आज कोहरे में मालगाड़ियां फंसते – चलते चौथा दिन हो गया। कल सवेरे साढे दस – इग्यारह बजे तक कोहरा था। शाम सवा सात बजे वह पुन: विद्यमान हो गया। टूण्डला-आगरा में अधिकारी फोन कर बता रहे थे कि पचास मीटर दूर स्टेशन की इमारत साफ साफ नही दिख रही। उनके लिये यह बताना जरूरी था, कि मैं समझ सकूं कि गाड़ियां धीमे क्यूं चल रही हैं।
गाड़ियों का धीमे चलना जान कर मेरे लिये सूचना आदान-प्रदान का अन्त नहीं है। बहुत सा कोयला, अनाज, सीमेण्ट, स्टील, खाद — सब अपने गन्तव्य को जाने को आतुर है। उनकी मालगाड़ियां उन्हे तेज नहीं पंहुचा रहीं। कहीं कहीं ट्रैफिक जाम हो जाने के कारण उनके चालक रास्ते में ही कहते हैं कि वे आगे नहीं चल सकते और उनके लिये वैकल्पिक व्यवस्था न होने के कारण उन्हे स्टेशन पर छोड़ना पड़ता है। एक मालगाड़ी यातायात प्रबन्धक के लिये यह दारुण स्थिति है। और यह भी कष्टदायक है जानना/महसूसना कि कोहरा रेल लदान की सम्भावनायें लील रहा है।
इसके चलते इस परिस्थिति में, सवेरे का समय मेरे लिये अत्यधिक व्यस्तता का होता है। वह व्यस्तता शुरू होती है मालगाड़ियों की दशा जान कर आये शॉक से और धीमे धीमे कुछ समाधान – कुछ निर्णय उभरते हैं। इतना समय लग जाता है कि सवेरे शेव करना और नहाना भारी लगने लगता है। आज तो यह विचार आया कि रात में सोते समय दाढ़ी बना कर नहा लिया जाना चाहिये जिससे सवेरे समय बच सके।
व्यस्तता के चलते कारण कई दिनों से प्रात भ्रमण नहीं हो पा रहा।
आज दोपहर के भोजन के बाद मन हुआ कि कुछ टहल लिया जाये। दफ्तर से बाहर निकल कर देखा – कर्मचारी पपीता, अमरूद और लाई चना खाने में व्यस्त थे; उनके ठेलों के इर्द गिर्द झुण्ड लगाये। एक ओर एक ह्वाइट गुड्स की कम्पनी वाले ने अपना कियोस्क लगा रखा था – मिक्सी, गीजर, हीटर और हॉट प्लेट बेचने का। उसके पास भीड़ से साफ होता था कि रेल कर्मचारी की परचेजिन्ग पॉवर इन वर्षों में (धन्यवाद पे-कमीशन की लागू की गयी सिफारिशों को) बहुत बढ़ी है। अन्यथा, मुझे याद है कि गजटेड अफसर होने के बावजूद नौकरी के शुरुआती सालों में मेरे घर में गिने चुने बरतन थे और खाना नूतन स्टोव पर बनता था। अब भी हम साल दर साल एक माईक्रोवेव ओवन लेने की सोचते और मुल्तवी करते रहते हैं सोच को! :lol:
अच्छा हुआ आज कुछ टहल लिया! वर्ना दिमाग उसी मालगाड़ी के ट्रैक पर कराहता पड़ा रहता!
