आज डाला छठ मनाने के बाद स्त्रियों का एक झुण्ड लौट रहा था। आगे एक किशोर चल रहा था प्रसाद की डलई उठाये। औरतें समवेत गा रही थीं मधुर स्वरों में – सीता से ब्याह रचइओ, हो राम, जब जइयो जनकपुर में!

दीपावली के बाद आती है यह छठ। और दीपावली जहां नकली लाइटों, पटाखों चमक-दमक के प्रदर्शन का त्यौहार बनता गया है उत्तरोत्तर, डाला छठ में देशज संस्कृति अभी भी हरी-भरी है। कार्तिक में गंगा की माटी में मौका पाते जैसे दूब फैल रही है, लगभग उसी तरह छठ का उत्सवी उछाह छछंड रहा है।
सवेरे काफी लोग थे गंगा किनारे। बहुत पहले से आये रहे होंगे। एक व्यक्ति के पास तो मैने बैटरी और सी.एफ.एल. लैम्प का अटैचमेण्ट भी देखा। बाकी लोगों के पास भी पूजा अर्चना की सामग्री की डलिया-सूप-गन्ना आदि के अलावा रोशनी का कुछ न कुछ इंतजाम था। बच्चे फुलझड़ी-पठाके ले कर आये थे। ढोल बजाने वाले भी थे।
स्त्रियां नहा चुकी थीं – शायद ज्यादा अन्धेरे में ही नहा ली होंगी, या यह भी हो सकता है घर से नहा कर आई हों। पर कई पुरुष गंगा स्नान करते दीखे। बच्चे नहीं नहा रहे थे। कार्तिक का गंगाजल सवेरे सवेरे ठण्डा भी था।
हर समूह ने गंगा का तट अपने अपने लिये बांट कर मेड़ बना ली थी। पूजा सामग्री सजाये स्त्रियां बैठे थीं। कहीं कहीं समूह में कुछ गा भी रही थीं। गन्ने के तने लोगों ने अपने पूजा स्थल के आगे गंगाजी के छिछले पानी में गाड़ रखे थे।
मैने देखा – अधिकतर स्त्रियां सूप में पूजा सामग्री ले कर पानी में पूर्व की ओर मुंह कर खड़ी सूर्योदय की प्रतीक्षा कर रही थीं। स्त्रियाँ किसी भी उत्सव की रीढ़ हैं। वे न हों तो उत्सव का रस ही बाकी न रहे।

जैसे जैसे पूरब में लालिमा बढ़ रही थी, गहमा गहमी बढ़ रही थी। जिनके पास कैमरे या मोबाइल थे, वे इन क्षणों को संजो रहे थे भविष्य में देखने के लिये।
और सूर्योदय हो गया! देखते ही देखते धुन्धलेसे सूरज कुछ फिट पानी के ऊपर उछल कर चटक लाल गोले के रूप में आ गये। दस मिनट में ही लोग पूजा पूरी कर घाट से लौटने भी लग गये।
मैं चला आया। पत्नीजी रुक गयीं – प्रसाद ले कर आती हूं।
वापसी में स्त्रियों का गीत मन प्रसन्न कर गया – सीता से ब्याह रचइओ, हो राम, जब जइयो जनकपुर में!
सच में डाला छठ त्यौहार अवधपुर का नहीं, जनकपुर का है। सीता माई ने सरयू किनारे डाला छठ के समय सूर्यदेव की पूजा की परम्परा नहीं डाली? क्यों नहीं डाली जी!

प्रकृति और परिवार का सुंदर समावेश होते हैं यह त्यौहार। गंगा मैया की जय॥
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“जिनके पास कैमरे या मोबाइल थे, वे इन क्षणों को संजो रहे थे भविष्य में देखने के लिये।” – ये फिलोसोफिकल लाइन है. कैमरों और मोबाइल ने ऐसा कर दिया है कि हम क्षणों को भी जीने और महसूस करने की जगह भविष्य के लिए संजोना चाहते हैं 🙂
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हां, और भविष्य के लिये जीबी दर जीबी कचरा इकठ्ठा होता जाता है। चित्रों और वीडियोज़ की इण्डेक्सिंग और स्टोरेज भी नहीं हो पाता!
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आपका नित्य गंगा तट भ्रमण वैसे ही इतना सुहाना होता है, और इस छठ की छटा के क्या कहने !
भ्रमण से लौटकर छाया-चित्रकार और चिट्ठाकार के रूप में उसकी यह अभिव्यक्ति वाकई पठनीय बन जाती है।
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ओह, कभी कभी बड़ा कठिन हो जाता है। एक स्प्लिट पर्सनालिटी है। मेरे अन्दर का अफसर वापस लौटते ही काम पर लगना चाहता है। मालगाड़ी परिवहन का यह पीक समय है। यातायात में बहुत झमेला है। थोड़े से व्यवधान के परिणाम बहुत ज्यादा हैं, लिहाजा काम समय मांगता है।
मेरे अन्दर का दूसरा जीव मोबाइल और कैमरे से फोटो डाउनलोड करना चाहता है। मन के बेतरतीब विचार लिख देना चाहता है। उसमें देर होती है। खीझ होती है। घर में बाकी लोगों को आराम से बैठे देख और भी अजीब लगता है।
एक हाइपर एक्टिविटी का समय। और जीडी द ब्लॉगर बहुधा जीडी द अफसर से हार नहीं मानता। 😆
पर कभी कभी लगता है कि नरम स्वास्थ्य और सरकारी काम के प्रकार को देखते हुये परिवर्तन होना चाहिये। क्या परिवर्तन, मैं नहीं जानता! 😦
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छठ पर्व पर सचित्र,रोचक पोस्ट पढ़कर अच्छा लगा।
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सच है, दो भी महिलाओं के हाथ में है, बचा हुआ है।
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छ्ठ की अनूठे दर्शनों के लाभ मिल गये वह भी भोर भोर गंगा किनारे ।
जय छठ मैया ।
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महापर्व छठ की रिपोर्ट सीधे गंगा तट से अच्छी लगी।
शुभकामनाएं।
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“स्त्रियाँ किसी भी उत्सव की रीढ़ हैं। वे न हों तो उत्सव का रस ही बाकी न रहे।” वे तो हमारी संस्कृति की भी रीढ़ हैं.
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सबसे पहले आप और आपके परिवार को दीपावली की शुभ कामनाएं…कोई कारण नहीं है लेकिन सत्य ये है के आप को पढ़े अरसा हो गया था…हो गया सो हो गया अब नियमित पढने की ठान ली है…आप मानसिक हलचल छोड़ अब मानसिक हलचल डाट ओ आर जी पर आ गए हैं…ये शायद तरक्की की निशानी है वर्ना आप ब्लॉग स्पोट क्यूँ छोड़ते? 🙂
बहर हाल आपको पढ़ कर जैसा पहले आया करता था वैसा ही आनंद आज फिर आया… चित्र और कथ्य दोनों विश्व स्तरीय सच्ची…
नीरज
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छठ पर्व की शुभकामनाएं
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