लोग हैं जो इस पोस्ट के शीर्षक में ही दो शब्दों के प्रयोग में फिजूलखर्ची तलाश लेंगे। पर वह जर्जर है यानी वह मरा नहीं है। मूर्त रूप में भी अंशत: जिन्दा है और मन में तो वह मेरा बचपन समेटे है। बचपन कैसे मर सकता है?[1]
पर यह ख्याली पुलाव है कि वह जिन्दा है। एक मकान जिन्दा तब होता है जब उसमें लोग रहते हों। वहां रहता कोई नहीं। बचपन की याद है जब इस मकान में 100-150 लोग रहते थे!
मैने उसके रिनोवेशन का प्लान लोगों के समक्ष रखा पर कोई उसमें रुचि नहीं रखता। कुछ सूख गया है उसमें। एक बीमार वृद्ध की तरह वह कोमा में है, जिसके जीवित उठ बैठने की सम्भावना नहीं है।
वह खण्डहर है। प्रेत या प्रेतात्माओं को आमंत्रित करता ढांचा! लोग चाहते हैं कि वह जमींदोज कर एक नये सिरे से घर बने।
सब लोग शहराती बन गये। गांव से निकले ऐसे कि वापस आना बन्द कर दिये। जिनकी पीढ़ी उससे जुड़ी थी, वे भी नहीं आते। नये बच्चे तो जानते ही न होंगे इस मकान के बारे में। पर सबके मन में जगह जमीन से लगाव है। यह लगाव कितना खर्च करा सकने की क्षमता रखता है – कहा नहीं जा सकता।
आगे आने वाले दिनों महीनों में यह जांचा जायेगा कि लोग क्या चाहते हैं। शायद मिलेंगे और तय करेंगे लोग जर्जर खण्डहर के बारे में!
[1] कुछ महीने पहले मैं अपने गांव गया था – शुक्लपुर, तहसील मेजा, जिला इलाहाबाद। गांव बहुत कुछ बदला था, कुछ पहले सा था और कुछ ऐसा था जो क्षरित दशा में था। उसमें से था हमारा घर भी। सब लोग शहराती हो गये। गांव कोई जाता नहीं। जमीन आधिया पर दी गयी है। उससे कुछ अनाज मिल जाता है। बिना रासायनिक खाद की उपज होती है, अच्छी लगती है। पर वह वाणिज्यिक माप तौल में नगण्य़ सी आमदनी है। … अप्रासंगिक सा हो गया है गांव। सिवाय पुरानी यादें, और उन्हे रिवाइव करने की एक ललक; इसके अतिरिक्त कुछ नहीं है वहां पर। मुझे बताते हैं कि आजकल की ग्रामपंचायत की राजनीति कुछ ऐसी हो गयी है कि गांव में रहने के लिये अलग तरह की मनोवृत्ति चाहिये।
मैं रीवर्स माइग्रेशन के स्वप्न देखने-जीने वाला व्यक्ति हूं। पर कुल मिला कर कुछ खाका बन नहीं पा रहा भविष्य में गांव से लगाव के प्रकार और गांव के घर में निवास को ले कर! 😦
मैं गाँव में रहना चाहता हूँ. पिछले कुछेक साल से ऐसी ही मनोवृत्ति बन रही है पर कोई साथ नहीं देता. गाँव में बुनियादी सुविधाएँ ही मिल जाएँ, इंटरनेट न भी हो तो चलेगा लेकिन बिजली तो हो. बाकी पानी, स्वास्थ्य, संसाधन, सड़कें… सबकी हालत तो खराब है. यदि शहर में सुविधाओं के बीच रहनेवाला आदमी ऐसे में गावों को दुत्कारे तो आश्चर्य नहीं होता. लेकिन मन तो फिर भी गाँव की और ही जाता है. अपना तो वैसे कोई गाँव नहीं था. पुरखों की जमीन वगैरह ठिकाने लगाकर शहर में बहुत पहले ही बस चुके थे. फिर भी कोई जगह हो जो जिसमें गाँव और शहर दोनों के ही दुर्गुण न हों तो वहां बसने की सोची जायेगी… लेकिन ऐसी आदर्श स्थिति की आशा मेरे जैसा घामड़ ही कर सकता है. इसका मतलब ताजिन्दगी शहर में ही पड़े रहेंगे. दो बच्चे है, वे तो कच्चे रास्ते से भी गुज़रना नहीं चाहते, वे कभी पगडंडी पर क्यों कर चलना चाहेगे? गाँव के लोगों से भी पाला पड़ चुका है, उनसे बेहतर तो शहर के कटे-कटे रहनेवाले लोग ही लगे. बड़ा गड़बड़झाला है. असमंजस है. श्रीमती जी से पूछूंगा तो वे उखड जायेंगीं. वे वहीं रहना चाहेंगीं जहाँ बच्चे घर बसायेंगे. चलो, ठीक है तो अपन भी वहीं पड़े रहेंगे. लेकिन गाँव में रहने का मन करता है. सच में. अपन ऐसे ही हैं.
