उमाशंकर, डबल रोटी वाले

यदाकदा डबलरोटी वाले की दुकान पर जाता हूं। पहले यह दुकान – गुमटी – नेशनल हाईवे पर थी। फिर हाईवे के छ लेन का बनने का काम होने लगा तो गुमटी उसे हटानी पड़ी। बाजार के अंदर, दूर नेवड़िया की ओर जाते रास्ते पर उसने शिफ्ट कर लिया अपना व्यवसाय।

उमाशंकर की डबल रोटी-बेकरी की दुकान। बगल में उनकी पुत्रवधू हैं।

उनका नाम पूछा तो उनकी पुत्र वधू ने बताया – उमाशंकर।

मैं सोचता था कि उमाशंकर का थोक (डीलरशिप) का व्यवसाय है तो ठीक ठाक चलता होगा। “फैमिली ब्रेड” की महराजगंज की डीलरशिप उनके पास है। बनारस से फैमिली ब्रेड वालों का मिनी ट्रक चलता है और रास्ते में ब्रेड की सप्लाई गिराता चला जाता है। ब्रेड के साथ अन्य सामान भी – रस्क, खारी, बन और अन्य बेकरी आईटम। सप्लाई आने पर ये थोक व्यवसायी 8-10 किमी के दायरे के खुदरा दुकानदारों को मोबाइल पर सूचित कर देते हैं। खुदरा दुकानदार आ कर अपनी जरूरत के मुताबिक इनकी दुकान से सामान उठा ले जाते हैं। मेरे जैसे इक्का-दुक्का उपभोक्ता भी दुकान से डबल रोटी खरीद ले जाते हैं – इस आशा के साथ कि इस दुकान पर डबल रोटी अपेक्षाकृत ताजा होगी।

दुकान के पास गुमटी जिसमें गोदाम की तरह सामान रखा जाता है।

पर मैने उमाशंकर को या उनके परिवार वालों को बहुत संतुष्ट नहीं पाया इस व्यवसाय से।

बकौल उमाशंकर; बरक्कत नहीं है इसमें। खटना ज्यादा पड़ता है और आमदनी कम है।

नून-रोटी भर का जुगाड़ हो पाता है।” वह कहता है। मैंं “नून-रोटी” शब्द युग्म पर ध्यान देता हूं। पहले गरीबी या सम्पन्नता-विहीन जीवन को “दाल-रोटी” की संज्ञा मिलती थी। अब दाल का स्थान नून (नमक) ने ले लिया है।

यद्यपि मैं इसपर यकीन नहीं करता कि लोग पहले से ज्यादा विपन्न हुये हैं। जो कुछ आसपास देखता हूं, उससे यही लगता है कि सिवाय कुछ हाशिये पर सरके वर्गों के (मसलन मुसहर और/या बनवासी), घोर गरीबी अब है ही नहीं। भोजन की पौष्टिकता में प्रोटीन के लिये (उत्तरोत्तर) गांव में भी लोग अण्डा और मांस पर निर्भर हो रहे हैं। दाल अब मेरे जैसे वेजीटेरियन की जरूरत भर रह गयी है।

आसपास की दुकानों पर ब्रेड खुद सप्लाई करते हैं उमाशंकर
डेढ़ सौ – दैनिक आमदनी का यही आंकड़ा मुझे हर आदमी बताता है जो दिन भर खटता है। कारीगर (हाथ के हुनर वाले – कारपेण्टर, मिस्त्री) कुछ ज्यादा कमाते होंगे, पर उनके खर्चे भी ज्यादा होते हैं और रहन सहन के स्तर में इन 100-150 वालों से बहुत अन्तर नहीं होता।

पर मुझे जिस सम्पन्नता की आशा थी उस फैमिली-ब्रेड के डीलर से, वह उसमें या उसके परिवार में दिखी नहीं। उस दिन मैने उमाशंकर को महराजगंज बाजार के दूसरे छोर पर दुकान दुकान जा कर ब्रेड सप्लाई करते पाया। यह पता चला कि वह अपनी बिक्री बढ़ाने के लिये डीलर और खुदरा सप्लायर के बीच की हाइब्रिड एण्टिटी का भी काम करते हैं। मल्टी-लेवल-मार्केटिंग।

उसकी दुकान पर एक दूसरा व्यक्ति भी मुझे बहुधा दिखता है। उसकी बजाय ज्यादा मुखर। पतला दुबला। मुझ जैसा ही होगा उम्र में। कभी कभी डीलर महोदय के न होने पर वहीं मुझे सामान दे देता है। उमाशंकर से अच्छा तालमेल लगता है।

आज बनारस से सप्लाई आ चुकी थी। दुकान से काफी सामान खुदरा विक्रेता ले जा चुके थे। वह दुबला व्यक्ति अपनी साइकिल पर सामान लाद कर तैयार था। पूछने पर बताया कि घोसियां जायेगा। दिन भर लग जाता है दुकानों को सामान सप्लाई करने में। वहां छ सात दुकानों में सप्लाई करता है।

