
भोंदू अकेला नहीं था। एक समूह था – तीन आदमी और तीन औरतें। चुनार स्टेशन पर सिंगरौली जाने वाली ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहे थे। औरतें जमीन पर गठ्ठर लिए बैठी थीं। एक आदमी बांस की पतली डंडी लिए बेंच पर बैठा था। डंडी के ऊपर एक छोटी गुल्ली जैसी डंडी बाँध रखी थी। यानी वह एक लग्गी थी।
आदमी ने अपना नाम बताया – रामलोचन। उसके पास दूसरा खड़ा था। वह था भोंदू। भोंदू, नाम के अनुरूप नहीं था। वाचाल था। अधिकतर प्रश्नों के उत्तर उसी ने दिए।
वे लोग सिंगरौली जा रहे थे। वहां जंगल में पत्ते इकठ्ठे कर वापस आयेंगे। पत्ते यहाँ बेचने का काम करते हैं।
कितना मिल जाता है?
रामलोचन ने चुनौटी खुरचते हुए हेहे करते बताया – करीब सौ रूपया प्रति व्यक्ति। हमें लगा कि लगभग यही लेबर रेट तो गाँव में होगा। पर रामलोचन की घुमावदार बातों से यह स्पष्ट हुआ कि लोकल काम में पेमेंट आसानी से नहीं मिलता। देने वाले बहुत आज कल कराते हैं।
भोंदू ने अपने काम के खतरे बताने चालू किये। वह हमारे पास आ कर जमीन पर बैठ गया और बोला कि वहां जंगल में बहुत शेर, भालू हैं। उनके डर के बावजूद हम वहां जा कर पत्ते लाते हैं।
अच्छा, शेर देखे वहां? काफी नुकीले सवाल पर उसने बैकट्रेक किया – भालू तो आये दिन नजर आते हैं।
इतने में उस समूह का तीसरा आदमी सामने आया। वह सबसे ज्यादा सजाधजा था। उसके पास दो लग्गियाँ थीं। नाम बताया- दसमी। दसमी ने ज्यादा बातचीत नहीं की। वह संभवत कौतूहल वश आगे आया था और अपनी फोटो खिंचाना चाहता था।

सिंगरौली की गाड़ी आ गयी थी। औरते अपने गठ्ठर उठाने लगीं। वे और आदमी जल्दी से ट्रेन की और बढ़ने लगे। भोंदू फिर भी पास बैठा रहा। उसे मालूम था कि गाड़ी खड़ी रहेगी कुछ देर।
टिकट लेते हो?
भोंदू ने स्पष्ट किया कि नहीं। टीटीई ने आज तक तंग नहीं किया। पुलीस वाले कभी कभी उगाही कर लेते हैं।
कितना लेते हैं? उसने बताया – यही कोइ दस बीस रूपए।
मेरा ब्लॉग रेलवे वाले नहीं पढ़ते। वाणिज्य विभाग वाले तो कतई नहीं। 😀 पुलीस वाले भी नहीं पढ़ते होंगे। अच्छा है। 🙂
रेलवे कितनी समाज सेवा करती है। उसके इस योगदान को आंकड़ो में बताया जा सकता है? या क्या भोंदू और उसके गोल के लोग उसे रिकोग्नाइज करते हैं? नहीं। मेरे ख्याल से कदापि नहीं।
पर मुझे भोंदू और उसकी गोल के लोग बहुत आकर्षक लगे। उनसे फिर मिलाना चाहूँगा।
सरकारी सुविधा है, किसी कल्याणकारी योजना के तहत रेल चलाना हो, गरीबी रेखा से नीचे के लिये भी।
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jo bhi ho, badalte samay ke saath kaise chalna hai ye jaante hain. shiksha/gyaan ka abhaav inhe aisi sthiti me rahne ko majboor karti hai. rail hi ek sahi saadhan hai, ye aisa maante hain. yah ek achchha saarthak blog hai.
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ब्लाग के पात्र और लेखक दोनों की गाड़ी चल रही है.
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दोनो ही पसीजर हैं। राजधानी एक्स्प्रेस नहीं! 🙂
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एक बार एक मित्र के साथ एक कोच चेक करने का मौका मिला? सच उस दिन मालूम हुआ कि टिकिट किसका चेक किया जाता है? सच….. भौंदू होने के भी अपने फायदे है…..जर्नी फ्री ….अव्वल तो कभी पकडे नही जायेगें ……..और गलती से कभी पकडे गये तो?………… आर पी एफ…………..(राशन पानी फ्री)
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रेल की इस जनसेवा का महत्व मुझे 1984 में पहली बार पता चला था जब मुझे बताया गया था कि रायबरेली से चलने वाली शटल में टिकट नहीं लेना होता है
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मैं आपसे पूछने ही वाला था कि आपके ब्लॉग के किरदार टिकट खरीदते हैं कि नहीं! आज जिज्ञासा शांत हो ही गयी! 🙂
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मुझे लगता है पैसेंजर ट्रेन समाज सेवा के लिए ही बनी है सर जी
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गाँव में मजदूरी 150 हो गई है । और जब से ये मंरेगा आया है मजदूर जल्दी मिलते भी नहीं है ।
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भोंदू जैसे लोग रेलवे का शुकराना रात को दो देसी के पेग लगाने के बाद करते हैं… और हाँ, तीसरे पेग के बाद पुलिस को गालियों से नवाजते भी हैं…
जो भी हो भारतीय रेल श्याद विश्व में सबसे ज्यादा धर्मादा कमाती है.
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उन्हें पता लग जाता कि पाण्डेय जी रेल के ही व्यक्ति हैं तो..???
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मेरे विचार से उन्हें मालुम होगा। मेरे साथ स्टेशन मैनेजर साहब यूनीफार्म में थे।:)
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🙂
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भोंदू और उनके लोगों से मुलाकात करके अच्छा लगा। रेलवे सही में आम जनता की बहुत सेवा करती है।
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