मड़ई


मड़ई माने सरपत की टटरी लगा कर बनाई गई झोंपड़ी। बहुत सी हैं यहां शिवकुटी के गंगा किनारे। खेती करने वाले लोग इनका प्रयोग करते हैं। इनके चित्र से प्रेरित हो मैने फेसबुक पर अपना प्रोफाइल चित्र ही मड़ई का कर लिया है।

मेरे यहां मुख्य वाणिज्य प्रबन्धक (यात्रिक सेवायें) सुश्री गौरी सक्सेना ने तो मेरे लिये मड़ई के चित्रों से प्रभावित हो कर मुझे चने के झाड़ पर टांग दिया – कि मुझे अपने इन चित्रों की प्रदर्शनी करनी चाहिये!

मड़ई का प्रयोग कछार में खेती करने वाले लोग रात में सोने के लिये करते हैं जिससे रखवाली कर सकें। दिन में, जब तेज गर्मी होती है और पौधों/बेलों को पानी देने का काम निपटा चुके होते हैं वे लोग तो भी मड़ई में रह कर खेत राखते हैं जिससे जानवर आदि आ कर फसल बरबाद न कर सकें।

अब सीजन खत्म होने को है। लिहाजा ये झोंपड़ियां परिदृष्य से गायब हो जायेंगी। इनका निर्माण फिर जनवरी-फरवरी में होगा।

आप उनके चित्र देखें!

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Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

47 thoughts on “मड़ई

    1. गंगा किनारे तो आंधी और तेज लगती है – कोई बाधा नहीं होती। पर देखता हूं कि लगभग सभी की सभी (कुछ क्षति के बाद) कायम थीं। क्यों, यह तो समझने की विषय है!

      अपडेट – आज सवेरे ध्यान से देखा। जिस झोंपड़ी के आसपास अभी खेती बाकी है और लोग रह रहे हैं; वहां झोंपड़ियां ठीकठाक हैं। शेष हैं, पर उजड़ी दशा में। सम्भवत रहने वालों ने उनकी पर्याप्त मरम्मत कर ली थी आंधी के बाद।

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      1. सिंपल मड़ईयाँ हैं, ताम झाम नहीं. वरना मुश्किल होती फिर से खड़ा करने में.
        अगर ये स्थायी होती तो शायद इतनी सिंपल नहीं रह पाती और आंधी से नुकसान भी ज्यादा हुआ होता.

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  1. मड़ई के से ही काम के लिए हमारे यहां ‘छतौड़ा’ हुआ करता था. यह खेतों में ज़मीन से 7-8 फुट उंचे मचान पर गुंबदनुमा बरगद के पत्तों से बनाया जाता था… आजकल इसका रिवाज़ चला गया. नई पीढ़ी से कोई नहीं जाता रात में खेतों की रखवाली के लिए..

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    1. हां, छाता या छतौड़ा हमारे भी गांवों में होता था। पांच साल पहले मैने सिवान-गोपालगंज (बिहार) के इलाके में भी देखे थे वे। इसके अलावा, अनाज रखने के अस्थाई अन्न भण्डार भी बहुत रोचक हुआ करते थे देखने में।

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  2. कलाकारी का अभाव है. सौंदर्य बोध गायब सा है, बस जूगाड़ सा किया गया है. वरना सुन्दर झोंपड़े देखे हैं.

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    1. नदी किनारे झोंपड़े मेक-शिफ्ट ही होते हैं। ये साल के छ महीने ही काम आते हैं। उसके बाद गंगा के पानी में बह जाते हैं। इस लिये ये जुगाड़ के ज्यादा करीब हैं! :)

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  3. हम जब गंगा के प्रदूषण पर शोध कार्य करते थे, और सैम्पल लेते उसका एनालिसिस करते दोपहर हो जाती थी, तो उस पार गंगा के दियरा में चले जाते थे। वहां मड़ई के नीचे बैठ कर चूरा-दही खाने का अनंद भुलाए नहीं भूलता।

    ऊब जाओ जब शहर की ज़िन्दगी से
    एक दिन के वास्ते ही गंगा किनारे आना।
    बैठकर रेत पर मड़ई तले
    शांतमन से मुक्त होकर दिन बिताना।
    शहर की आपाधापी को छोड़कर
    सुस्ताने की लालसा होगी तुम्हारी।
    पांव-फैला बैठ कर गंगा के किनारे
    भूल जाओगे शहर की ऊब सारी।

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    1. गंगा प्रदूषण पर शोध? तब तो इस विषय पर अथॉरिटी से कुछ कह सकने की अवस्था में जरूर होंगे मनोज जी!

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  4. ganga ka kashar……..pre-mansoon ka pahla phuhar………….upar jaisi ek marai………samne
    shivkuti………aas-paas hare-hare per-poudhe………………jis pe kam karte………hiralal………
    javahir………sanjay jaise charitra……………….man me uthte jivan ke yaksh prashn…………..
    aur samadhan karte sare guru-bhai……………….to main devraj indra ko boloon ‘swarg’…..
    my foot………………

    pranam.

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  5. हमने तो पिकनिक जैसा कुछ मनाया है, मड़ई के नीचे, किसानों के लिए घनी धूप में छांव है मड़ई…

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    1. मड़ई किसान के लिये कुछ वैसा ही है जैसे हमारा कैम्प ऑफिस हो – दफतर से दूर दफ्तर!

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