो सर्विस भी तो ऎसी ही होंगी .यकीन मानईये जब हम शक्तिशाली थे तो कई आई.पी.एस मुझे नमस्ते करते थे इंसपेक्टर सिपाही क्या करते होगे इसकी आप कल्पना कर सकते है .

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  4. पुलिस से तीस साल पहले मेरे कुछ कटु अनुभव याद आ रही है।संक्षिप्त में यहाँ इतना ही कहूंगा कि मैं अपनी मोटर साइकल चला रहा थामेरा टक्कर एक और मोटर साइकल से हुआ जिस पर दो पुलस के कर्मचारी सवार थे।गलती उनकी थी। फ़िर क्या हुआ? कहानी लंबी है। फ़िर कभी सुनाएंगे।

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  5. आजादी के बाद होना यह चाहिये था कि अंग्रेजों द्वारा भारतीयों के दमन हेतु बनाई गई हर व्यवस्था को नकारा जाता. फिर चाहे वह पुलिस व्यवस्था होती या कानून अथवा शिक्षा का मैकाले डिजायन. पश्चिमी इतिहासकारों द्वारा भारतीयों को नीचा दिखाने के उद्देश्य से लिखे गये इतिहास को भी नकारना चाहिये था. सैकड़ों सालों की गुलामी ने भारतीयों का जो नुकसान किया उस नुकसान की पूर्ति तभी हो सकती थी, जब प्रत्येक क्षेत्र से गुलामी के मानसिक प्रतीकों को उखाड़ फेंका जाता. भारतवासियों के अन्दर आत्मविश्वास जाग्रत करने के प्रयास किये जाते, उन्हें भारत के गौरव की याद दिलाई जाती. उनके अन्दर आत्मसम्मान, आत्मबोध जाग्रत किया जाता और काले को काला, सफेद को सफेद बोलना सिखाया जाता,. उस पूरे सिस्टम को जो अंग्रेजों ने भारत को गुलाम रखने के लिये बनाया था, नेस्तनाबूद कर दिया जाता. लेकिन खेद कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. मैंने किसी आई०सी०एस०अफसर की आपबीती के बारे में पढ़ा था जिसमें उसने लिखा था कि "जब आजादी मिलने के संकेत मिलने प्रारम्भ हो गये तो हम सभी आई०सी०एस० अफसर बड़े चिन्तित हो गये. हमें लगा कि हमने अभी तक भारत की जनता पर जाने-अनजाने में जुल्म किये हैं, अब कहीं ऐसा न हो कि आजादी मिलने पर हम सब लोगों को सेवा में न रखा जाये. इस आशंका के साथ हम …… जी से मिलने गये. मिलकर हमें बड़ा सुकून मिला जब हमें आश्वासन दिया गया कि हमारी सेवायें सुरक्षित रहेंगी." मुझे लगता है कि ….. जी ने देश की शासन-व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाये रखने के लिये इन अफसरों को बनाये रखने का फैसला किया होगा. लेकिन शायद उन्हें यह आभास भी नहीं होगा कि अंग्रेजों के बनाये गये ढ़ांचे को बरकरार रखने के उनके निर्णय आगे चलकर भारत के निवासियों के लिये ही दुखदाई साबित होंगे. भारत की पुलिस ने समय-समय पर इस के लिये सत्य प्रमाणित किया है.. टिप्पणी के रूप में एक लेख का अंश है. माफ करेंगे..

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  6. इस आइने में हम, आप अपना और समाज का चेहरा देख सकते हैं. वह कभी खुद सा कभी पराया नजर आता है.

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  7. मुझे इनसे नफरत है.बहुत छुटपन में मैं जब नन्ही साइकल चलाना सीख रहा था तब एक दिन साइकल लेकर गलती से पुलिस ग्राउंड में घुस गया. उस दिन नीच पुलिसवाले ने इतनी सी बात पर एक सात-आठ साल के बच्चे के कान उमेठे और चांटा लगाया, इस बात को ज़िंदगी भर नहीं भूलूंगा. मानवता और क्षमाशीलता जाएँ भाड़ में.शास्त्रों में तो पहले ही कहा गया है कि नीच से न तो मित्रता करें न ही शत्रुता मोल लें.

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  8. दस परसेण्ट लोहा बचा हो शायद।'यह दस परसेंट भी शायद इसलिये बचा है कि फिर से जंग लगने का आधार बना रहे.

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  9. इन्हें कभी आगे से नमस्ते न करें तो ही बेहतर है। ये धन के आगे नतमस्तक हैं, उस के लिए एक बार नेताजी को भी गरिया सकते हैं। धन की सत्ता के प्रथम वाहक और रक्षक ये ही हैं।

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