उमाशंकर की दुकान से सामान ले कर ये सज्जन घोसियां बाजार के खुदरा दुकानदारों को सप्लाई करेंगे।

“संझा तक लौट पाऊंगा। घोसियां यहां थोड़े ही है। 12-15 किमी जाना और फिर आना। वैसे, आज काम है और जल्दी लौटना है।” फिर बिना मेरे पूछे जोड़ा – “बेकार काम है। दिन भर लगा कर सौ-डेढ़ सौ बचते हैं।”

डेढ़ सौ – दैनिक आमदनी का यही आंकड़ा मुझे हर आदमी बताता है जो दिन भर खटता है। कारीगर (हाथ के हुनर वाले – कारपेण्टर, मिस्त्री) कुछ ज्यादा कमाते होंगे, पर उनके खर्चे भी ज्यादा होते हैं और रहन सहन के स्तर में इन 100-150 वालों से बहुत अन्तर नहीं होता। इस आमदनी को घर की स्त्रियां पार्ट टाइम काम से कुछ फैला लेती हैं। पर एक न्यूक्लियर परिवार पर हर महीने 6 हजार के आसपास ही आंकड़ा बनता होगा आमदनी का। इसी जीवन स्तर को शहर में जीने के लिये शायद 10-12 हजार रुपये की जरूरत हो।


अगले दिन मुझे घर से लिस्ट दी गयी जिसमें रस्क और खारी लाना था। रस्क मेरी पोती को प्रिय है। यह लेने के लिये मैं पुन: उमाशंकर की दुकान पर गया। उमाशंकर रास्ते में ही दिख गये। बताया कि दुकान पर सामान आ गया है; मिल जायेगा। दुकान पर उनकी छोटी पतोहू थी। उसका पति बम्बई में काम करता है। वह भी शायद बम्बई आती जाती होगी – बोली में अवधी-भोजपुरी के साथ साथ बम्बईया पुट भी था उसके। रस्क वह नहीं समझी। दिखाया तो बोली – इसे टोस्ट कहते हैं।

सामान ले कर चला था कि उमाशंकर वापस आते दिखे। सड़क के बीच ही हम दोनो ने अपनी अपनी साइकिल रोकी और बात होने लगी। सन् सत्तर से उमाशंकर भाजपा के कार्यकर्ता हैं। पहले जनसंघ रहा होगा। तब की गरीबी का अनुभव है उन्हें। पर तब और अब में अन्तर यह है कि उनके मत्थे एक बड़े परिवार का भरण पोषण है। उम्र 65 साल की हो गयी है पर काम-धाम से मुक्ति नहीं। परेशानी का कोई अन्त नहीं है। बड़ा लड़का सिर की अन्दरूनी चोट (?) से मानसिक कमजोर है। उसकी शादी हो गयी है और उसके परिवार का जिम्मा भी उनपर है।

भाजपा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को बार बार दर्शाया उमाशंकर ने। लेकिन साथ में यह भी कहा कि पार्टी कार्यकर्ता को अहमियत नहीं देती। ज्यादा पढ़े लिखे नहीं (पांचवी तक पढ़े) हैं वे, “वर्ना, शायद अहमियत मिलती।”

“अब देखअ, डेढ़ साल भवा चापाकल मांगते मांगते शैलेन्दर जी (मेरे साले साहब, इलाके के सांसद प्रतिनिधि) से। अब तक नहीं लग पाया। कहते हैं कि ऊपर बिजली के तार जा रहे हैं। पर डेढ़ साल में मौका ही न बन पाया कि बिजली की चार घण्टे सप्लाई रोक कर बोरिंग करा दी जा सके।… अब क्या बतायें?!”

मैने पूछा; “भाजपा का क्या हाल है इस तरफ़?”

उमाशंकर ने अनमने पन से जवाब दिया – “अपना भी समझ नहीं आ रहा, पार्टी का भी समझ नहीं आ रहा।” आगे अपनी बात जारी रखी उमाशंकर ने। “दुकान हाईवे से गली में शिफ्ट करने पर आधा हो गया है कारोबार। हाईवे पर दुकान के लिये किराया बहुत मांगते हैं। उतने किराया देने में तो कुछ बचेगा ही नहीं..”।

सड़क के बीचोबीच बतियाते काफी समय हो गया था। मैने कहा – कभी उनके पास बैठूंगा। सत्तर के दशक से अब तक हुये महराजगंज बाजार, गरीबी, भाजपा पार्टी आदि के परिवर्तनों पर उन्हें सुनना है मुझे। उससे पता चलेगा कि 40-50 साल में क्या-कैसे हुआ इस इलाके में।

बहुत अनुभव हैं उमाशंकर के। कपड़ा, गल्ला, किराना, चावल… कई चीजों का व्यापार किया है। पार्टी में पद भी पाये और कई स्तर के नेताओं के साथ काम भी किये। यह सब सुनना है उनसे मुझे।

फिर कभी।

उमाशंकर की दुकान

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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