मड़ई माने सरपत की टटरी लगा कर बनाई गई झोंपड़ी। बहुत सी हैं यहां शिवकुटी के गंगा किनारे। खेती करने वाले लोग इनका प्रयोग करते हैं। इनके चित्र से प्रेरित हो मैने फेसबुक पर अपना प्रोफाइल चित्र ही मड़ई का कर लिया है।
मेरे यहां मुख्य वाणिज्य प्रबन्धक (यात्रिक सेवायें) सुश्री गौरी सक्सेना ने तो मेरे लिये मड़ई के चित्रों से प्रभावित हो कर मुझे चने के झाड़ पर टांग दिया – कि मुझे अपने इन चित्रों की प्रदर्शनी करनी चाहिये!
मड़ई का प्रयोग कछार में खेती करने वाले लोग रात में सोने के लिये करते हैं जिससे रखवाली कर सकें। दिन में, जब तेज गर्मी होती है और पौधों/बेलों को पानी देने का काम निपटा चुके होते हैं वे लोग तो भी मड़ई में रह कर खेत राखते हैं जिससे जानवर आदि आ कर फसल बरबाद न कर सकें।
अब सीजन खत्म होने को है। लिहाजा ये झोंपड़ियां परिदृष्य से गायब हो जायेंगी। इनका निर्माण फिर जनवरी-फरवरी में होगा।
आप उनके चित्र देखें!

चित्र दिखाई नहीं दे रहे हैं।
पता नहीं क्यों।
कुछ देर बात कोशिश करेंगे।
पंकजजी के विडियो क्लिप दिखाई दे रहे हैं और आवाज भी साफ़ सुनाई दे रही है।
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
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जी हां, कई बार ब्राडबैण्ड लिंक तगड़ा न हो तो एक पतली काली पट्टी सी दिखती है स्लॉइड शो की जगह! पर वीडियो का चलना और स्लॉइड शो न चलना अजीब है!
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Returned today to check
The condition is the same.
I see a black strip, no pictures.
My speed is supposed to be broadband speed (512 KBPS)
Will try again later.
Regards
G Vishwanath
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Oh! Success at last.
If I keep the page open for 5 minutes, the slide show begins.
Great pictures.
I loved that crow perched on the pole.
Regards
GV
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पांच मिनट लम्बा समय है। लगता है लोड़ होने में लगने वाले समय के अलावा कुछ और समस्या है। अन्यथा लोड़ होने में तो 15-20 सेकेण्ड अधिकतम लगना चाहिये।
कौव्वा हमेशा सबसे ऊंची जगह पर होना पसन्द करता है कछार के सपाट क्षेत्र में। He gets a “birds’ eye view“! :)
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हमारे यहाँ तो जामुन की शाखाओं का भरपूर प्रयोग होता है| जामुन को चिरई जाम कहते हैं| देखिये ये वीडियो
जंगल राज में तो एक छत बनाने के लिए दसों वृक्षों की बली चढ़ जाती है अक्सर|
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आपके पास तो बहुत विविधता है वीडियो की पंकज जी। जहां जंगल हैं वहां लकड़ी का प्रयोग है। यहां कछार और सरपत हैं तो उन्ही की है मड़ई।
लकड़ी के इस प्रयोग में तो मुझे कुछ भी गलत नहीं लगता। गलत तो “सभ्यता” के लिये पेड़ों की बलि में है।
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यहाँ केवल कुछ लकड़ियों से भी काम चल सकता था| यदि ये सौ पेड़ जीवित रहते तो असंख्य जाने बच गयी होती| गंगा के किनारे सरपट का कोई उपयोग नहीं पर जंगल में ये लकडियाँ सरपट के दर्जे की नहीं हैं| इसलिए इस हत्या पर मेरा प्रश्नचिंह है|
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मानुस हों तो वही रसखान का अर्थ समझ पाने की –नसीबी भी सबके नसीब में नहीं होती। खैर सोने चलता हूँ, कम बोलने में ही भलाई है।
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आप जहां हैं, उसके लिये भी बहुत बहुत तरसते हैं मानुष! कि नहीं?
