कई बार पाठक या श्रोता बड़ा अजब सा विषय उछाल देते हैं, और एक ब्लॉगर (या अब पॉडकास्टक) अगर उसे अनदेखा करता है तो वह सम्प्रेषण की शृन्खला की एक महत्वपूर्ण कड़ी को कमजोर कर देता है।
धीरेंद्र कुमार दुबे जी के साथ “बैठकी” की शुरुआत “रिटायरमेण्ट @ 45” पर पॉडकास्ट के साथ हुई थी। तब उसपर मिले रिस्पॉन्स को देखते हुये हम दोनो को लगा कि उसी तरह से अन्य विषयों पर भी अपने अनुभव, अध्ययन और मनन के आधार पर सहज बातचीत की जा सकती है, जो सुनने वालों को भी शायद रुचिकर लगे।
पिछली चर्चा पर एक महिला जी की टिप्पणी फेसबुक पर प्राप्त हुई – अब मरने की चर्चा कीजिये। शायद वे साठ और साठोत्तर व्यक्तियों से मरण पर सुनना चाहती हों, या शायद उन्होने इसे यूं ही लिख दिया हो; हमने टिप्पणी को पूरी गम्भीरता से लिया और यह “मरण-चर्चा” कर डाली।
चर्चा निम्न है –

प्रेम सागर पाण्डेय, द्वादश ज्योतिर्लिंग के कांवर पदयात्री हनुमना के आगे – Gyandutt Pandey – मानसिक हलचल
- प्रेम सागर पाण्डेय, द्वादश ज्योतिर्लिंग के कांवर पदयात्री हनुमना के आगे
- रिकंवच के बहाने देसी मिठाइयों और व्यंजनों पर बातचीत Post #13
- ओम प्रकाश यादव, वॉचमैन Post #12
- अगियाबीर के पुरातात्विक अन्वेषक डा. अशोक कुमार सिंह के संस्मरण Post #11
- भदोही जनपद का इतिहास और पुरातत्व – डाॅ. रविशंकर से एक चर्चा Post #10
चूंकि हम (धीरेंद्र और मैं) दोनो मूलत: हिंदू और आस्तिक हैं; हमारी चर्चा का आधार पुनर्जन्म का सिद्धांत रहा है। पर हमने अपने सेक्युलर अनुभव को भी साझा करने का कुछ प्रयास किया है। मसलन, धीरेंद्र ने ब्रोनी वेयर (वृद्धों और मरण के करीब के लोगों को सुकून देने वाली केयर गिवर) के 2009 के ब्लॉग और उसपर आर्धारित पुस्तक का जिक्र किया है जिसमें मरने के करीब लोगों को केयर-गिवर के रूप में उन बातों का जिक्र किया है, जिनको ले कर मरण के करीब लोग पछतावा व्यक्त करते थे। आप अमेजन पर उपलब्ध ब्रोनी वेयर की पुस्तक ले सकते हैं। द गार्डियन पर इस विषय में पठन सामग्री इस लिंक पर मिल सकेगी।

मैं ब्रोनी वेयर के पांच पछतावा बिंदुओं को नीचे प्रस्तुत कर देता हूं –

- काश, मैं वैसे अपनी जिंदगी जी पाता, जैसे मैं वस्तुत: अपने लिये चाहता था; उस तरह से नहीं, जैसा लोग मुझसे अपेक्षा करते थे।
- काश मैं उतनी मेहनत-मशक्कत नहीं करता; काम में उतना पिला नहीं रहता; जितना मैंने किया। लोगों ने अपनी जिंदगी काम की चक्की या ट्रेडमिल पर गुजारने की बजाय यह इच्छा जताई कि काश वे अपने परिवार या प्रिय जनों के साथ ज्यादा समय बिता पाते।
- काश मैं अपनी भावनाओं और संवेदनाओं को व्यक्त करने का साहस रख पाता। बहुत से लोगों ने अपनी फीलिंग दमित की। वे बहुत औसत तरीके से जिये और उस तरीके से नहीं खुल पाये जैसा उन्हें व्यक्त होना चाहिये था। कुछ तो इस कारण बीमार भी हो गये। उनके जीवन में तिक्तता भर गयी।
- काश मैं अपने मित्रों के अधिक सम्पर्क में रहा होता। अपने अच्छे मित्रों के लिये समय न निकाल पाना उनका बड़ा पछतावा रहा। सभी अपने अंत समय में उन मित्रों को याद करते रहे और उन्हें मिस करते रहे।
- काश मैं अपने आप को ज्यादा खुश रख पाता या बना पाता। बहुत से यह जिंदगी भर जान ही न पाये कि प्रसन्नता सामान्यत: अपने से आने वाली या मिलने वाली चीज नहीं, सयास पाने वाली चीज है। उसके लिये यत्न करना होता है।

उक्त बिंदु कोई धर्मग्रंथ या किसी सम्प्रदाय से सम्बंध नहीं रखते। पर वे आपकी अंतिम अवस्था की योजना को मूर्तरूप दे सकते हैं। मुझे अच्छा लगा कि धीरेंद्र ने यह अपनी बातचीत में रखा। इस बात ने पॉडकास्ट बैठकी को विचार संतृप्त किया।
खैर, आपसे अनुरोध है कि पॉडकास्ट पर अपने मनचाहे प्लेटफार्म पर जायें, या फिर इसी ब्लॉग में ही सुनने का कष्ट करें। आपके सुझाव और टिप्पणियां भी हमें बेहतर सोचने, बेहतर बोलने और बेहतर लिखने में सहायक होंगी। उनकी प्रतीक्षा रहेगी।
बड़ी ही रोचक चर्चा। अपनी मृत्यु होते हुये देख पाना बहुत कुछ गहरी पीड़ा में होने जैसा होगा। पीड़ा सहन हो सकती है तभी मृत्यु भी सहन हो सकती है।
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आपकी पॉडकास्ट चर्चा की भी प्रतीक्षा रहेगी! 😊
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