मेरे दो साले साहब उत्तर प्रदेश के सबसे लोकप्रिय व्यवसाय में हैं। नेतागिरी में। बड़े – देवेन्द्र भाई (देवेन्द्रनाथ दुबे) कांग्रेस में हैं। इन्दिरा और राजीव गांधी के जमाने में विधायकी का चुनाव लड़ चुके हैं कांग्रेस की ओर से। आजकल जिला कांग्रेस के महासचिव हैं (यह अलग बात है कि कांग्रेस पूरे पूर्वांचल में वेण्टीलेटर पर है)।
दूसरे – शैलेन्द्र दुबे – भाजपा में हैं। दो बार गांव प्रधान रह चुके हैं। एक बार भाजपा का विधायकी का टिकट पाये थे, पर समाजवादी के उम्मीदवार से हार गये। अगली बार टिकट पाने से चूक गये। फिलहाल सांसद प्रतिनिधि हैं। मैं चाहूंगा कि भाजपा इन्हे भी सांसद बनने के योग्य मानना प्रारम्भ कर दे।
इन दोनों को यह ज्ञात है कि जनता नेता को झकाझक ड्रेस में देखना पसन्द करती है। साफ झक कुरता-धोती या कुरता-पायजामा। कलफ (स्टार्च) से कड़क क्रीज। इतना ग्रेसफुल पहनावा रहे कि कोई भी उनकी ओर देखे और उनपर अटेण्टिव रहे। दोनो अपनी पर्सनालिटी-कान्शस हैं। दोनो जानते हैं कि उनका पचास-साठ फीसदी आभा मण्डल उनके वेश से बनता है।
खैर, पोस्ट इन दोनों की नेतागिरी पर नहीं बसन्त कनौजिया पर है। बसन्त इन दोनों के कपड़े धोते हैं। भाजपा और कांग्रेस की राजनीति से निरपेक्ष, बसन्त दोनो नेताओं के कपड़ों पर सफ़ाई के बाद माड़ी देते हैं और इस्तरी करते हैं। बसन्त न हों तो भाजपा और कांग्रेस के इन नेताओं की नेतागिरी के जलवे की चमक निकल जाये।
करीब छ साल पहले (घर का खर्चा चलने में परेशानी के कारण) बसन्त ने बम्बई जाने की सोची। गांव के धोबियान के कई अन्य लोग भी बंबई में हैं। उन्होने कहा होगा कि बम्बई चले आओ। पर बसन्त के यह बताते ही भाजपा और कांग्रेस एक हो कर उसे बम्बई जाने से रोकने में जुट गये। जो भी तकनीक उन्होने लगाई हो, बसन्त को गांव छोड़ बम्बई जाने से रोकने में सफल रहे।

मेरा विश्वास है कि ये दोनो राइट-ऑफ-सेण्टर वाले दल; भले ही हार्ड और सॉफ्ट हिन्दुत्व का कार्ड खेलें; अगर देश की तरक्की के लिये एक हो जायें तो सारी समस्यायें सुलझ सकती हैं। पर बसन्त के अलावा और किसी मुद्दे पर उन दोनों में सहमति हो, ऐसा दिखाई नहीं पड़ा।
भाजपा और कांग्रेस के इन दोनो नेताओं – और ये दोनों मिल कर लम्बे अर्से तक गांव की प्रधानी कर चुके हैं – ने उसकी एक आवश्यकता – घर के सामने चांपाकल (हैण्डपम्प) दिलाने की पूरी नहीं की। पर बसन्त अपने से इस बारे में कहता भी नहीं है।

मेरे घर के वाशिंग मशीन में धुले कपड़े प्रेस करने ले जाता है बसन्त। इसके अलावा गांव में बसन्त देवेन्द्र भाई, शैलेन्द्र, पॉपुलर कारपेट वाले परिवार के कपड़े धोता-प्रेस करता है। टेण्ट हाउस आदि का लिनेन मिलता हो तो शायद वह धोता हो। उस बारे में बात नहीं की बसन्त ने। नहर में जब पानी होता है तब वहां कपड़े ले जाते देखा है। अन्यथा देवेन्द्र भाई के अहाता के कुंये से पानी ले कर धोता है। वहीं कपड़े इस्तरी भी करता है। कपड़े ड्राईक्लीन करने का काम भी होता है सर्दियों में।
उम्र हो रही है बसन्त की। पचास साल का तो हो ही गया होगा। तीन लड़कियां और एक लड़का है। दो लड़कियों की शादी हो चुकी है। इसलिये घर में चार लोग भर हैं। घर का खर्चा, बकौल उसके, “चल ही जाता है”।

धोबी के काम से उसे घर की जरूरतों के लिये पैसा मिलता है। अनाज के लिये वह राजन भाई के 15 बिस्वा खेत को अधिया पर ले कर जोतता है। उससे गेंहूं-धान मिल जाता है साल भर के भोजन के लिये। बस यही उसका अर्थ-आधार है। यह पता नहीं किया कि आपात् दशा के लिये उसके पास कोई रिजर्व फण्ड है या नहीं।
भाजपा और कांग्रेस की राजनीति से निरपेक्ष, बसन्त दोनो नेताओं के कपड़ों पर सफ़ाई के बाद माड़ी देते हैं और इस्तरी करते हैं। बसन्त न हों तो भाजपा और कांग्रेस के इन नेताओं की नेतागिरी के जलवे की चमक निकल जाये।
किसी पुरानी चोट के कारण घुटने में दर्द रहता है। मेरी पत्नीजी ने दर्द के कारण उसे मेरा पुराना नी-गार्ड (knee guard) दिया। कुछ दिन लगाया उसने। पर धोबी के काम में ठण्डे पानी में लम्बे समय तक काम तो करना ही पड़ता है। दर्द के बावजूद उसे काम में लगे देखता हूं मैं।
सर्दियों में अलाव (सिगड़ी) जलाने के लिये मुझे लकड़ी का कोयला चाहिये था। बताया गया कि गांव में केवल बसन्त ही इस्तेमाल करता है लकड़ी का कोयला। यहां आसपास के बाजार में मिलता भी नहीं। बसन्त ने बताया कि वह गोपीगंज (25किमी दूर) से ले कर आता है। मैने कोयले की कीमत और भाड़ा दिया बसन्त को लकड़ी का कोयला लाने के लिये।
बसन्त को (पैर में दर्द के बावजूद) बड़े ग्रेस के साथ चलते, खड़े होते और बोलते पाता हूं मैं। किसी की बुराई करते या अपना व्यर्थ दुखड़ा रोते नहीं पाया। उसके कपड़े भले ही पुराने हों, बड़े सलीके से धोये-प्रेस किये होते हैं। आखिर धोबी का काम करते हुये अपने वस्त्रों के प्रति कॉंशसनेस तो है ही बसन्त में।
यह तो गांव के चरित्रों में से एक का परिचयात्मक लेख है। ब्लॉग में बसन्त आगे आते-जाते रहेंगे। उनकी प्रकार के आठ-दस चरित्र और हैं। उनपर भी इण्ट्रोडक्टरी पोस्टें पहले लिख डालूं – जिससे गांव की बिसात तो खुल जाये ब्लॉग पर! 😆

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