कथरी

बौद्ध विहार में दान के उपयोग के बारे में बहुत पहले पढ़ा था – दान में मिले कम्बल पहले ओढ़ने, फिर बिछाने, फिर वातायन पर परदे … अंतत: फर्श पर पोछा लगाने के लिये काम आते थे। कोई भी कपड़ा अपनी अंतिम उपयोगिता तक उपयोग किया जाता था। मुझे लगा कि कितने मितव्ययी थे बौद्ध विहार।

पर जब मैने अपनी गांवों की जिन्दगी को देखा तो पाया कि इस स्तर की मितव्ययता आम जीवन का हिस्सा है।

पुरानी साड़ी या धोती का प्रयोग कथरी या दसनी बनाने में किया जाता है। यह मोटी गद्दे जैसी चीज बन जाती है। इसका प्रयोग बिछाने में होता है और सर्दियों में यदा कदा ओढ़ने में भी।

मेरे पास दफ्तर में एक दसनी है, जिसे छोटेलाल सोफे पर लंच के बाद बिछा देता है – आधा घण्टा आराम करने के लिये। घर में अनेक इस प्रकार की दसनियाँ हैं। जब यात्रा अधिक हुआ करती थी तो मैं एक रेलवे की बर्थ की आकार की कथरी ले कर चलता था और रेल डिब्बे में घुसने पर पहला काम होता था पैण्ट कमीज त्याग कर कुरता-पायजामा पहनना तथा दूसरा होता था बर्थ पर दसनी बिछा कर अपनी “जगह” पर कब्जा सुनिश्चित करना।

यहां गंगाजी के कछार में शराब बनाने वालों को कथरी का प्रयोग गंगा किनारे रात में सोने या फिर अपने सोमरस को रेत में दबा कर रखने में करते देखा है मैने।

भजगोविन्दम।

कथरी शब्द संस्कृत के कंथ से बना है। भजगोविन्दम में आदिशंकर ने एक सुमधुर पद रचा है –

रथ्याचर्पट विरचित कंथ:
पुण्यापुण्य विवर्जित पंथ:
योगी योग नियोजित चित्तो
रमतेबालोन्मत्तवदेव।

स्वामी चिन्मयानन्द ने इसका अंग्रेजी अनुवाद किया है और उस अंग्रेजी अनुवाद का हिन्दी अनुवाद है –

योगी, जो मात्र एक गोडाडी (गली में परित्यक्त कपड़ों की चिन्दियों को सी कर बनाया गया शॉल) पहनता है, जो अच्छे और बुरे की परिभाषाओं से निस्पृह रहते हुये अपने चित्त को योग में अवस्थित रखता है, वह ईश्वरीय गुणों में रमता है – एक बालक या एक विक्षिप्त की तरह! 

उस दिन श्री गिरीश सिंह ने ट्विटर पर लगदी का एक चित्र लगाया तो मन बन गया यह पोस्ट लिखने का। लगदी, गोडाडी, कथरी, दसनी आदि सब नाम उस भारतीय मितव्ययी परम्परा के प्रतीक हैं, जिनमें किसी भी सम्पदा का रीसाइकल उस सीमा तक होता है, जिससे आगे शायद सम्भव न हो।

और यह रीसाइकल वृत्ति हमारी योगवृत्ति से भी जुड़ी है। आधुनिकों के लिये योग चमकदार मर्केटेबल योगा होगा, पर हमारे लिये तो वह कथरी/लगदी/गोडाडी/दसनी में लिपटा बालोन्मत्त योग है। बस!

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Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

33 thoughts on “कथरी

  1. आपका ब्लॉग पढ़ना एक सुखद अनुभव रहा , सदा की तरह. संस्कृत के कन्थ्ह शब्द से कत्री बनी है जान कारी बढ़ी.
    बिहार के कुछ हिस्से मे इसे गेणरा कहते हैं. वैसे समय के साथ यह गायब सी हो रही है.

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  2. ऐसे ही हम चादर और दरी भी ऐसी ही उपयोग करते हैं, पुरानी साड़ियों की बनी हुई, मेरठ में इसका बहुत काम होता है और हमें पुरानी साड़ियों के बदले में अच्छी और मजबूत साड़ियों की बनी हुई चादर और दरी मिल गईं, जो कि देखने में भी बहुत अच्छी लगती है और इसे ओढ़ भी सकते हैं, कम से कम थोड़ी कम ठंड में तो आराम से ओढ़ सकते हैं।

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  3. इस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार – आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है ‘ब्लॉग बुलेटिन’ पर – पधारें – और डालें एक नज़र – सचिन का सेंचुरी नहीं – सलिल का हाफ-सेंचुरी : ब्लॉग बुलेटिन

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  4. कथरी बनाना हमें भी आता है ,कथरी को काँथा भी कहते हैं और इन्हीं टांकों(स्टिटेज़)का प्रयोग आज कल धड़ल्ले से साड़ियों कुर्तों बेड-कवर आदि में होने लगा है .बहुत आसान और बहत जल्दी होनेवाली कढ़ाई है यह और बहुत सुन्दर भी !

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  5. ये हमने बिलासपुर में अपने ददिहाल में बहुत देखीं थीं. उन्हें कथड़ी कहते हैं. हर मौसम में काम आतीं हैं.
    किफायत से चलने में तो मैं भी बहुत यकीन करता हूँ लेकिन साथवालों को परेशानी होती है.

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  6. बड़े दिनों बाद ये शब्द सुना….यहाँ मुंबई में कामवाली बाइयां आज भी खाली समय में कथरी बनाती हैं.

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  7. अपनी बनाई कथरी आज भी सम्भाल कर रखी है,उसमें धागे भी डिजाइन से डाले हैं। आपकी पोस्ट ने उत्तर प्रदेश के गाँवों के घर-घर की याद दिला दी जहाँ आज भी आपको औरतें कथरी बनाती हुई दिख जाएंगी।

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  8. अभूतपूर्व जानकारी पूर्ण पोस्ट…आपकी शोध प्रवृति को सलाम…

    नीरज

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