करहर में महुआ के पेड़ के नीचे बैठा मिला घुरहू। पास में एक करीब 10 फुट की लग्गी (पेड़ से पत्ते तोड़ने की पतले बांस की चोंच जुड़ी डण्डी) पड़ी थी। साथ में उसकी पत्नी और एक कम्बल। पत्नी पास के किसी नल से अपने बरतनों में पानी भरकर लाई थी। बरतन में था एक अल्यूमिनियम की बटुली, एल लोटा, एक तसली और एक कडछुल। घुरहू के पास चप्पल थी, पत्नी बिना चप्पल के दिख रही थी।

उसने बताया कि कल से कटका स्टेशन पर डेरा डाल रखा है। रहने वाला कपसेटी के पास किसी गांव का है। कपसेटी यहां से करीब 25 किलोमीटर दूर है। वहां गांव में कोई बाबू साहब बड़े जम्मींदार हैं। पचास बीघे के काश्तकार। उन्होने रहने को जगह दी है। भारत सरकार ने मकान भी दिया है बनवा कर। मां बाप वहां रहते हैं। घुरहू की पत्नी ने बताया कि एक आठ-दस साल की बच्ची भी है उनकी। गांव में मा-बाप के पास रख छोड़ी है। पत्तियां बीनने के लिये दर दर घूमने में उस बच्ची को साथ ले कर चलना कठिन काम था।
आजकल महुआ की ताजा पत्तियां नहीं हैं। तोडने में ज्यादा नहीं मिलतीं तो सूखी पत्तियां बीन कर पानी में गीला कर तह लगाते हैं वे मुसहर लोग। शाम तक जितनी इकठ्ठा हो जाती हैं, वह ले कर ट्रेन में बैठ जाते हैं और अगले दिन सवेरे बनारस में बेच कर वापस लौटते हैं। घुरहू ने जब यह बताया तो मझे स्पष्ट हुआ कि रेलवे स्टेशन पर डेरा क्यों जमाते हैं ये मुसहर। रेलवे की बिना टिकट बनारस आने जाने की सुविधा उनके जीवन यापन का महत्वपूर्ण अंग है।
जैसा घुरहू ने बताया – रोज करीब 150-200 रुपया कमा लेते हैं वे दोनो मिल कर।
मैने पूछा – आधार कार्ड है तुम्हारा?
घुरहू ने बताया कि है पर बाबू साहब के यहां रखा है। बैंक अकाउण्ट नहीं है। थोड़ा मायूस सी हंसी हंस कर वह बोला – पैसा है ही कितना कि बैंक अकाउण्ट की जरूरत पड़े!
पत्तियां बीनते हुये इलाहाबाद के आसपास तक भी चले जाते हैं ये घुमन्तू मुसहर। घुरहू ने बताया कि पान के लिये महुआ की पत्तियां बीनने के अलावा और जो भी काम मिल जाता है, वह कर लेते हैं। लोग गेंहूं-धान की कटाई के लिये हजार – डेढ हजार रुपये बीघा के हिसाब से ठेका भी लेते हैं। उस काम में कटाई के साथ साथ गट्ठर बनाना शामिल होता है। बकौल घुरहू, वे मेहनत से ही कमाते हैं, पर मेहनत से मिलता बहुत कम है।
अन्य मुसहरों की बजाय घुरहू और उसकी पत्नी ज्यादा जागरूक नजर आये। उनमें अपनी दशा से ऊपर उठने की एक चिनगारी मुझे दिखी। पर में पक्का नहीं कह सकता कि वह चिनगारी वास्तव में थी, या मात्र मेरी सोच में।
चलते चलते मैने उन दोनों को चाय पीने के पैसे दिये और उन्होने प्रसन्न हो कर अपना धन्यवाद व्यक्त किया।
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