घाट की सीढ़ियों से आगे चलो तो दो नदियां दिखती हैं। पहले है रेत की नदी। चमकती सफेद गंगा की रेत। महीन। पैर में चुभती नहीं, पैर धंसता है उसमें। सड़क-पगडंडी में चलने में जो रफ्तार होती है, उसकी आधी से कम हो जाती है इस रेत की नदी में। रफ्तार आधी और मेहनत डब्बल।
करीब पांच सौ गज चलने के बाद होती हैं पानी की नदी। गंगा माई। रेत वाली नदी गंगा माई नहीं हैं क्या? पानी वाली नदी से पूछो तो कहती हैं – मैं ही हूं वह।
बारिश के मौसम में रेत लुप्त हो जाती है, जलराशि बढ़ जाती है। गर्मी में जल राशि कम हो जाती है, रेत बढ़ जाती है। साल दर साल यह चक्र चल रहा है। पर साल दर साल रेत की नदी इंच दर इंच और फैलती जा रही है।
रेत फैल रहा है। जल सिकुड़ रहा है। गंगा के चेहरे पर झुर्रियां पड़ती जा रही हैं। उनका बदन – जल – स्वच्छ कांतिमय हुआ करता था। अब मटमैला/काला/बीमार होता जा रहा है।
रेत की नदी में मिलते हैं सवेरे की सैर पर निकले लोग। सवेरे की बयार में उछलकूद मचाते कुकुर। स्नान के लिये जाते या वापस आते स्नानार्थी। गंगापार के लिये जाते नाविक या लौटते लोग। एक दिन पाया कि दो स्त्रियां बड़ा सा गठ्ठर सिर पर लिये वापस लौट रही हैं। पता चला कि गठ्ठर में भूसा है। गेंहू कट गया है और ओसाई भी हो गयी है उसकी!
रेत और पानी की सन्धि पर लोग बोये हुये हैं सब्जियां। सवेरे चार बजे से सात बजे तक विनोद दो मिट्टी के घड़ों से गंगा से निकालता है जल और सींचता है सब्जियों की जड़ों को। हम पौने छ बजे जब उसके पास पंहुचते हैं तो काम में व्यस्त होता है वह। एक हल्की सी मुस्कान से हमें एकनॉलेज करता है – यूं कि अगर हम ध्यान से न देखें तो पता ही न चले कि उसने हमारी उपस्थिति जान ली है। सत्रह-अठ्ठारह साल का होगा वह, पतला दुबला और शर्मीला।
हम ध्यान से देखते हैं कि कुछ टमाटर के पौधे गंगाजी की रात भर की कटान से पानी में जा गिरे हैं। उनपर फल भी लदे हैं। विनोद अपना काम रोक उनके टमाटर तोड़ता ही नहीं। उसकी प्रयॉरिटी में ही नहीं है। अगले दिन हम पाते हैं कि टमाटर गंगा के पानी में जस के तस हैं। कोई ले भी नहीं गया। विनोद वैसे ही निस्पृह खेत सींचता रहता है। हमारी समझ से बकलोल!
जल में किनारे लगी है विनोद की नाव। उस पर कथरी बिछा वह रात में सोता है। किनारे लंगड (लंगर) से लगा रखी है वह उसने। आस पास नेनुआ के पीले फूल हैं और कुछ लोगों की फैकी मालाओं के बीजों से उगे गेन्दे के फूल भी। एक के खेत से दूसरे के में बिना पासपोर्ट-वीजा के सब्जियों की बेलें घुसती दीखती हैं। इन्हे अपनी सरहदें नहीं मालुम। मैं अपने छोटे बेटन से उन्हे इधर उधर करने की कोशिश करता हूं। पर पाता हूं कि यह बेलों को अपनी फ्रीडम ऑफ एक्स्पेंशन का अतिक्रमण लगता है। वे पुन: वैसी हो जाती हैं जैसे थीं।
पास की रेती में एक कोन्हडा दीखता है आधा सड़ा और पीला। समय के पहले लता से टूटा। — उर्वारुकमिव बन्धनात! समय के पहले कोई न मरे भगवन!
सूर्योदय की रोशनी का तिलस्म मुग्ध कर लेता है। कितने लोग रोज रोज पाते होंगे यह दृष्य!
यह दो नदियों का संगम मुझे सवेरे सवेरे प्रसन्नता की पोटली थमा देता है। जिसे ले कर मैं घर लौटता हूं और लग जाता हूं काम पर।
अगले दिन एक नई पोटली लेने फिर वहीं पंहुचता हूं। आप अगर छ बजे सवेरे मुझसे मिलना चाहें तो वहीं मिलियेगा – विनोद-प्वॉइण्ट पर! प्रसन्नता की एक पोटली आपको भी मिल जायेगी। मुक्त हस्त बांटती हैं गंगामाई!
