अरविन्द वहीं था, गंगा किनारे अपने कोन्हड़ा-नेनुआ के खेत पर। अब वह मुझे पहचानने लगा है; सो दूर से ही उसने नमस्ते करी। मैं उसकी ओर मुड़ा तो बोला – जरा बच के आइयेगा। नीचे नेनुआ के पौधे हैं। पिछले दिनों की सर्दी से पनपे नहीं। वास्तव में नीचे सम दूरी पर जरा-जरा से पौधे थे। मैं बच कर चलने लगा।
अरविन्द पर पुरानी पोस्टें:
अरविन्द गंगा किनारे नवंबर/दिसम्बर से अप्रेल/मई तक रेत में सब्जी उगाता है जो कटरा के बाजार में बिकती है। बाकी महीनों में वह अन्य काम करता है। सब्जी का ठेला भी लगा लेता है। छरहरा अरविन्द मुझे प्रिय लगता है।
अरविन्द पौधे के पास फावड़े से रेत खोद रहा था। उसमें गोबर की खाद मेरे सामने ही बिछाई। बोला – इसपर एक गिलास यूरिया डाल कर समतल कर देंगे और उसके बाद बस सिंचाई ही करनी है।
पहले वह मुझसे कहता था – क्या करें बाबूजी, यही काम है। पर अब वह मुझसे परिचय होने पर खुल गया था और बेहतर आत्मविश्वास में लगा – इस काम में मजूर भी लगा दें तो आधा-तीहा काम करेंगे। पता भी न चलेगा कि खाद पूरी डाली या नहीं। अब खुद के पास समय है तो मेहनत करने में क्या जाता है?
पास वाला खेत मेरे भाई कल्लू का है। वैसे तो पडोस-समाज में एक रहते हैं, पर अलग हो गये हैं, जिससे उसे भी एक खेत मिल गया है। आप शायद जानते हों कल्लू को। सब्जी की गुमटी लगाता है शिवकुटी में। उसे सभी जानते हैं।
मैने व मेरी पत्नीजी ने अनभिज्ञता जताई – शायद जानते हों शकल से, पर नाम से नहीं याद आ रहा।
अरविन्द का सम्प्रेषण में आत्मविश्वास अच्छा लगा। चलते हुये मैने आत्मीयता से उसकी पीठ पर हाथ भी रखा।
कल्लू का खेत देखा – कोंहड़ा के पौधे बड़े हो गये थे। छंछड़ कर फैलने लगे थे। पानी देने को एक गढ्ढ़ा भी खुद गया था और खेत के बीचोंबीच एक बिजूका भी गड़ा था – कल्लू का प्रॉक्सी ! एक हाथ उसका जमीन की तरफ था और दूसरा आसमान को इंगित करता – धरती संभाले था और आसमान पकड़ना चाहता था! बिल्कुल मेरे जैसी मनोवृत्ति!
इन कुंओं से हमारे घाट के पण्डा को कष्ट है। बरसात के मौसम में जब गंगाजी बढ़ती हैं तो नदी में पैदल बढ़ते स्नानार्थी को पता नहीं चलता कि गढ्ढ़ा कहां है। वे चाहते हैं कि यह न खुदा करे। पर खेती करने वालों को मना कैसे किया जाये?
खैर, अरविन्द के खेत पर जाना मेरे लिये तनाव दूर करने का हिस्सा होता है। इस बार भी वैसा ही हुआ।
अगर हम अपने यहा के गंगा तट पर पालेजो की तरफ़ जाये तो हाथ मे कैमरा नही बन्दूक रखनी पडती है . अपनी ३० -४० बीघा जमीन ठेके पर उठा रखी है .अब अपने हाथ से खेती तो होने से रही
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ओप्प्प..
ये कुआं तो वाक़ई ख़तरनाक हो जाएगा.
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गगा माई अगर इस कुयें से १०० मीटर और अन्दर तक आ जायेंगी तो इस कुयें को अपने में आत्मसात कर बराबर कर लेंगी। अगर यह कुंआ लगभग उनके किनारे पर रहा तो कष्ट देगा स्नानार्थियों को।
बारिश के मौसम में गंगा माई को हर हर कर तेजी से बढ़ते भी देखा है। तब तो उनके पदाघात से ये कुंये तो समतल हो जाते हैं!
बारिश की गंगा में गाम्भीर्य है, पर उनका सम्मान तो स्नानार्थी को करना ही चाहिये।
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“लल्लू छाप अफसर” और “कल्लू का प्रॉक्सी !” 🙂
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एक हाथ से धरती, दूसरे से आसमान, यही सध जाये तो बिजूका भी कमाल कर दे।
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आसमान साधने को उडान भरनी पड़ती है, तबियत से। और हम हैं कि धरती थामे रहते हैं। 😦
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कुम्हड़ा भी कहते हैं
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अरविंद और कल्लू का उत्पाद खाने पर शुद्ध गंगाजल ग्रहण करने का लाभ बोनस में मिलता होगा। इन फलों सब्जियों के साथ यह विशिष्टता जुड़ी हुई है। इनकी मार्केटिंग का एक मंत्र यह भी होना चाहिए।
आपकी ब्लॉगरदृष्टि पाकर यह बिजूका भी मानो बोल उठेगा।
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शुद्ध गंगाजल
की तो यह दशा है:
http://www.facebook.com/gyandutt#!/video/video.php?v=1742853365235&comments
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अरविन्द आपके मानसिक हलचल को शांत करने का काम करता है.आपकी शान्ति बनी रहे.
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वाकई परिचय की गरमाहट से ही अनजानेपन की दीवार पिघलती है। जान-पहचान ही नए रिश्तों की शुरुआत है। जानने के लिए कोंचना-कुरेदना भी पड़ता ही है। अरविंद भी यही कर रहा है। ज़मीन से रिश्ता बनाते हुए। हमेशा की तरह बढ़िया पोस्ट।
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sachhi me apko itna netural dekh kar ….. irsya hoti hai………
pranam.
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बिजूका के खड़े होने की स्टाईल पर तो फिल्मी लटके झटके तक फेल होई जांय 🙂
अरविन्द आपसे इतना घुलमिल गया है…..अपने मन की बात बता रहा है कि मुझे बाटलीकरण का सिद्धांत याद आ गया 🙂
एक किस्म की ईर्ष्या भी हो रही है …..इतना देशज माहौल जो है आपके पास।
मस्त पोस्ट है।
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ओह, यह पक्का है कि मेरे आसपास के लोग मानते होंगे कि क्या लल्लू छाप अफसर है जो वैसे तो कार में चलता है पर गंगा किनारे/आसपास कुरता-पायजामा और हवाई चप्पल में घूमता है! 🙂
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