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आप तो जवान हैं बन्धु! कुछ ही सालों में सोलर एनर्जी इतनी सस्ती हो जायेगी कि काम लायक बिजली गांव में मिल सके। वहां कॉस्ट ऑफ लिविंग कम होगा।
फायदे कई हैं, पर सोच समझ कर छलांग मारनी होगी!
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@सोलर एनर्जी इतनी सस्ती
आमीन…….
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जी हां मैं धूप की गर्मी की नहीं, सौर ऊर्जा के स्टोरेज की बात कर रहा हूं! 😆
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@ग्राम्य जीवन यूं तो बड़ा सुहाना लगता है, कुछ हद तक है भी लेकिन थोड़ा खुलिहारने पर अपनी विद्रूपता से अच्छे भले इंसान का सारा कसबल ढीला कर देता है गाँव।
यही सत्य है, जब तक अनाज गाँव से आता रहे, महीना २ महीना गाँव जाकर १ आध दिन मिल लिए तो यादें सुहानी होती हैं, गर सप्ताह भर रुक लिए तो यादें कड़वाहट लिए आती हैं. गाँव की राजनीति सिर्फ वहाँ रहने वाला ग्रामीण ही झेल सकता हैं 🙂
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एक विचार यह भी मन में आता है कि कसबल ढीला तो शहराती जीवन भी कर दे रहा है। यह कि “गाँव की राजनीति सिर्फ वहाँ रहने वाला ग्रामीण ही झेल सकता हैं” हमारी आम प्रतिक्रिया है। पर वह गांव वाला हमसे ज्यादा सक्षम कैसे हो गया कि वह झेल लेता है और हम न झेल पायेंगे।
असल में गांव में हमारी रहने की सोच में यह है कि वह जगह हमें सुकून भरा रिटायरमेण्ट दे। हम यह नहीं सोचते कि वहां की जिन्दगी को हम किस तरह से कण्ट्रीब्यूट कर सकते हैं।
हमने रीवर्स माइग्रेशन की सक्सेस स्टोरीज देखी-सुनी-पढ़ी नहीं हैं! एक दशक पहले न्यू यॉर्क टाइम्स में उत्तर प्रदेश के किसी गांव की सक्सेस स्टोरी छपी थी। उसका लिंक रखना भूल गया। उसमें एक ऑंत्रेपिन्योर ने अपने गांव जा कर वहां के आर्थिक अपलिफ्टमेण्ट का काम किया था।
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जी, ऐसे अपलिफ्टमेण्ट के बहुत उधारहन अपने यहाँ भी मिल जायेंगे, एक आलसी है,- गिरजेश राव जी, इन्होने भी एक सपना देखा है/था, कहीं किसी वेबसाईट पर मैंने देखा, गाँव के बच्चों को कम्पुटर साक्षर बनाना,…. बढिया लगा था इनका कार्यकर्म… पता नहीं वो किस मुकाम पर पहुंचे, मैं नहीं जानता, न ही उनसे इस विषय पर मैंने कभी बात की.
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अपना पुराना घर और ग्राम्यजीवन और भी भाने लगा है, जब शहर हमारा कचूमर निकाल देंगे तो रीवर्स माइग्रेशन आवश्यकता हो जायेगा।
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कचूमर में कस बचा नहीं। हांफ तो गये ही हैं हम!
