पिछले दिनों भारतीय नौकरशाही में हो रहे चरित्रगत परिवर्तनों के बारे में अहसास के दो अवसर मेरे समक्ष आये। एक था, फॉर्ब्स इण्डिया पत्रिका में एक पुस्तक की समीक्षा पढ़ने के रूप में और दूसरा था, हाल ही में रिटायर हुये रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष श्री विवेक सहाय से मुलाकात के रूप में। मैं दोनो के बारे में इस ब्लॉग पोस्ट में जिक्र कर रहा हूं:

भास्कर घोष राजीव गांधी के जमाने में दूरदर्शन के डायरेक्टर जनरल बनाये गये थे। उन्होने उस समय पर पुस्तक लिखी थी – दूरदर्शन डेज़।
अब उन्होने सिविल सर्विसेज पर एक किताब लिखी है। द सर्विस ऑफ द स्टेट। इसके बारे में एक पुस्तक समीक्षा है फॉर्ब्स इण्डिया के अक्तूबर 21 वाले अंक में। इस समीक्षा में है कि भास्कर घोष मानते हैं कि आई.ए.एस. में सर्विस काडर का भाईचारा ऐसी चीज है जो इस सर्विस को विशिष्टता प्रदान करती है। श्री घोष को रिटायर हुये एक दशक हो गया है। उनके इस कथन पर पुस्तक रिव्यू करने वाले सज्जन (उदित मिश्र) कहते हैं –
“पर यह खुला रहस्य है कि आज कल किसी भी प्रांत में सिविल सेवा के नौकरशाह अपने प्रांत के अलग अलग राजनैतिक आकाओं से सम्बद्ध हैं बनिस्पत अपने स्टेट के काडर से।”
उदित मिश्र के अनुसार आई.ए.एस. का कोई सीनियर नौकरशाह आज के माहौल में जूनियर की सहायता करे तो यह अपवाद ही होगा, परम्परा नहीं! पता नहीं, भास्कर घोष की बजाय इस पुस्तक के रिव्यू से सहमत होने का मन कर रहा है। एक दशक में बहुत कुछ बदला है। सिविल सेवा का चरित्र भी बदला होगा।
अभी कुछ दिन पहले हमारे हाल ही में रिटायर हुये रेलवे बोर्ड के चेयरमैन श्री विवेक सहाय इलाहाबाद में थे। भारतीय रेलवे यातायात सेवा के होने के कारण हम छ अधिकारी उनसे मिलने गये। लगभग सवा-डेढ़ घण्टा उनके साथ थे हम। श्री सहाय ने अपने प्रोबेशन के दिनों की यादों से बात प्रारम्भ की। यह भी चर्चा की कि कैसे अहमदाबाद, वडोदरा और रतलाम में रहते हुये उन्होने रेलवे के काम को सीखा, समझा और सुधारा। आने वाले समय में कोहरे के दौरान परिवर्धित सिगनलिंग और लम्बी गाड़ियों को चलाने के विषय पर भी चर्चा हुई। इनके लिये श्री सहाय ने अपने विशेष इन-पुट्स दिये थे।

बातचीत में हल्के से ही सही, रेलवे यातायात सेवा में हो रहे परिवर्तनों पर भी वैचारिक आदानप्रदान हुआ।हम सातों लोग इस बात पर लगभग सहमत से थे कि हमारा काडर सामुहिकता (कॉमरेडरी) कम, लोगों की व्यक्तिगत आकांक्षाओं और निजी सोच को ज्यादा प्रतिबिम्बित करने लगा है।
निजता कितना व्यक्तित्व आर्धारित है और कितना स्वार्थ आर्धारित, यह बेलाग सवाल श्री सहाय से पूछना रह गया। हम सभी भी शायद रेल सेवा में नैतिकता और ईमानदारी के वर्तमान स्तर एक मत नहीं थे। पर स्वार्थ का घटक बढ़ा जरूर है। लोग उत्तरोत्तर नैतिकता और कर्मठता के स्तर पर भंगुर होते गये हैं – शायद हां!
रेल यातायात सेवा में राजनैतिक हस्तक्षेप वैसा नहीं है जैसा आई.ए.एस. में है (श्री सहाय से यह नहीं पूछ पाया कि उनके अध्यक्ष, रेलवे बोर्ड के कार्यकाल में उन पर राजनैतिक हस्तक्षेप कितना था! )। पर (राजनैतिक हस्तक्षेप को शून्य भी मानें, तब भी) बदलती सामाजिक, आर्थिक दशा ने इस सेवा के चरित्र में इतना परिवर्तन तो ला ही दिया है नजर आये। और वह मुझ जैसे घोंघाबसंत को भी नजर आता है!
बदल रहा है सब कुछ। और उसके साथ साथ मेरी नौकरी/काडर का स्वरूप और चरित्र भी बदल रहा है। सुविधायें बदल रही हैं, सोच भी बदल रही है। सब कुछ इतनी तेजी से हो रहा है कि श्री सहाय अगर अपने मेमॉयर्स जल्दी नहीं लिख मारते तो वे भी वैसे ही पुराने पड़ जायेंगे जैसे भास्कर घोष के हो गये हैं। 😆
श्री विवेक सहाय से यह मुलाकात अनौपचारिक सी थी। हम सभी नोश्टाल्जिया की भावनाओं में बह रहे थे। पर यदि एक स्क्राइब के रूप मैं श्री सहाय का साक्षात्कार लेता और ब्लॉग पर प्रस्तुत कर पाता तो वह पठनीय होता – अत्यंत पठनीय! श्री विवेक सहाय ने अपनी रेल सेवा को बहुत मन से और बहुत रस ले कर जिया है। अधिकांश लोग अपने को टफ और खुर्राट साबित करने के चक्कर में यह जीना भूल जाते हैं!
एक ब्लॉगर को एक फ्री-लांस जर्नलिस्ट का कार्ड छपवा लेना चाहिये, गाहे बगाहे प्रयोग के लिये! 🙂
आपका क्या ख्याल है?!
सही है, सब कुछ तेजी से बदल रहा है। आप अच्छा कर रहे हैं कि इस बदलते दौर के यथार्थ को इस ब्लॉग पर दर्ज़ करते जा रहे हैं।
नौकरशाहों के व्यक्तिगत स्वार्थ और उनकी सोच में इतना घालमेल होने लगा है कि उनके व्यक्तित्व के चारित्रिक लक्षण को रेखांकित कर पाना कठिन हो जाता है।
LikeLike