दाढ़ी बढ़ गई है


पिताजी का दाह संस्कार किए आज सातवां दिन है. दाढ़ी नहीं बनाई गई. बीस अक्टूबर को महापात्र जी पिण्डदान कराएंगे सिर और दाढ़ी मुंडन कराने के बाद.

पता नहीं कर्मकांड संहिता में सेल्फी लेने को वर्जित किया है या नहीं, मैं सेल्फी लेने के दो तीन ट्रायल करता हूँ. पर सफेद दाढ़ी का चेहरा तो जैसा है, वैसा ही रहेगा! स्नेपसीड से एडिट करने पर भी वह बेतरतीब बना रहता है. हिन्दी के दयनीय छाप लेखक जैसा. किसी भी कोण से भारत सरकार के विभागाध्यक्ष सरीखा नहीं लगता. विभागाध्यक्ष महोदय का क्लर्क भी बेहतर लगता होगा.

बेतरतीब दाढ़ी मूँछ. दयनीय हिन्दी पट्टी के लगते हो तुम, जीडी

तुम्हारा तो अफसर बनना ही मिस्टेक थी, जीडी!

आज कई लोग मिलने आए. खर्बोटही दाढ़ी और घटिया वेश के बावजूद भी लोग मिल बैठ कर अच्छा अच्छा बतिया लेते हैं. अधिकांश कहते हैं कि आपने अपने पिताजी की बहुत सेवा की. इतने लोग इतनी बार कह चुके हैं कि अब अपने को भी लगने लगा है कि सही में हमने सेवा की. वर्ना यही भाव मन पर हावी था कि कुछ और कर पाते तो शायद पिताजी दो चार साल चल पाते…. उनके लिए ली गई व्हीलचेयर, एयर बेड और नेब्युलाइजेशन मशीन तथा खांची भर दवा अब मुंह बिरायेंगी. इन सबको अड़ा कर प्राण रोकने की असफल कवायद याद आएगी.

दो दिनों से पूर्वी हवा चलने लगी है. हल्की सर्दी है और उससे जोड़ों का दर्द जोर पकड़ रहा है. पिताजी के घंट पर जल चढ़ाने और दीपक जलाने जाने आने में पैर चिलकने लगता है. नंदू कहता है कि पीपल के तने को पांच बार वैसे मीजूं जैसे पिताजी का पैर दबाता था. पर मुझे हर बार पिताजी का मेरा घुटना सहलाना याद आता है. वे मुझसे पूछते थे कि किस घुटने में दर्द है. सहलाते दूसरा घुटना या कमर या सीना थे, पर सारा दर्द गायब हो जाता था. माई बाबू के ड्यूअल रोल में थे वे. उनकी बीमारी में डबल सेवा करनी थी, वह शायद ठीक से नहीं हुई.

यह समय अजीब है. कुछ भी कहना, लिखना, सम्प्रेषण करना चाहता हूँ; वह घूम फिर कर पिताजी की स्मृति से जुड़ जाता है. आँखों के कोने में कुछ नम सा हो जाता है, जिसे सामने बैठे व्यक्ति की नजर बचा कर एक उंगली से फैलाना पड़ता है…. जाने कितने दिन चलेगा ऐसे.

आज सवेरे गंगा किनारे जाना चाहता था. पत्नी जी ने मना कर दिया. इस समय अकेले घूमना वर्जित है. आज उनसे पूछ लिया था, कल अगर घूमने का मन ज्यादा हुआ तो शायद बिना बताये निकल जाऊं.

आज मिलने आने वाले दंपति

लोग मिलने आए थे. संतोष और साधना शुक्ल. साधना मेरी चचेरी बहन हैं. अरुण सांकृत्यायन – मेरे गाँव में अरुण जी का ननिहाल है. अव्यक्त राम और उषा मिश्र. उषा जी मेरी पत्नीजी की फुफेरी बहन हैं. कमला कांत शुक्ल और उनकी पत्नी रेखा जी. रेखा जी मेरी बहन की सबसे बड़ी ननद हैं. ये सब आत्मीय हैं और सभी सोशल मीडिया पर मेरा लिखा देखते हैं. गांव देहात के बारे में लिखे पर रुचि रखते हैं. यद्यपि गांव और वहां के जीवन के बारे में उनकी सबकी अपनी अपनी थ्योरी हैं. पर वे कहते हैं कि मेरा लिखा उन्हें जमता है. मैं भी यह मान लेता हूं और यह सोचने लगता हूँ कि भविष्य में और रेगुलर लिखूंगा…

शाम को आए अरुण सांकृत्यायन जी. शिवकुटी की ऊबड़ खाबड़ सड़कों में चलते उनके पैर में चोट भी लग गई. सहनशील हैं, चोट लगना बताये भी नहीं.

यह सब होता है. पर घूम फिर कर मन फिर उसी रिक्तता की ओर लौट आता है. The mind is hopping on various issues and books, but comes back to the vacuum of thoughtlessness.

दाढ़ी बेतरतीब बढ़ रही है, जीडी.


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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