मैं गणतन्त्र दिवस की पूर्व संध्या पर आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम को देखने गया था। हॉल खचाखच भरा था। रेलवे के परिवार थे। रेलवे के स्कूलों के छात्र-छात्रायें थे और बाहरी व्यक्ति भी थे। मीडिया वाले भी। कार्यक्रम का स्तर अच्छा था।
मुझे आगे की कतार में जगह मिली थी। कुछ बायीं ओर। स्टेज को देखने का कोण बहुत अच्छा नहीं था, पर खराब भी नहीं था। लगा कि जब कार्यक्रम देखने आ ही गया हूं तो रस ले सकता हूं देख कर।
लेकिन कार्यक्रम देखने का आनन्द फोटोग्राफ़र्स ने चौपट कर दिया। करीब दर्जन भर थे वे। छोटे-बड़े सब तरह के कैमरों से लैस। कुछ के पास कैमरे भी थे पर उन्हे छोड़ वे मोबाइल जैसे यन्त्र से वीडियो रिकार्डिंग कर रहे थे। इधर-उधर दौड़ भी रहे थे वे स्टेज के पास इस-उस कोण से फोटोग्राफी करने के लिये। आगे की कतार वालों को देखने में बड़ा व्यवधान डाल रहे थे।

जब मैं कार्यक्रम खत्म होने पर हॉल से बाहर निकला तो इन फोटोग्राफ़र्स के कारण मन में कड़वाहट भरी थी।
फोटोग्राफी का व्यवसाय आगे जल्दी ही मरेगा। वैसे ही जैसे तकनीकी विकास से कई अन्य व्यवसाय मर चुके हैं या मृतप्राय हैं। मसलन सेल्फ पब्लिशिंग से पब्लिशर्स खत्म होने वाले हैं। ब्लॉग और सोशल मीडिया की बदौलत पारम्परिक साहित्यकार डयनासोर बन रहे हैं।
इतने सारे कैमरे हैं और इतनी फोटोग्राफ़ी हो रही है विश्व में कि अगर एक किलो बाइट एक किलो के बराबर हो जाये तो चित्रों के वजन से धरती धंस जाये।
लोगों की बढ़ती समृद्धि और हर मौके को यादगार बनाने की चाह के कारण व्यवसायिक फोटोग्राफी करने वाले पिछले दशकों में कुकुरमुत्ते की तरह बढ़े हैं। खैर, अब तकनीकी विकास की बदौलत हर आदमी के हाथ में मोबाइल और उसमें कैमरा है। कैमरे की तकनीकी इस प्रकार की है कि अच्छे चित्र लिये जा सकते हैं और अच्छे वीडियो भी। सेल्फी के माध्यम से उस वातावरंण में चित्र/वीडियो लेने वाला अपने को भी समाहित कर ले रहा है। उसके बाद स्मार्ट फोन पर फोटो एडिटिंग के अनेक औजार हर एक को उपलब्ध हैं। उनकी तकनीक भी इतनी सरल है कि उपभोक्ता को बहुत बड़ा फोटो-पण्डित होने की दरकार नहीं है अच्छी एडिटिंग के लिये।
फोटोग्राफी का व्यवसाय आगे जल्दी ही मरेगा। वैसे ही जैसे तकनीकी विकास से कई अन्य व्यवसाय मर चुके हैं या मृतप्राय हैं। मसलन सेल्फ पब्लिशिंग से पब्लिशर्स खत्म होने वाले हैं। ब्लॉग और सोशल मीडिया की बदौलत पारम्परिक साहित्यकार डयनासोर बन रहे हैं। … हर दूसरा मनई कवि बन जा रहा है। 😦
आज सवेरे एक उदाहरण भी मिल गया – टाइम (TIME) की स्पोर्ट्स इलस्ट्रेटेड ने अपने सभी स्टाफ फोटोग्राफ़र्स की छुट्टी कर दी है। यह पत्रिका अपने सुन्दर स्पोर्ट्स चित्रों के लिये जानी जाती है। पर उसने यह निर्णय किया है कि भविष्य में फोटोग्राफ़ी के लिये वह फ्रीलान्सर फोटोग्राफ़र्स या रिपोर्टर्स के चित्रों पर निर्भर करेगी। इससे पहले शिकागो सन टाइम्स ने अपने सभी फोटोग्राफ़र्स की छंटनी कर दी थी। भारत में भी यह चलन शुरू हो सकता है – आखिर प्रिण्ट मीडिया वैसे भी तंगहालत से गुजर रहा है यहाँ भी। … दोयम दर्जे के पत्र-पत्रिकायें वैसे भी चुराये/कबाड़े चित्रों से काम चला रहे हैं।
शायद अगले दशक में स्टेज के पास जमघट लगाने वाले फोटोग्राफ़र्स से छुटकारा मिल जाये।
प्रोफेशनल फोटो-व्यवसाय का क्षय अवश्यम्भावी है!
सही कहा आपने. ये press photographer और पैसा वसूलने वाले फोटोग्राफर दोनों कार्यक्रमों की जान ले लेते हैं.
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प्रोफेशनल फोटोग्राफर्स का व्यवसाय तो नहीं मरेगा, लेकिन इन जैसे फोटोग्राफरों का व्यवसाय अब अंतिम साँसें ही ले रहा है, जिन्हें खींचना कम, खींचते हुए दिखाना ज़्यादा होता है. यह एकदम ग़ैर-पेशेवराना तरीक़ा है.
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