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दिन में धूप और रात को ओस से बचाव का उत्तम साधन है यह मढ़ई। ऐसी मढ़इयाँ यहाँ भी नजर आती हैं। लेकिन अधिक मजबूत। कभी हम भी उन के चित्र ला कर दिखाते हैं आप को।
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जरूर, प्रतीक्षा रहेगी।
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सुश्री गौरी सक्सेना ने तो मेरे लिये मड़ई के चित्रों से प्रभावित हो कर मुझे चने के झाड़ पर टांग दिया – कि मुझे अपने इन चित्रों की प्रदर्शनी करनी चाहिये!
फ़ोटो अच्छे हैं। चढ़ जाइये न झाड़ पर ! जो होगा देखा जायेगा। :)
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अभी जरा गाड़ियां हांक लें। कल की आंधी-तूफान में बहुत अटकी पड़ी हैं! :)
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मैडम की सलाह मान ली जाये। वाणिज्य को अधिकार है कि कला में दखल रखे।
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वह तो ठीक, पर हम कलाकार हैं ही कहां।?!
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हर मड़ई के चित्र पर दो दो पंक्तियों की कवितानुमा बात कही जाये और प्रदर्शनी लगाई जाये.कुछ प्रभाव तो इस्तेमाल करें…खूब फबेगी चित्र प्रदर्शनी…उस दिन खद्दर का कुर्ता पायजामा और कँघे पर एक झोरा टांग कर दार्शानिक मुद्रा में प्रदर्शनी स्थल पर मौन घारण किये मुस्कियाते भी रहेंगे, तो भी लोग मतलब निकाल कर हिट बना देंगे बॉस…हो ही जाये एक बार…आऊँ क्या?
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आइये!!
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गंगा किनारे , हरियाली लतिकाएँ , पीले फूलों के बीच मढ़ई लघुतम फार्म हाउस का लुक दे रही है ….:)
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हां! उससे भी बेहतर! नैसर्गिक!
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बरेली में मढीनाथ एक मन्दिर और एक बस्ती भी है।
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सुप्रभात!
बरेली में मढई को ही शायद मढय्या कहते हैं (धीरू सिंह जी कंफर्म कर सकते हैं।) हो सकता है कि वडनेरकर जी इसकी व्युतोपत्ति मठ में ढूंढ निकालें। हम तो इसके विभिन्न प्रकार के चित्रों से ही प्रसन्न हुए। देखकर एक बात और याद आई कि हमने कभी कुछ चित्र शृंखलायें बनाई थीं। उन्हें ब्लॉग पर लगाया जा सकता है कलाप्रेमियों के आनन्द के लिये।
वैसे यह कैसा आश्चर्य है कि हम दोनों की भेंट लगभग रोज़ाना ही सैर के दौरान होती है – आपकी मॉर्निंग वाक और मेरी ईवनिंग!
आभार!
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वाह! बड़ा रोचक है यह १२ घण्टे का फेज डिफरेन्स जानना! आप अपनी सैर के बारे में पोस्ट करिये न!
आज मुझे कुछ और चित्र मिले मड़ई के। उन्हे इत्मीनान से स्लाइड शो में जोड़ूंगा।
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मैं नहीं कर पाउंगा। सातत्य मेरे लिये सम्भव नहीं है, शाम की सैर भी अभी कुछ दिनों से कुछ दिनों तक ही नियमित है।
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… और फिर अपने नसीब में माँ गंगा का सान्निध्य भी नहीं है। आज मोनोंगहेला तो कल पोटोमैक और परसों चार्ल्स नदी कभी कई और भी परंतु गंगा, रामगंगा, अरिल, सोथ – केवल स्वप्न में, या आपके ब्लॉग पर विचरते समय …
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इतनी विविधता है आपकी सैर में! काश मुझे मिल पाती।
एक स्थान में मोनोटोनी भी तो होती है!
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