पता नहीं कब पटायेगा यह कोहरा! :-(

शायद और माह दो माह कोहरा चलता रहेगा… मालगाडियों लेट होती रहेंगी,…. आपकी दोपहर टहलन चलती रहेगा और चाय-पानी की दुकानों का जमावडा भी लगता रहेगा… यही तो जीवन है:)
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अब भी हम साल दर साल एक माईक्रोवेव ओवन लेने की सोचते और मुल्तवी …
इसकी उपयोगिता इतनी है कि आपको अपने कैमरे युक्त मोबाइल अथवा लैपट़ॉप खरीदने से पहले इसे खरीद लेना (जैसा कि हमने किया था…) चाहिए था. :)
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आपकी स्थिति मैं समझ सकता हूँ, एक बार गाड़ी रुकनी प्रारम्भ होती हैं तो उन्हें पुनः गति में लाना बहुत बड़ा कार्य है। हम तो यहाँ कोहरे के लिये तरस गये हैं।
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कितना सरल बना देते है गुरुवर आप किसी भी विषय को | आम आदमी ( मैं भी
अपने को यही समझता हूँ ) झल्लाता है ..कोहरा है तो क्या हुआ ..पटरी तो है है
आँख बंद कर के गाड़ी चलाओ .. तकनिकी जानकारियों से परे .. सलाम करता
हूँ उन लाखो रेल कर्मियों का जो हमें एक जगह से दूसरी जगह सुरक्षित ले जा
रहे है | भुजवा के ठेले ने मुह में पानी भर दिया …. गिरीश
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आज के अखबार में खबर पढ़ने को मिली कि रेलवे “१०० रूपए की आय के बदले १२५ रूपए खर्च” कर रही है . ये खबर और आपका लेख, दोनों को (मिलाकर) पढ़ने से यह लगा कि रेल देर-सवेर ही सही कोहरे में चल तो रही है…. यही बहुत है भारतीय आदमी के लिए. जहाँ डीजल-तनख्वाह के लाले पड़ें हो वहां तकनीक-सुधार तो दूर की कौड़ी है.
” घर सजाने का तसव्वुर तो बहुत बाद का है, पहले ये तय हो कि इस घर को बचाएं कैसे”
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अपने आप में बहुत-सी जानकारियाँ, मजबूरियाँ और व्यस्तताऐं समाये हुए है यह पोस्ट! आज इस पोस्ट को पढकर ही आपकी व्यस्तता को ठीक से जाना। बधाई के पात्र हैं आप कि इतनी व्यस्तता के बीच भी आप हमारे लिए इतना वक्त निकाल लेते हैं। बहुत-बहुत धन्यवाद!
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एक परिचित झलकी -कोना
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Mohtaram Gyan Dutt Ji – Adaaab !
Aap ko shayad main yad hoonga agar nahi to koi bat nahi , main aapke blog ka regular reader hoon.
ek khatak se paida hui aapke ek jumla parh kar, uske bare mein as a student poochna chahta hoon !
Aapne do martaba likha hai ” Iske Chalte ” ———-Mujhe lagta hai ki ek Allahabadi hone ke nate aur ek purane Allahabadi hone ke nate ye jumla aap per phabta nahi hain, maafi chahta hoon magar ye jo AAJTAK aur INDIA TV type ki Hindi Urdu hai , aap jaison se uska second kiya jana mujhe bhala nahi maloom hota, Kya aap is per kuchh roshni dalenge.
Gustakhi Muaaf ! Main Umr mein aap se bohat chhota hoon !
Khalid Umar
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धन्यवाद खालिद जी।
पता नहीं, भाषा में शब्द कैसे आ जाते हैं। “इसके चलते” मेरी भाषा में गहरे से धंसा हो, वैसा नहीं है। पर यह भी है कि मैं टेलीवीजन लगभग नहीं देखता – अत: उसके माध्यम से तो यह शब्द शायद नहीं ही आया है। हिन्दी अखबार भी कम ही पढ़ता हूं; पर वहां से शायद छूत लगी हो। :-)
मैं शब्द बदल दे रहा हूं! :-)
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Shukriya Gyan Ji , Meri nazar mein alfaz sirf alfaz hi nahi hote wo ek puri tahzeeb aur culture ka pata dete hain, aapke alfaz aapki shinakht aur aap ko darshate hain. Lihaza main ne gustakhi kar ke aapse kah diya, mujhe bhi yahi lagta tha ki ye lafz aap ne yunhi likh diya hai, magar phir aapka yunhi hi ……..yun hi nahi hona chahiye.
Ek bar phir shukriya,
Khalid
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sir, badhaii
bahut sundar varnan kiya hae aap ne,tab ke samay aur aaj ke samay maen kafi parivartan ho gaya hae n.
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बहुत सुन्दर और वास्तविक परिदृश्य पेश किया है, रेलवे का, लोगों का और परेशानियों के कोहरे का या यूँ कहे कोहरे की परेशानियों का :)
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