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हाल ही में अपने पैतृक गाँव जाना हुआ, बचपन यहीं बिता था, जो अब यादों में ही रह गया है. गाँव पूरा बदल गया है. गलियों से लेकर बाजार तक. अनजान लोग, नया घर. शहर का छोटा संस्करण लग रहा था. लगा छोड़ आए हम वो गलियाँ…. अब पीछे जाना सम्भव नहीं. मन भारी जरूर हुआ…
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यहां गांव बदले जरूर हैं, पर शहरी नहीं बन पाये। क्या बने हैं, उसके लिये और ध्यान से ऑब्जर्व करना होगा।
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Aah.
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ग्राम्य जीवन यूं तो बड़ा सुहाना लगता है, कुछ हद तक है भी लेकिन थोड़ा खुलिहारने पर अपनी विद्रूपता से अच्छे भले इंसान का सारा कसबल ढीला कर देता है गाँव। इस पर बहुत कुछ लिखने का मन है लेकिन कभी मूड बना तो लिखूंगा…..लिखूंगा क्या साक्षात दिखाने का ही मन है।
बहरहाल मैंने एक पैटर्न देखा है गाँवों में। कमासुत लोग जब तक बाहर रहते हैं, गाँवों के झगड़े रगरों से उनका जी बचा रहता है। गाँव लौटते हैं तो भी कुछ दिन के लिये आये होने से गाँव वाले ज्यादा खोपचन नहीं मारते, दस दिन के लिये आये हैं तो आठ दिन तक सब शांत रहेगा लेकिन जब नौवां दिन आयेगा तो बटुर आएंगे कि आइये तनिक उसका डांढ़ मेड़ का फैसला हो जाय….नपवा ओपवा लिया जाय। शहराती आदमी सोचता है कि अब क्या नपवाऊं…..जाने के समय टंटा कौन करे….चलने दो जैसा है वैसे ही……फिर अगली बार आउंगा तो फरियाउंगा……लेकिन अगली बार आने तक वहां और दो चार हौदी, बथान, चारा आदि रख जमीन कब्जा ली जाएगी और फिर मामला झुल्ले झुल्ल। शहराती आदमी फिर पहुंचेंगा गाँव तो पहले पांच छह दिन सोचेगा तनिक शांति से रह लूं गाँव का आनंद लूं लेकिन फिर वही पिछली बार की तरह …..सात आठ दिन निकलने के बाद सोचेगा कि अब अगली बार फरियाउंगा।
मजे की बात ये कि जब तक शहरी आदमी बाहर बना रहता है उसका गाँव वालों से स्नेह जो भी कच्चा पक्का अधिया आदि के जरिये होता है बना रहता है। रिटायरमेंट के बाद गाँव वापस आकर जब अपनी जगह जमीन पर शहराती धीरे धीरे अधिकार करना चाहता है तब उसके नाते रिश्तेदारों से एक तरह का फ्रिक्शन शुरू हो जाता है। जाहिर है जिसे अब तक गाँव वाले बेफिक्र भोग रहे थे वह अब कैसे छूटे। वही भाई बन्धु जो शहराती के वापस आने पर आछो आछो किये रहते थे अब बोली बोलने लगते हैं….कोई किसानी बीज की बेहन आदि के बारे में राय लेने जाओ तो हंस कर उड़ा देते हैं कि अब आये हो तो आराम करोगे कि किसानी के पचड़े में फंसोगे ?
बहुत कुछ है इस ग्राम्य जीवन की अलहदा चिलगोजईयां…..कभी मन हुआ तो लिखूंगा इन पर।
वैसे रिवर्स माईग्रेशन के लिये कलेजा पोख्ता करना होता है, विशेष मानसकिता और भावनाओं में बहकर यह निर्ण्य नहीं लिया जा सकता। सब कुछ व्यवहारिक धरातल पर नापना जोखना पड़ता है क्योंकि अपने ही अब तक रहे प्रिय सर्वप्रिय नाते रिश्तेदारों से मानसिक संघर्ष की सम्भावनायें गाहे बगाहे बन ही जाती है। यह एक लोकसत्य है 🙂
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वाह! क्या जबरदस्त टिप्पणी है। एक बार तो मन में आया था कि चुरा कर उससे एक पोस्ट ठेल दूं! 🙂
मेरी पत्नीजी तो इस टिप्पणी से बहुत प्रसन्न हुईं – ये बन्दा गांव में रचा बसा है!
