छ दिन पहले मैने सोलर लालटेन झल्लर को उपहार में दी थी। अकेले मड़ई में रहने वाले वृद्ध को। पर मुझे अन्देशा था कि उनके यहां से कहीं कोई चुरा न ले। या फिर इलाके के लिये फ़ैंसी वस्तु मान कर परिवार वाले ही न ले जायें।

वही पता करने के लिये सवेरे साइकिल भ्रमण के दौरान झल्लर की मड़ई की ओर चला गया। झल्लर थे और कुछ लकड़ियां तरतीबवार रख रहे थे – उन्हें जला कर चाय बनाने के लिये। मैने पूछा – किससे बनाते हैं चाय?

झल्लर ने बताया कि दूध तो होता नहीं उनके पास; सो चाय की पत्ती के साथ नीम, लसोड़ा और हरापत्ता (जो जब मुझे दिखाया तो लेमन ग्रास निकला) डाल कर काली चाय बना कर पीते हैं। ये सभी झल्लर के महुआरी/अमराई परिसर में उपलब्ध हैं। लेमन ग्रास तो मुझे पता था कि चाय में फ़्लेवर के लिये मिलाया जाता है। लसोड़ा और नीम का पत्ता भी गुणकारी है, यह आज ही पता चला।

झल्लर टपकते महुआ को भी इकठ्ठा कर रहे हैं। तीन अलग अलग समूहों में रखे थे महुआ के फ़ूल। उन्होने बताया कि ये तीनों ढेर फूलों के सूखने की अलग अलग अवस्था में हैं। परसों, कल और आज के इकठ्ठा किये फूल हैं ये। उनकी महुआरी में इस साल महुआ बहुत कम हुआ है। झल्लर ने बताया कि महुआ का हलुआ, ठेकुआ, रस, रोटी – अनेक तरह से उपयोग करता है उनका परिवार। एक बार कुछ पंजाबी आये थे उनके पास। वे कह रहे थे कि महुआ तो किशमिश से ज्यादा स्वादिष्ट है।

पुराने जमाने की बताने लगे झल्लर। ये जो सामने जीटी रोड है, तब इसपर डामर बिछाया जा रहा था। इकहरी सड़क थी तब। बड़े बड़े गढ्ढे हुआ करते थे। कछवां के सेठ बंधू लाल का इक्का चला करता था कच्चा तम्बाकू ले कर गोपीगंज के लिये। गढ्ढों में जब इक्का फंस जाता था तो गांव वाले पहिये को हाथ से धकेलते थे। गढ्ढे से निकालने के धन्यवाद स्वरूप अंजुरी अंजुरी भर कर तम्बाकू इक्केवान लोगों को दे दिया करता था।
पुराना बताते समय क्रॉनालाजिकल सीक्वेंस का कोई ध्यान नहीं रखते झल्लर। अपने मस्तिष्क में शायद सूचनायें भी सिलसिलेवार नहीं रखी हैं उन्होने। बोलने लगे कि बंगाल में दंगे हो गये थे हिन्दू मुसलमानों के। बहुत मार काट मची थी। उनके पिता कलकत्ता में नौकरी करते थे। तब वापस लौट आये। उनके सेठ ने अपनी गाय बचाने के लिये उनको गाय के साथ ही रवाना कर दिया था। कोई ट्रक तो होते नहीं थे, पैदल ही गाय के साथ आये थे दो और जनों के साथ उनके पिताजी।
मेरे पास नोट करने के लिये कागज कलम नहीं थी झल्लर के कहे को सहेजने के लिये। सो मैने कहा कि कल-परसों आ कर उनके पास बैठूंगा यह सब सुनने और कागज पर करने के लिये।
झल्लर ने कहा – जरूर आइयेगा। आप जैसे सुनने और ग्रहण करने वाले कम ही होते हैं। आम तौर पर तो लोगों के पास समय ही नहीं है।
चलते चलते मैने झल्लर से सोलर लालटेन के बारे में पूछा। उन्होने बताया कि ठीक चल रही है। पर उन्हें बटन ठीक से दबाना नहीं आता था, सो गांव में लड़कों को दे दी है। बकौल उनके “वो पुरानी वाली टार्च ही ठीक है उनके लिये!”
मुझे जो अन्देशा था, वही हुआ। चमकदार लालटेन झल्लर जैसे वृद्ध के पास रुकना कठिन था। सो परिवार वालों ने उनसे ले ही ली!