
संगम क्षेत्र में जमुना गंगाजी से मिल रही थीं। इस पार हम इलाहाबाद किले के समीप थे। सामने था नैनी/अरईल का इलाका। दाईं तरफ नैनी का पुल। बस दो चार सौ कदम पर मिलन स्थल था जहां लोग स्नान कर रहे थे।
सिंचाई विभाग वालों का वीआईपी घाट था वह। मेरा सिंचाई विभाग से कोई लेना देना नहीं था। अपनी पत्नी जी के साथ वहां यूं ही टहल रहा था।
वीआईपीयत उत्तरोत्तर अपना ग्लिटर खोती गई है मेरे लिये। अन्यथा यहीं इसी जगह मुझे एक दशक पहले आना होता तो एक दो इंस्पेक्टर लोग पहले से भेज कर जगह, नाव, मन्दिर का पुजारी आदि सेट करने के बाद आया होता, आम जनता से पर्याप्त सेनीटाइज्ड तरीके से। उस वीआईपीयत की सीमायें और खोखलापन समझने के बाद उसका चार्म जाता रहा। 😦
एक दो नाव वाले पूछ गये – नाव में चलेंगे संगम तक? पत्नीजी के पूछने पर कि कितना लेंगें, उन्होने अपना रेट नहीं बताया। शायद तोल रहे हों कि कितने के आसामी हैं ये झल्ले से लगते लोग। पर एक बोला आइये वाजिब रेट 200 रुपये में ले चलता हूं, अगर आप दो ही लोगों को जाना है नाव पर। पत्नीजी के बहुत ऑब्जेक्शन के बावजूद भी मैने हां कर दी।
उसने नाम बताया प्रदीप कुमार निषाद। यहीं अरईल का रहने वाला है। एक से दूसरी में कूद कर उसकी नाव में पंहुचे हम। बिना समय गंवाये प्रदीप ने पतवार संभाल ली और नाव को मोड़ कर धारा में ले आया।
बहुत से पक्षी संगम की धारा में थे। नावों और आदमियों से डर नहीं रहे थे। लोग उन्हे दाना दे रहे थे। पास से गुजरती नाव के नाविक ने पूछा – दाने का पैकेट लेंगे? पक्षियों को देने को। दस रुपये में तीन। मैने मना कर दिया। दाना खिलाऊंगा या दृष्य देखूंगा।
प्रदीप निषाद ने बताया कि ये जल कौव्वे हैं। साइबेरिया के पक्षी। सर्दी खत्म होने के पहले ही उड़ जायेंगे काशमीर।
कश्मीर का नाम सुनते ही झुरझुरी हो आयी। आजकल बशरत पीर की किताब कर्फ्यूड नाइट्स पढ़ रहा हूं। भगवान बचाये रखें इन जल कौव्वों को आतंकवादियों से। उन्हे पता चले कि संगम से हो कर आ रहे हैं तो इन सब को हिंदू मान कर मार डालेंगे! 😆
प्रदीप कुमार निषाद बहुत ज्यादा बात नहीं कर रहा था। पूछने पर बता रहा था। सामने का घाट अरईल का है। माघ मेला के समय में वहां शव दाह का काम नहीं होता। वह सोमेश्वर घाट की तरफ होने लगता है। यह नाव बारहों महीने चलती है। बारिश में भी। तब इसपर अच्छी तिरपाल लगा लेते हैं। वह यही काम करता है संगम पर। पर्यटक/तीर्थ यात्री लोगों को घुमाने का काम। सामान्यत: नाव में दस लोग होते हैं। लोग संगम पर स्नान करते हैं। उसने हमें हिदायत दी कि हम नहीं नहा रहे तो कम से कम नदी का जल तो अपने ऊपर छिड़क लें।
मैने अपने ऊपर जल छिड़का, पत्नीजी पर और प्रदीप निषाद पर भी। ऐसे समय कोई मंत्र याद नहीं आया, अन्यथा ज्यादा आस्तिक कर्मकाण्ड हो जाता वह!
धूप छांव का मौसम था। आसमान में हलके बादल थे। लगभग चालीस पचास नावें चल रही थीं संगम क्षेत्र में। ज्यादातर नावों पर काफी लोग थे – अपने अपने गोल के साथ लोग। प्रसन्न दीखते लोग। प्रसन्नता संगम पर घेलुआ में मुफ्त बंट रही थी।
दृष्य इतना मनोरम था कि मुझे अपने पास अच्छा कैमरा न होने और अच्छी फोटो खींच पाने की क्षमता न होने का विषाद अटैक करने लगा। यह अटैक बहुधा होता है और मेरी पत्नीजी इसको अहमियत नहीं देतीं। सही भी है, अहमियत देने का मतलब है पैसा खर्च करना कैमरा खरीदने पर!
करीब आधा घण्टा नाव पर संगम में घूम हम लौटे। प्रदीप अपेक्षा कर रहा था कि मैं बकसीस दूंगा। पर मैने उसे नियत 200 रुपये ही दिये। वह संतुष्ट दिखा।
संगम क्षेत्र का आनन्द देख लगा कि फिर चला जाये वहां!
आप को प्रदीप निषाद सैर करा लाया और साइबेरियन कौवे भी देख लिये । काफी सुंदर हैं ,लगता है बचपन मे पढी कहानी का साबुन घिस लिया इन्होने तभी तो आधे सफेद से हो रहे हैं ।
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हर हर गंगे, जय प्रयाग राज !! आपके ब्लॉग से गुजरत ये ध्वनिय अनायास कानों में गूंजने लगी. संगम का पानी मट मैला लगा, शीत ऋतु में तो अलग ही अपेक्षा थी.
गीतांजलि में रविंद्रनाथ ठाकुर की एक कविता का अनुवाद पढ़ा था ” अपने को सम्मानित करने को अपमानित करता अपने को ”
और यहाँ आने से डॉ राम कुमार सिंह जी से मुलाकात हो गई. मुझे तो बोनस मिल गया ! आपका लिखा बिलकुल सही है.
आपको कैमरा ले ही लेना चाहिए – श्रीमती जी से सादर विनती है की इस मांग पर veto न लगायें- बहुतों के दर्शन सुख का मामला है.
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आगे लिख क्यूँ नहीं रहे!!
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7 दिन हो गये- ऐसे नहीं चलेगा!!
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ओह! यात्रा में और खराब तबियत। मन नहीं लग पा रहा किसी कम में। 😦
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बिना गये घाट करा दी आपने गंगा की सैर.
0 शशि परगनिहा
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आपकी यात्रा के बहाने पाठकों की तीर्थ यात्रा हो जाती है !
रोचक !
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शायद दस बरस की वय रही होगी,जब यहाँ जाना हुआ था…जाने फिर कब सुयोग बने…
अतीव आनंद आया…
पशु पक्षी मनुष्यों से बहुत अधिक श्रेष्ठ हैं..
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इलाहाबाद और बनारस के वृत्तांत मेरी स्मृति का भी हिस्सा हो गये हैं। आपके पन्ने पर आकर अच्छा महसूस हुआ, उम्मीद है आप मौलिकता, रचनात्मकता और स्वस्थ तार्किक बहस को प्रमुखता देते रहेंगे, ‘सर्जना’ पर आइये…….आपका – डॉ. राम
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आपका ब्लॉग देखा। आप तो विकट कलम के धनी हैं रामकुमार जी।
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मनोरम यात्रा!
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