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पोस्ट ठेल ही दिजिए….यह विषय ऐसा है कि हर कोई शख्स इससे कहीं न कहीं जुड़ा है……मन की लप्सी रह रह घोरता-हिलोरता रहता है …..शहर रहेगा तो गाँव की ओर जाना चाहेगा…..गाँव रहेगा तो शहर की ओर लपकेगा 🙂
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गज़ब विवेचन है पंचम दा.
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रिडंन्डैसी की बात तो है ही मगर इंगित खंडहर जर्जर ही तो है -हमारे पैत्रिक आवास का का खंडहर तो अभी भी एक भव्य प्रासाद है …आबाद भी -यह निर्भर करता है जड़ों से जुड़े रहने के लिए किये गए त्यागों पर ……
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आपके त्याग को सराहा जाना चाहिये, अवश्य।
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भाई जी, गाँव में पैदा हुए नहीं। सुनते थे पिता जी और दादा जी गाँव से आए थे। लेकिन पिछले दिनों जब वहाँ जा कर देखा तो उसे भले ही आज गाँव कह दिया जाए पर वह भी उस जमाने का नगर ही था। परकोटे से घिरा। बाजार, हवेलियाँ आदि सब मौजूद थीं। घर गिर कर मैदान हो चुका था। कोई बता रहा था कि दो दुकानें सलामत हैं उन्हें बेच देंगे तो कुछ धन मिल जाएगा वर्ना वे भी खंडहर हो जाएंगी। जमीन चाचाजी मुनाफे पर देते हैं। बचपन में मामाजी के यहाँ जाना होता था। वह भी परकोटे से घिरा नगर ही था। उन का बीड़ी कारखाना था। कोई जमीन नहीं थी। फिर वे हृदयरोग से ग्रस्त हुए तो सब कुछ बेच कर कोटा आ बसे।
वैसे आप के घर को सुधार कर उस में रहने की गुंजाइश अब नहीं लगती। उसे गिरा कर नया बनाने का ही सुझाव अच्छा है। मोह तो मृत शरीर से भी छूटता नहीं वह भी छुड़ाया ही जाता है। वैसे भी लंबे समय शहराती जीवन जीने के बाद गाँव दो दिन में ही सुस्त लगने लगेगा। शहर वापस बुलाने लगेगा।
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कुछ लोग गिरा कर वहां बनाना चाहते हैं। कुछ का कहना है कि वह जगह अब प्राण छोड़ चुकी है, अत: वहां पेड़ लगा देने चाहियें जगह के प्राण पुनर्जीवित करने को।
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पेड़ लगाने का आइडिया अच्छा है जी!
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@ सब लोग शहराती हो गये। गांव कोई जाता नहीं। जमीन आधिया पर दी गयी है।
इस बार छठ में गांव गए थे त एगो भईंसी खरीदकर दरबज्जा पर बांधने का प्लान बना आए हैं। मिलते ही खरीदा जाएगा और संकल्प किए हैं कि दू महीन्ना में एक बेर त जाएंगे ही।
जो जमीन सब अधिया पर दिया गया है, सबको सूचाना दे आए हैं कि इस फसल के बाद वापिस कर देना।
आपके उस पंक्ति पर एगो शे’र याद आया …
पार अपनी हद अगर कर जाएगा
देख लेना शहर यह मर जाएगा
भाग आया गांव को ही लूटकर
लौटकर अब किस कदर घर जाएगा।
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बहुत बढ़िया लगीं ये शेर की पंक्तियां मनोज जी।
दरवज्जे पर जब भैंस बन्धे तो फोटो ब्लॉग पर दिखाइयेगा जरूर!
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ज़रूर! जल्द ही यह अवसर भी भेटा जाएगा।
मां बात फाइअनल कर ली है। पइसा उनके एकाउंट में ट्रान्सफ़र भी होइए गया है।
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बहुत बढिया लगा आपका संकल्प…
आमीन .
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खण्डहर बता रहे है इमारत बुलन्द थी .
अपने गांव के मकान की तो दीवारे भी ढह गयी
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पर इस इमारत को ढहाने की सोची जा रही है। 😦
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