
कछार में सवेरे की सैर के दौरान वह बहुधा दिख जाता है। चलता है तो आस पास छ-आठ कुत्ते चलते हैं। ठहर जाये तो आस पास मंडराते रहते हैं। कोई कुत्ता दूर भी चला जाये तो पुन: उसके पास ही आ जाता है।

कुत्ते कोई विलायती नहीं हैं – गली में रहने वाले सब आकार प्रकार के। कुछ में किलनी पड़ी हैं, कुछ के बाल झड़ रहे हैं। पर कुल मिला कर स्वस्थ कुत्ते हैं।
कल वह गंगाजी की रेती के मैदान में पसरा अधलेटा था। आस पास छ कुत्ते थे। दो कुछ दूरी पर बैठे थे। वह और कुत्ते, सभी सहज थे। कुछ इस तरह से कि अनंत काल तक वह बैठा रहे तो ये कुत्ते भी बैठे रहेंगे। यह सहजता मुझे असहज लगी।
उससे पूछने पर संवाद खोलने में मुझे ज्यादा यत्न नहीं करना पड़ा। सम्भवत: वह अपनी श्वान-मैत्री को ले कर स्वयं गौरवानुभूति रखता था। बायें हाथ से रेत कुरेदते हुये मुझ से बतियाने लगा। जो उसने कहा, वह इटैलिक्स में है।

ये सब मेरे मुहल्ले के हैं (मोहल्ला पास में है, ऐसा हाथ के इशारे से बताया)। बहुत प्रेम करते हैं। साथ साथ चलते हैं। वो जो दूर हैं दो वो भी इसी गोल के हैं। उनमें से जो कुतिया है, उसके कई बच्चे इनमें हैं।
रोटी देते होंगे इनको, तभी साथ साथ रहते हैं?
हां, अभी सवेरे नाश्ता करा कर ला रहा हूं [रोटी देने और नाश्ता कराने में बहुत अंतर है, नहीं?]। साथ साथ रहेंगे। इस रेती में दोपहरी हो जाये, बालू गर्म हो जाये, पर अगर यहीं बैठा हूं तो ये साथ में बैठे रहेंगे।
मैने देखा उसके बोलने में कोई अतिशयोक्ति किसी कोने से नहीं झलक रही थी। कुछ इस तरह का आत्मविश्वास कि अजमाना हो तो यहां दोपहर तक बैठ कर देख लो!
अभी यहां बैठा हूं तो बैठे हैं। जब दूर गंगा किनारे जाऊंगा तो साथ साथ जायेंगे।
अजीब है यह व्यक्ति! शायद रेबीज के बारे में नहीं जानता। कुत्तों से हाइड्रोफोबिया हो जाता है – लगभग लाइलाज और घातक रोग। इज ही नॉट कंसर्ण्ड?! पर वह श्वान संगत में इतना आत्मन्येवात्मनातुष्ट है कि मैं इस तरह की कोई बात करने का औचित्य ही नहीं निकाल पाया। प्रसन्न रहे वह, और प्रसन्न रहें कुकुर! मैं तो प्रसन्न बनूंगा उसके बारे में ब्लॉग पर लिख कर!
कुछ देर मैं उसके पास खड़ा रहा। नाम पूछा तो बताया – संजय। वहां से चलने पर मैने पलट कर देखा। वह उठ कर गंगा तट की ओर जा रहा था और आठों श्वान उसके आगे पीछे जुलूस की शक्ल में चल रहे थे।
संजय द डॉग-लवर। श्वान-मित्र संजय!

