बनारस के होटल मिलन में पार्टी थी। मैरिज एनिवर्सरी। हेड वेटर ने “हैप्पी एनिवर्सरी” का चमकीला झालर लटकाया। लोग सामने खड़े हुये। पच्चीस साल शादी के होने पर जयमाल पड़ी; तालियां बजीं। गाना गाया गया। केक कटा।

हेड वेटर केक के छोटे टुकड़े काट रहा था सर्व करने को।
मैंने पूछा – कैसा लग रहा है?
“हमारे लिये तो रुटीन है साहब। रोज ही होता है यह सब!”

अच्छा प्रबंध था। स्नेक्स और भोजन की सर्विस भी, लोगों का ध्यान भी और झांकी जमाने के लिये अतिरिक्त काम भी। मेजबान-मेहमान को कुछ नहीं करना था। बहुत ज्यादा निर्देश भी नहीं देने थे।
तालियां बज रही थीं। सब खुश थे। हेड वेटर के लिये रुटीन था। अन्य कर्मचारियों के लिये भी – सभी निस्पृह भाव से काम कर रहे थे।
निस्पृह भाव से काम न करें तो शायद उत्कृष्टता न आ पाये। अभी भी गांवदेहात में कहीं कहीं घर पड़ोस के नौजवान पांत को सर्विस देते हैं समारोहों में। वे निस्पृह भाव से नहीं रह पाते। और वहां चेंचामेची बहुत मचती है। कभी कभी पांत में बैठे लोगों के सामने ही टुन्न-पुन्न, टिर्र-पिर्र होने लगता है।
इमोशनल अटैचमेण्ट न होने से ही उत्कृष्टता से काम हो सकता है? शायद हां। एक कुशल सर्जन अपने खुद के बच्चे का ऑपरेशन शायद उतनी कुशलता से न कर पाये। वहां इमोशन जुड़ जाते हैं तो व्यग्रता आपने आप आ जायेगी। और जिस शांति, एकाग्रता की जरूरत है, वह नहीं रह पायेगी।
लोग खुश थे। ताली बजा रहे थे। गा रहे थे। मुझे उस हेड वेटर से बात करने में अच्छा लगा। कुछ सीखने को मिला। सोचने को मसाला भी मिला कि कब अटैचमेण्ट महसूस किया जाये और कब निस्पृह रहा जाये?!
