उन्होने लॉकडाउन में हजारों घर लौटते श्रमिकों को भोजन कराया

वे सुशील हैं। सुशील कुमार मिश्र उर्फ बबलू। पास के गांव भगवानपुर में रहते हैं। उनके पिता राजनाथ मेरे अच्छे मित्र हैं। एक रात जया दुबे के घर बाटी भोज के दौरान वे भी आमंत्रित थे। भोजन के दौरान उन्होने बताया कि उन्होने और उनके मित्रों ने लॉकडाउन 1.0 में हाईवे के पास शिवाला पर दस दिन तक भण्डारा चलाया था। ध्येय था अपने घरों को लौटते श्रमिकों के लिये भोजन -पानी और कुछ आराम की सुविधा देना।

बाटी-भोज के अगले दिन मैं सुशील से मिलने गया उनके घर। लगभग आधा घण्टा उनसे चर्चा हुई। ज्यादातर सुशील ने ही बताया।

“फुफ्फा, लॉकडाउन होने पर पहले पहल जो लोग पैदल निकले वे बिना तैयारी के थे। उनके पास सामान नहीं था, खाने को भी नहीं। रास्ते में उन्हें ज्यादा सहायता भी नहीं मिल रही थी। हम लोग देखते थे उन लोगों को जाते। तब मन में आया कि इनके लिये कुछ करना चाहिये।”

“तूफानी की दुकान पर बैठे बैठे योजना बनी। किसी ने कहा कि कल से किया जाये। पर मैंने जोर दिया कल क्यों, आज से ही श्रीगणेश होना चाहिये। उसी दुकान से आलू-प्याज-आटा-तेल-नमक लिया। सिलिण्डर का इंतजाम मोहित ने किया। शिवाला (शिवमंदिर, जो हाईवे के किनारे है और जहांं पर्याप्त जगह, पानी, छाया आदि है) पर भोजन बनवाया गया। एक मेज पर सारा भोजन रख दिया। पत्तल (थर्मोकोल की थाली) रख दीं। एक कण्टेनर में पानी का इंतजाम किया। जाने वाले श्रमिकों को बताया कि यहां भोजन उपलब्ध है। पहले दिन करीब सत्तर लोगों को भोजन कराया।”

मोहित। मोहित का कहना है कि जल्द ही पुन: शुरु करेंगे अपनी गतिविधि।

“पहले दिन की सफलता के बाद उत्साह बढ़ा। मुख्यत: राहुल, मोहित और गोगई (गांव के नौजवान) और मैं साथ थे। हमें टुन्नू चाचा (शैलेंद्र दुबे) और बीएलबी आटीआई के डायरेक्टर कैलाश बिंद का बहुत सपोर्ट मिला। कैलाश तो हर रोज चले आते थे, यह पूछते हुये कि क्या चीज चाहिये और दुकान पर जा कर वह सामान लेने में भी तत्पर रहते थे। टुन्नू चाचा ने अनाज दिया। उनका वैसे भी इलाके में अच्छा व्यवहार है। उसका लाभ बहुत मिला।”

तूफानी की दुकान पर बैठे बैठे योजना बनी। किसी ने कहा कि कल से किया जाये। पर मैंने जोर दिया कल क्यों, आज से ही श्रीगणेश होना चाहिये।

“करीब दस दिन चला हमारा भण्डारा। हाईवे पर जाते श्रमिकों के अलावा आसपार के गरीब-विपन्न लोगों और मुसहर बस्ती वालों ने भी वहां भोजन किया। रेलवे के काम में लगे मजदूर, जो काम बंद होने के कारण फंस गये थे, उनको भी खाना मिला। रोज 200 से 300 लोगों को भोजन मिला भंडारे में।”

“बहुत ही कष्ट में थे श्रमिक लोग। झुण्ड के झुण्ड आ रहे थे। अकेले भी थे और परिवार के साथ भी। एक दो परिवार तो माल ठेला लिये थे, उसपर बच्चों को और सामान लादे चल रहे थे। कुछ लोग ट्रक पर भी थे। उन सब को सामाजिक दूरी बना कर भोजन के लिये बैठने को कहा जाता था।”

“जो भी श्रमिक थे, जवान थे और स्वस्थ भी। शायद वही लोग पैदल निकलने का साहस जुटा पाये थे। उम्र में वे तीस से पचपन के बीच रहे होंगे ज्यादातर। अधिकांश तो अन्य प्रांतों से थे। कुछ इलाहाबाद में कोचिंग करते स्टूडेण्ट्स भी थे जो गाजीपुर, बलिया, मऊ आदि अपने घरों को लौट रहे थे।”

“जो भी शिवाला पर रुके उनमें से कुछ के बारे में हमने कुछ जानकारी नोट कर ली है। उनके गंतव्य और उनके मोबाइल नम्बर हैं। कुछ फोटो भी लिये हैं। स्थानीय अधिकारी – सीईओ, एसडीएम, एसएचओ और लेखपाल आदि ने भी हम लोगों के काम के बारे में जानकर सहायता की पेशकश की थी। उन्होने यह भी कहा कि अगर लॉकडाउन में आवागमन के पास की जरूरत हो तो वे उपलब्ध करा सकते हैं। पर हमें वह चाहिये ही नहीं था। हमने यही कहा कि सरकारी लोगों की शुभकामनायें ही पर्याप्त है हम लोगों के उत्साहवर्धन के लिये। यह जरूर लगता है कि भविष्य में हम कुछ करना चाहेंगे तो सरकारी अमले से सहयोग मिलेगा।”

शिवाला पर सेवा कार्य के लिए जुटे युवा – मोहित, राहुल, धीरज, सुशील और कैलाश (बांये से दांये)

सुशील ने जितना बताया उससे यह तो स्पष्ट हुआ कि गांव में भी उत्साही और रचनात्मक लोगों की कमी नहीं है। वर्ना मेरा सोचना था कि यह गांव बड़बोले और अकर्मण्य निठल्लों का गांव है। गांव के प्रति मेरी धारणा बदल गयी। सुशील-मोहित-राहुल से आगे बात-व्यवहार से और भी बदलेगी, ऐसा लग रहा है। मैंने उन्हें पुन: भण्डारा प्रारम्भ करने को कहा है। उसमें मेरा जो सहयोग हो सकेगा, करूंगा। अभी वह प्रारम्भ नहीं हुआ है। अभी भी श्रमिक चले आ रहे हैं। यद्यपि अब पहले से बेहतर तैयारी के साथ हैं वे, पर अब भी उन्हें भोजन-पानी और विश्राम का पड़ाव तो चाहिये ही।

शैलेंद्र (टुन्नू) दुबे। इन्होने अन्न उपलब्ध कराया और पीछे से सारा सपोर्ट/सहयोग दिया। शैलेंद्र मेरे साले साहब हैं।

सुशील एण्ड कम्पनी बहुत कुछ कर सकती है। और उनका उत्साह तो संक्रामक है। उत्साह की संक्रामकता विषाणु के संक्रमण से जूझने का सबसे कारगर उपाय है।

भला हो सुशील, मोहित, राहुल और गोगई का! भला हो कैलाश बिंद और शैलेंद्र दुबे का। आशा है, इनके बारे में आगे भी लिखने – कहने को मिलेगा मुझे!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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