हाँ… मुझे भी यही लगा था.. मैने कभी इसे ट्राई नही किया था… इसीलिए इसकी जानकारी नही थी…
बहुत अच्छा लगा.. यहाँ आकर… धन्यवाद !! 🙂
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जी शुक्रिया!! फॉन्ट के बारे में आपने नही बताया… कि जो फॉन्ट लेख के लिए प्रयोग किया गया है… बिल्कुल वही कमेंट्स के लिए भी… ये कैसे किया आपने?
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ब्लॉगस्पॉट में फॉण्ट साइज आप टेम्प्लेट में हेर फेर कर चयन कर सकते हैं। पर वर्डप्रेस.कॉम में यह नहीं कर सकते। आप एक टेम्प्लेट का प्रयोग कर उस जैसा ले-ऑउट ला सकते हैं।
मैने ट्वेण्टी टेन टेम्प्लेट का प्रयोग किया है।
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वाह क्या बात है!!…. मन प्रसन्न हो गया…. ये इलाहाबाद का सीन है क्या?? मैं भी कभी हर शाम को नागवासुकी जी के मन्दिर से होता हुआ वहाँ तक जाता था.. काश वो दिन फिर लौट आते…
आप जरा ये बताइयेगा कि तस्वीरों की स्लाइड शो कैसे लगाते हैं और जो ये फॉन्ट आपने प्रयोग किया है ये कैसे करते हैं.. मुझे भी सीखना है.. ये फॉन्ट बहुत प्यारा लगता है.. 🙂
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आपको स्लाइड शो लगाने के विषय में जानकारी वर्डप्रेस सपोर्ट के इस पन्ने पर मिलेगी बन्धुवर। प्रत्येक अपलोड किये चित्र में जो आप कैप्शन देंगे, वह चित्र के नीचे आ जायेगा स्लाइड शो में!
अगर आप टेम्प्लेट की बात कर रहे हैं तो मैने ट्वेण्टी टेन का प्रयोग किया है।
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यह आपने सौ टके सही कहा….
कितने लोगों के किस्मत में होता है यह दुर्लभ दृश्य और सुख….
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हम जब यहां सन २००६ के अन्त में आये तो लगा था कि कहां देहात में फंस गये। न यातायात की सुविधा और न स्वास्थ्य सुविधाओं की। सिविक एमेनिटी भी देहात की। लोग भी लोअर मिडिल क्लास या उससे भी कम हैसियत के।
अब विचार बदल गये हैं! 🙂
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सूर्योदय का तिलिस्म मनमोहक है। ऐसा दिन का प्रारम्भ हो तो क्या कहना?
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मानसिक हलचल पर ऎसी कितनी तो सुबहें भरी हैं और ऎसे न जाने कितने तो ’विनोद’….
बहुत दिन बाद काफ़ी अच्छे मूड में दिखे 🙂 ऎसे सुबह सुबह गंगा किनारे घूमने का सुख कितनो को मिलता होगा और उनमें से जाने कितने ऎसी सुबहों को संभालकर रख पाते होंगे। हमेशा की तरह पोस्ट बहुत अच्छी लगी। उम्मीद है स्वास्थ्य भी ठीक होगा अभी…
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ऐसी सुबहें सम्भाल कर तो मैं भी न रख पाता पंकज, अगर नेट पर रखने का यह जरीया न होता!
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गजब का फिलोसोफिकल मूड होता होगा सुबह-सुबह, नहीं? आज क इ पोस्ट में तो पोस्ट में प्रसन्नता की पोटली दिख ही रही है… . हम भी प्रसन्न भये.
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हर रोज कुछ नया होता है, कुछ बदला हुआ। किसी दिन हम “हू मूव्ड माई चीज” के स्निफ और स्करी चूहों सा व्यवहार करते हैं वहां और किसी दिन उन छोटे आदमियों सा। कुल मिला कर परिवर्तन का दर्शन समझने में आसानी हो रही है वहां पर! 🙂
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‘रेत फैल रहा है। जल सिकुड़ रहा है।’
चिंता का विषय है:( चित्र बढिया हैं॥
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हां, रेत का फैलना हस्तामलकवत दीखता है!
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विनोद का निस्पृह होकर यूँ अकेले चुपचाप काम में लगे रहना….अत्यंत प्रशंसनीय है.
तस्वीरें बहुत ही प्यारी लगीं….इतनी कि नज़र हटाना मुश्किल.:)
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