
शंकर पासवान का हेयर कटिंग सैलून है मेरे घर के पास नुक्कड़ पर। लम्बे अर्से से दुकान बन्द थी। शंकर का ब्याह था। व्याह के बाद हनीमून। परिणाम यह हुआ कि मेरे बाल झपोली बन गये। एक आध बार तो शैम्पू पिलाना पड़ा उन्हे। अन्यथा लट पड़ने के चांसेज़ थे।
अंतत: आज पता चला कि शंकर ने दुकान खोल ली है फिर से। अपने लिये सीट आरक्षित करा कर वहां पंहुचा तो देखा कि शंकर अपने सांवले रंग के बावजूद स्मार्ट लग रहा था। शादी के बाद लोग स्मार्ट हो जाते हैं क्या? अपनी याद नहीं, इस लिये पूछ रहा हूं।
सैलून में एक लड़का-कम-जवान विभिन्न मुद्राओं में शीशे में अपना चेहरा देख रहा था। बोलता जा रहा था –
संकर भाइ, एतना दिन क्या कर रहे थे तुम? पता होता तो सामू से बाल न कटवाये होते। साला बिगाड़ कर धर दिया है। बकलोल बना दिया है।
बकलोल पर जोर देने के लिये विभिन्न प्रकार के वाक्यों में बकलोल शब्द का बारम्बार प्रयोग किया उसने। यह करते हुये अपने हाथों से अपने बालों को बार बार सेट करता जा रहा था।
संकर भाइ, मैं दो-तीन-पांच दिन इंतजार कर सकता था। पता होता कि आने वाले हो। हम तो सोचे कि हनीमून का मामला है, पता नहीं कब आयें संकर भाइ। पर पता होता तो सामू को कतई अपना बाल न छूने देते। साला, बकलोल बना दिया है!
संकर भाइ तुम्हे तो हर कोई पूछ रहा था – संकर दुकान कब खोलिहैं। पूरा शिवकुटी में आदमी औरत सब पूछ रहे थे। समझो कि पूरे शिवकुटी में तुम्हारे बराबर कोई नहीं है बाल काटने में। तुम्हें जो ट्रेनिंग दिये होंगे वो जरूर बड़े उस्ताद होंगे!
मैं महसूस कर रहा था कि इस लड़के के कथन में दिली सच्चाई थी। पूरा वातावरण शंकरमय था उस दुकान में। फिर शंकरमय वातावरण का लाभ उठाते हुये वह लड़का बोला – भूख भी लगी है संकर भाइ। बीस रुपिया — जलेबी आये!?
मेरे बाल कट चुके थे। वहां ज्यादा रुकने का औचित्य नहीं था, यद्यपि मुझे अन्दाज था कि शंकर अपनी प्रशंसा के बाद, हनीमून से लौटने के बाद उस लड़के को जलेबी जरूर खिलायेगा। चलते चलते उस लड़के की फोटो खींच ली। तड़ से वह बोला फोटो खींच रहे हैं क्या? काहे? मैने कहा, बस तुम्हारी शक्ल अच्छी लग रही है।
वह शंकर को पोलसन[1] लगा रहा था, मैने उसे लगा दिया। वापस लौटते उसके शब्द मन में घूम रहे थे – हर कोई पूछ रहा था – संकर दुकान कब खोलिहैं।
मैं भी पूछ रहा था। अंतत: खुल ही गई दुकान।
[1] आशा है आपको पोलसन मक्खन की याद होगी। बम्बई के ब्राउन एण्ड पोलसन के मक्खन की दुकान अंतत: अमूल के आने पर चल न पाई। शायद अब भी आता हो बम्बई में। पर मक्खन लगाने के नाम पर पोलसन बरबस याद आ जाता है।
जौने सैलून में मन जो है फिट्ट हो जाए आदमी के ओंही जाना चाहिए. लड़िका दुसरा सैलून में बार कटा के धोखा खा लिया. एहीं से सब अपना-अपना शंकर खोजि के रखते हैं. पौलसन के बारे पहिले नहीं सुने रहे. फोटो खींचने का तरीका सीखना ही पड़ेगा. हम तो डेराते रह जाते हैं और कहीं खींचने का मन भी करता है ता खींच नहीं पाते.
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ब्लॉग के लिये मैने भी अपना शिव खोज रखा है। गाहे बगाहे टिप्पणी जो कर जाये! 🙂
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बकलोल सुना है और बोला है आज पढ़ा पहली बार है। अजीब लग रहा है। शब्द के अर्थ ढूंढने लगा हूं। ऐसा लग रहा है जैसे यह भी एक विशिष्ट शब्द हो…
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इस पोस्ट/शब्द के चक्कर में मैने भी दो शब्दकोष देख डाले। असफल! 😦
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मैं होता तो जलेबी खाए बिना वापस नहीं आता। चाहे उस के बीस रुपए मुझे देने पड़ जाते।
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चाहता मैं भी वही था। पर अभी सामाजिकता सीखा नहीं। 😦
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चलो संकर की दुकान खुली तो सही
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हां, अंतत: हमारी हेयर कटिंग भी हो पाई वर्षा जी! सिर से बोझ हटा!