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शिवकुटी/गंगा के कछार का यह इलाका इलाहाबाद का सबर्ब [sub-urb(an)] नहीं, विबर्ब [vi(llage)-urb(an)] है। सबर्ब होता तो लोग संजय या जवाहिरलाल छाप नहीं, ऑंत्रेपिन्योरिकल होते।
मुझे लगता है कि यह विबर्ब की मानसिकता समय के साथ समाप्त हो जायेगी। इस छाप के लोग भी नहीं होंगे और नहीं होंगे मेरे जैसे लोग जो अपनी सण्टी हाथ में लिये तलाश रहे होंगे उनको। जीडी पाण्डेय, कौन?
मैने फेसबुक की माइक्रोब्लॉगिंग साइट पर फुल ब्लॉग पोस्ट ठेलने की कोशिश की थी – गंगा की रेत और मिट्टी। पर यह घालमेल का प्रयोग जमा नहीं! जम जाये तो दुकन यहां से वहां शिफ्ट की जा सकती है। वहां ग्राहक ज्यादा किल्लोल करते हैं!
अब अपना भी मन गंगा किनारे बैठने का करने लगा है। इतनी आत्मीयता वहां है।
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आत्मीयता परस्परता का गुण है मनोज जी।
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enjoyed reading your post
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क्या सीन है …
संजय और श्वानो का तालमेल देखने योग्य है ..
गंगा किनारे भी आपकी विलक्षण दृष्टि क्या- क्या ढूंढ लेती है !
आभार !
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विलक्षण दृष्टि? धन्यवाद वाणी जी। वर्ना बन्दा किस काबिल है!
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कोई नहीं खतम होता। न संजय न जीडी पाण्डेय। सब रहेंगे। बस मामला जरा इधर से उधर हो सकता है। फ़ेसबुक पर जाकर टहल भले ही आइये लेकिन आना फ़िर इधर ही पडेगा। 🙂
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सही है, कहां जायेंगे?! अनूपम शरणं व्रज:!
आजकल चिठ्ठाचर्चा मंथर हो गयी है क्या?
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चर्चा भी होगी। वह भी खत्तम तो नहिऐं होगी। 🙂
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आप स्वभावतः यात्री हैं। रेल की नौकरी सही ही मिली है। एक तादात्म्य है उस के साथ आप का। यहाँ भी गंगा किनारे की यात्रा हम देख ही रहे हैं। संजय गलत कह रहा है कि वह कुत्ते उस के मोहल्ले के हैं। इन्सानों का मोहल्ला कहाँ होता है? अंतर्जाल ने दुनिया को मोहल्ला बना रखा है। मोहल्ला तो होता ही कुत्तों का है। कहते हैं कि जिस इलाके के कुत्ते आपस में नहीं भौंकते उसे ही मोहल्ला कहते हैं। पर अपने इलाके से बाहर निकलने के लिए कुत्तों को इंसान की जरूरत होती है। वही जरूरत संजय पूरी कर रहा है। कुत्तों का उस के साथ चलना मजबूरी है। वरना दूसरे मोहल्ले के कुत्ते सामुहिक स्तोत्र पाठ करने लगेंगे और इन्हें भी जवाब देना पड़ेगा। जो इस गंगा यात्रा के आनंद को भंग कर देगा। आप का यात्रीपन अंतर्जाल पर आप को एक स्थान पर ठहरने नहीं देता। ब्लागस्पॉट, वर्डप्रेस, फेसबुक … फिर इस के बाद?
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आप जले पर नमक छिड़क रहे हैं द्विवेदी जी। पिछले साल भर से रेल मात्र अपने कक्ष से देखी है। टी.ए. बिल बनता ही नहीं! यात्रा नहीं, मुद्रा नहीं! 😦
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आश्चर्य चकित करती है एसी घटनाए! शुक्र है, किसी ने कोई आध्यात्मिक पहलू नहीं धूंद निकाला. यहाँ तो ‘संजय’ को अनेको सारथी मिले हुए दिख रहे है!!
–mansoor ali hashmi
http://aatm-manthan.com
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गंगा में जो है आध्यात्म ही है हाशमी जी!
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जय हो शिवकुटी के पशुपतिनाथों की.
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जय कोटेश्वर महादेव!
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🙂
जारी रहे सुबह के सैर संटी के साथ!
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धन्यवाद!
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गंगा की लहरियाँ हैं कि सब संतुष्ट हैं। इतनी आत्मीयता कहाँ होती है कि श्वान भी उसका मर्म समझने लगें और वह भी समूह में। दोनों चित्र संग्रहणीय हैं, दूसरा तो लग रहा है कि आगे इस्कार्ट्स चल रहे हैं और पीछे पीछे मंत्री संजय।
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हां, जैसे रेण्डीयर स्लेज खींच रहे हों! 🙂
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हाँ बिल्कुल वैसे ही, पूरी राजसी मस्ती में पगा चित्र है।
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जीवन की इतनी विविधता का अनुभव कर सकते हैं आप, वाकई भाग्यशाली हैं!
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अनुराग जी यह गंगातट के कारण तो है, पर ज्यादा यह सवेरे की सैर के कारण है। मसलन आप यह पोस्ट देखें – प्रच्छन्न दार्शनिक।
उस समय मैं गंगातट पर नहीं, नारायणी आश्रम जाता था सवेरे घूमने। तब ये रामसिंह जी मिले थे! रामसिंह जी भी शुद्ध विबर्ब के जीव हैं।
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