अधिकांश कांवरिये समूह में थे। वह अकेला चला जा रहा था सवेरे सवा छ बजे। अपनी धुन में। उसके पास रंगबिरंगी कांवर भी नहीं थी। एक रस्सी से दो छोटे प्लास्टिक के जरीकेन लटकाये था कांधे पर। एक आगे और एक पीछे। कपड़े – एक शंकरजी के छापे वाला टी–शर्ट और नेकर, केसरिया रंग में, भी पुराने लग रहे थे। मुझे लगा कि वह अरुण की चाय की चट्टी पर रुकेगा; पर वह चलता चला गया। अभी यहां से बनारस 38 किलोमीटर दूर है। आज पूरा दिन तो लगेगा ही।
उससे मैने पूछा कब चले थे?
कल सवेरे दस बजे। प्रयागराज से। प्रयाग यानि संगम। दारागंज के पास से।
अब तक वह व्यक्ति नब्बे किलोमीटर चल चुका है – एक दिन से भी कम हुआ। कैसे चला होगा?
मुझे लगा कि गलत सुना मैने। अत: फिर पूछा – कल चले थे कि परसों?
कल। पास में 100रुपये थे। जल उठाया प्रयाग में तो चलते चले गये। पुल पार कर इस पार आने पर हुआ कि अब चाय पी लूं। चाय पी कर जब टटोला तो पाया कि सौ रुपये का नोट कहीं गिर गया था। उसके बाद तो लगा कि कहीं रुका भी क्या जाये। पैसे थे नहीं तो चलता चला गया। रात भर चलता रहा हूं।
अवधी में बोल रहा था वह व्यक्ति। मैने परिचय पूछा। नाम बताया रामप्रसाद दूबे (दूबे पर जोर दिया – “बाभन हई“)। गांव पांहों जिला मिर्जापुर। कहने को चार भाई हैं, पर अपना कोई नहीं। मां–बाप–पत्नी–बच्चे कोई नहीं है।
उसने मेरी संवेदना की नब्ज बहुत कस कर दबा दी थी अपना हाल और परिचय बता कर। मैने कहा – चलो, चाय पी लिया जाये।
कटका पड़ाव की नुक्कड़ की दुकान पर बैठे हम। बैठने के पहले रामप्रसाद ने अपने जरीकेन चाय की दुकान की मड़ई के बांस पर लटका दिये।
मैने एक कुल्हड़ चाय पी। उसे दो कुल्हड़ पिलाई। चाय पीते हुये रामप्रसाद ने बताया कि उनकी शादी हुई थी; पर साल भर में ही पत्नी चल बसी। टीबी थी उसे शायद। लोगों ने बात छुपा कर शादी कर दी थी। पत्नी के मरने के बाद दूसरी शादी नहीं की उन्होने।
करते क्या हो?
दो पंड़िया हैं। उन्ही को पालता हूं। अभी पड़ोस वाले को सहेज कर आया हूं। चारा–कबार (भूसा) का इन्तजाम कर। खेती–जमीन नहीं है। थोड़ी जजमानी है। उसी से काम चलता है। जजमान भी जब बुलाते हैं तभी जाता हूं।
मैं जितना रामप्रसाद को सुन रहा था, उतना संवेदित हुये जा रहा था। … गांव–देहात में ऐसे आदमी की भी जिन्दगी चल रही है। इतनी विपन्नता का भाव अगर मुझे एक–आध घण्टे के लिये भी हो जाये तो शायद अवसाद में पागलपन का दौरा सा पड़ जाये! यह आदमी सहज–निरपेक्ष भाव से बाबा विश्वनाथ को जल चढ़ाने जा रहा है। बीस घण्टे से चलता चला जा रहा है।
धन्य शंकर जी! क्या दुनियां है आपकी!

दुकान वाले को मैने कहा कि एक पाव पेड़ा भी दे दें इन्हे। रामप्रसाद ने कहा कि पेड़ा अभी नहीं खायेंगे वे। पेड़ा गंठिया कर रख लिया अपने गमछे में। मैने उन्हे 50रुपये भी दे दिये; यह कहते हुये कि बनारस तक का उनका काम तो चल जायेगा।
रामप्रसाद ने हाथ जोड़ कर मेरा अभिवादन किया। बोले – हां, बनारस तक का इन्तजाम हो गया। आगे जैसा भोलेनाथ करेंगे, वैसा होगा।
गमछे में दो गांठे और थीं। मैने पूछा क्या है। रामप्रसाद ने बताया कि एक में सुर्ती/चुनौटी है। दूसरे में कुछ सिक्के। कुल मिला कर 11 रुपये। रामप्रसाद ने अगर पहले बताया होता कि एमरजेंसी फण्ड में उनके पास 11रु हैं तो शायद मेरी संवेदना की नब्ज उतने गहरे से नहीं दबती कि मैं पेड़ा और पचास रुपये उन्हे देता। पर भले हीं गंवई हो, जजमानी करने वाला बाभन इतनी साइकॉलॉजी जानता है कि किसी अपरिचित में करुणा कैसे उद्दीपित की जा सकती है।
सवेरे सवेरे बटोही के साथ चहलकदमी करते हुये आज विशुद्ध देशज भारत के दर्शन हुये। रामप्रसाद दुबे बाबा विश्वनाथ के दरबार में जा रहे थे। वहां जो पुण्य़ उन्हे मिलने जा रहा था; उसमें मैने जाने–अनजाने अपने को भी टैग कर दिया, एक सौ दो रुपये का खर्च कर।
रामप्रसाद आगे बढ़े बनारस की ओर। मैं अपने घर की ओर लौट चला।
Namaskar sir ji…jab se hosh sambhala hai jindagi se karte jujhte huye khud ko paya hai…sir chota sa govt. Employee samjh lijiye mujhe…duty ke Baad kuch creativity ko ujagar karna chata Hoon…Jo Kuch bhi jindagi mein mehsoosh kiya logo se share karna chata Hoon..
Main bhi blog Hindi mein likhna chata Hoon …Kya aap mujhe Kuch Salah de sakenge…kaise web site banaye….kis topic ko chune…kyun ki main chuki gramin bank ka hissa Hoon aur village area mein Reh kar kaam Karta Hoon ….Kuch web per blog likhna chahta Hoon kripya Salah de…main apka abhari rahunga …Prakash .P. Deoria .U.P.
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आप पहले ब्लॉग बनायें। शेष उसके बाद बात हो।
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बहुत बढ़िया कार्य किया सर
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बढिया किये पचास रुपये देकर टैग हुये !
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