बात वर्ष १९९७ की है जब मैं भीतरकनिका अभ्यारण्य के एक प्रोजेक्ट में शोध सहायक का साक्षात्कार देने के लिए कटक गया था| कम उम्र में इतनी अधिक अकादमिक उपलब्धी को देखकर चयनकर्ता अभिभूत थे| वे हां कहने ही वाले थे कि एक वरिष्ठ चयनकर्ता ने यह प्रश्न दागा|
“एक बार भी नहीं| जो भी लिखता हूँ उसे अंतिम मानकर लिखता हूँ| सुधार की कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ता|” मेरे उत्तर से स्तब्धता छा गयी|
Continue reading “आप एक बार लिखकर कितनी बार मिटाते या उसे सुधारते हैं?”