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ग्राहक ही बोलता रहा वरना सामान्यतः तो नापितकुलकमलदिवाकर ही यह जिम्मा संभाले रहते हैं.
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शंकर पासवान मूलत: नापित नहीं है, शायद इस लिये!
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आफ्टर हनीमून इफेक्ट एक तरह से लैक्ज़ेटिव का काम किया… शादी के बाद तो इन्सान स्मार्ट हो ही जाता है… ऐसा हम भी बहुत लोगों को देखा हूँ… आप भी हुए होंगे….वैसे फोटो में आप अभी भी बहुत स्मार्ट लगते हैं… ग्रेसफुल…. हमें लोग कहते हैं कि शादी करने का ज़रूरत नहीं है…. क्यूंकि वैसे ही बहुत ही स्मार्ट हूँ… (इसे मुग़ालता भी कह सकते हैं)…. ब्राउन एंड पोलसन से याद आया…. कि हम इस ब्रैंड से बहुत डरता था …. बचपन में … काहे से कि… हम पोलसन को पौइज़न पढ़ता था…. क्यूंकि पोलसन स्मॉल लेटर में लिखा होता था… तो हमें पोलसन पौइज़न नज़र आता था…. और हम ना उसका मक्खन खाता था.. ना ही कस्टर्ड…… और ना ही सूफ्ले ….. और अब यह सब खाने का हमारा उम्र निकल गया… ब्राउन एंड पोलसन अब भी आता है… उसे हम गोरखपुर में देखा हूँ…. और महाराजगंज में भी… पोस्ट पढ़ कर ऐसा लगा कि ब्राउन एंड पोलसन का स्टैनdard गिर गया है…. जो महाराजगंज में भी मिल रहा है… एक बात तो है…. आप पूरा पोस्ट पढने को मजबूर कर देते हैं… हम बहुत ही कम लोगों का पोस्ट पूरा पढ़ता हूँ… इनफैक्ट…हम जिन लोगों पढ़ता हूँ पूरा…… उनका नाम हमारा तीन ऊँगली के वर्टिकल लाइंस में ही पूरा हो जायेगा… बहुत कम लोगों में यह क्वालिटी होता है कि बाँध पायें….. और आप तो पूरा बहाव ही बाँध देते हैं… (डैम इट)…….
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सो कम्प्रिहेंसिव टिप्पणी — (डैम इट!)
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पुणे में हमारे एक मित्र ने किसी से एक बार डिलीट करवा दिया था फोटो. बिना पूछे खिंच कैसे लिया?. डिलीट करो 🙂
ये ट्रिक नहीं आती थी खींचने वाले को.
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बस बस! ऐसे में पोलसन लगाओ और इससे पहले कि व्यक्ति पोलसन से उबरे, सटक लो वहां से! 🙂
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मेरे लिए भी नया शब्दज्ञान है -‘पोलसन’ । अस्तु हम अभी नयी पीढ़ी के ही कहे जाएंगे। यह मक्खन जो लोग प्रयोग करते थे वे अब पुराने हो गये है। 🙂
पूरब के देहाती शंकर को संकर ही बनाकर बुलाते हैं। महादेव जी भला करें।
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पढ़ा – महफूज़ अली जी बता रहे हैं पोलसन गोरखपुर में मिलता है, महराजगंज में मिलता है।
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बकलोल का अर्थ क्या कहा जाये शायद कहना असंभव है, क्योंकि यह एक क्षैत्रिय भाषा का शब्द लगता है जो कि परिस्थितियों के अनुसार विभिन्न अवसरों और विभिन्न संवादों में उपयोग किया जा सकता है, पर शब्द अच्छा लगा। पोलसन तो वाकई हमने पहली बार सुना, आज पता चला कि अमूल और घर के बटर के अलावा भी कोई बटर बाजार में उपलब्ध है।
हम ऐसे जलेबी खानेवालों से सावधान रहने की कोशिश करते हैं।
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बकलोल यूनीक चीज़ है। मूर्ख भी नहीं है। मूर्ख छाप है।
अगर आप ऐसे जलेबी खाने वालों से सावधान रहते हैं तो अपनी प्रशंसा को भी विथ अ पिंच ऑफ साल्ट लेते होंगे। अन्यथा लोग प्रशंसा में गार्डन गार्डन हो जाते हैं!
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प्रसन्नता किसी भी इंसान को सुन्दर बनाती हो शायद। भारत-नेपाल का सौन्दर्य और पर्व-त्योहारों की अधिकता का सम्बन्ध ज़रूर होगा। तभी तो पश्चिम को मातृ-दिवस, पितृ-दिवस आदि इन्वैंट करने पडे – खुशी तो चाहिये ही।
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अनुराग जी, प्रसन्नता व्यक्त होने में अधिक और बोझिल शब्दों की मोहताज भी नहीं होती। इसी लड़के को देख लें!
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