“अब बस यही गोले हैं, और गोलों में खड़े ग्राहक। जिंदगी गोलों में बंध गयी है। पता नहीं कितने दिन चलेगा। शायद लम्बा ही चलेगा!” – माणिक कहते हैं।
भारतीय रेल का पूर्व विभागाध्यक्ष, अब साइकिल से चलता गाँव का निवासी। गंगा किनारे रहते हुए जीवन को नये नज़रिये से देखता हूँ। सत्तर की उम्र में भी सीखने और साझा करने की यात्रा जारी है।
“अब बस यही गोले हैं, और गोलों में खड़े ग्राहक। जिंदगी गोलों में बंध गयी है। पता नहीं कितने दिन चलेगा। शायद लम्बा ही चलेगा!” – माणिक कहते हैं।