पलाश, सागौन और मध्यप्रदेश के आदिवासी

पवीण चन्द्र दुबे, चीफ कंजर्वेटर ऑफ फॉरेस्ट, उज्जैन सर्किल।
पवीण चन्द्र दुबे, चीफ कंजर्वेटर ऑफ फॉरेस्ट, उज्जैन सर्किल।

मैं प्रवीणचन्द्र दुबे जी से हाइब्रिड यूकलिप्टस और हाइब्रिड सागौन के प्लाण्टेशन के बारे में चर्चा करना चाहता था। प्रवीण जी मेरे सम्बन्धी हैं। उज्जैन सर्किल के मुख्य वन अधिकारी ( Chief Conservator of Forests) हैं। उससे भी अधिक; विद्वान और अत्यन्त सज्जन व्यक्ति हैं। उनकी विद्वता और सज्जनता मुझे सम्बन्धी होने से कहीं ज्यादा आकृष्ट करती है। अन्यथा कई सम्बन्धी हैं, जिन्हे दूर से ही पैलगी/नमस्कार से काम चलाना सुखद लगता है।

हम श्री रवीन्द्र पाण्डेय (मेरे समधी)  के पौत्र के यज्ञोपवीत संस्कार समारोह मे मिले। बालक संस्कार सम्पन्न होने के बाद सभी बड़े लोगों से भिक्षा लेने के लिये हमारे सामने से गुजर रहा था। पलाश की टहनी ले कर। पलाश की टहनी देख प्रवीण जी को आपसी चर्चा का विषय मिल गया, जिसमें मेरी भी पर्याप्त रुचि थी।

पलाश की हरी पत्तियों की टहनी लिये यज्ञोपवीत के उपरांत भिक्षा के लिये आता बालक।
पलाश की हरी पत्तियों की टहनी लिये यज्ञोपवीत के उपरांत भिक्षा के लिये आता बालक।

 

उन्होने कहा – जानते हैं, पलाश की पत्तियां जानवर नहीं चरता। और जंगल में यह निर्बाध बढ़ता है। अत्यंत पवित्र वृक्ष है यह। ग्रामीण और आदिवासी इसकी पत्तियां पत्तल बनाने के काम लाते हैं। इसकी जड़ में उत्तम प्रकार का फाइबर होता है और उससे मजबूत रस्सियां बनाई जाती हैं। स्त्रियां इसके गोंद से कमर कस/लड्डू बनाती हैं जो प्रसूतावस्था में बहुत लाभदायक है। इसका बीज पेट के कीड़े मारता है।

प्रवीण जी आगे बताने लगे और मैने अपने नोट्स लेने के लिये जेब में रखी नोटबुक खोल ली। पलाश के फूल मधुमेह में लाभदायक हैं। इसकी राख में जो क्षार होता है, वह भी औषधीय गुण रखता है। वह खून को पतला करता है। इसका फूल मां दुर्गा की पूजा में समिधा के काम आता है।

मध्यप्रदेश के आदिवासी एक प्रकार की रोटी – पानिया – बनाते हैं। वे पलाश के पत्तल बिछा कर उसपर रोटी बेलते हैं। फिर उसके ऊपर भी एक पलाश के पत्तों की पत्तल रख कर, दोनो परतों को सिल देते हैं। इस रोटी को उपलों की आग पर सेंक कर रोटी का प्रयोग करते हैं। पलाश और गोबर के धुयें से पानिया का स्वाद अनूठा हो जाता है।

पास बैठे एक सज्जन ने हामी भरी कि रोटी वास्तव में बहुत स्वादिष्ट होती है। वे उज्जैन जा चुके थे और आतिथ्य में प्रवीण जी ने उन्हे पानिया खिलायी थी।

प्रवीण जी ने मुझे भी उज्जैन आने का निमन्त्रण दिया। वहां मुझे भी वे पानिया खिलायेंगे।

प्रवीण जी विद्वान व्यक्ति हैं। उन्होने मध्यप्रदेश की वानिकी, वहां के आदिवासियों की पारम्परिक चिकित्सा और आदिवासियों के वन से जुड़ाव पर तीन पुस्तकें लिखी हैं। मैने उनसे इन पुस्तकों की मांग की। उन्होने वायदा किया कि वे इन पुस्तकों की सॉफ्ट कॉपी मुझे देंगे। निकट भविष्य में मैं उज्जैन जा कर उनसे और भी चर्चा करने का प्रयास करूंगा।

प्रवीण जी से मैं सागौन के प्लाण्टेशन पर चर्चा करने गया था। उन्होने उसके बारे में तो मुझे जानकारी दी; पर यह भी बताया “जानते हैं, गोण्ड आदिवासी सागौन के वृक्षों को कभी काटते नहीं हैं। इसके वन में होने के महत्व को वे जानते हैं। इसी कारण वन में सागौन निर्बाध बढ़ता है। वे केवल अपने परिवार में मृतक की याद में सागौन की लकड़ी की एक तख्ती बना कर निश्चित स्थान पर स्थापित करते हैं। तख्ती का आकार उस व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा के अनुरूप होता है। तख्ती पर विभिन्न चिन्ह बने होते है। बहुत कुछ भित्ति-चित्रों की तरह। जंगली जीवन उनमें उकेरा मिलता है। हर तख्ती में सूर्य और चन्द्रमा अनिवार्य रूप से होते हैं।”

प्रवीण जी के पास वानकी जीवन का अनुभव भी है और वन के प्राणियों के प्रति सहृदय दृष्टिकोण भी। सरल और सौम्य स्वभाव के प्रवीण चन्द्र दुबे न केवल अपने विषय में जानकारी रखते हैं, वरन वन प्रति उनके विचारों में गहराई भी है, अनूठापन भी। कम ही लोग इस प्रकार के मिलते हैं।

मैं प्रवीण जी से उत्तरोत्तर अधिकाधिक प्रगाढ़ सम्पर्क और सम्बन्ध बनाने का प्रयास करूंगा।

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

9 thoughts on “पलाश, सागौन और मध्यप्रदेश के आदिवासी

  1. रोचक जानकारी। आप भाग्यशाली हैं कि दुबे जी जैसे विद्वान व्यक्ति आपके मित्र एवं संबंधी हैं।
    पलाश के पत्तों की पत्तलें तो हमने भी खूब बनाई हैं । गरमी की छुट्टियों की रेलयात्रा यानि फूले पलाशों को देखना। उस वक्त एक मराठी की कविता हमेशा मन में घूमती थी। इसमें अर्जुन के युध्द के समय की अवस्था का वर्णन है कि अर्जुन पुष्पित पलाश की तरह लग रहा है युध्द में खाये घावों की वजह से।
    पुष्पवर्ण नटला पळसा चा,
    पार्थ सावध नसे पळ साचा।
    पाहिले जव निदान तयाचे
    तो दिसे वदन आनत याचे।
    पानिया की तरह की केले के पत्ते में सिंकी रोटी को महाराष्ट्र में पानगी बोलते हैं।

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  2. Vakai shree dubeji bhot hi saral sahaj avam visist vaktitv ke dhani he.aap jese adhikari bhuto nbhavisyati.

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