शहराता गांव

यह परिवर्तन – गांव के शहरीकरण का – पिछले दो साल में सामने आया है। इस दौरान नेशनल हाईवे छ लाइन की बनी है और लॉकडाउन भी लग कर हटा है। इन दोनो के व्यापक परिणाम सामने हैं।

ऐसा नहीं है कि उत्तर प्रदेश के इस भाग में अचानक कोई औद्योगिक क्रांति आई है। सरकार के बहुत से दावों के बावजूद कोई छोटी मोटी इण्डस्ट्री इस इलाके में नहीं आयी। बनारस में आयी हो तो आई हो, पर भदोही के इस उनींदे से जिले में वैसा कुछ नहीं दिखता। पर दो परिवर्तन हुये हैं – पहला यह कि नेशनल हाईवे नम्बर 19 के विस्तार के लिये जो जमीन अधिगृहीत की गयी है, उसका मुआवजा लोगों को मिला है। उसका कुछ भाग तो लोगों ने खाया उड़ाया होगा, पर उसका अधिकांश लोकल जमीन जायजाद और छोटे मोटे दुकान-विस्तार में होने लगा है। पैसा लोगों के पास आया है तो वे अपने स्तर पर छोटा मोटा व्यवसाय करने में जुट गये हैं।

दूसरे, लॉकडाउनके कारण कारीगरों का रीवर्स माइग्रेशन व्यापक स्तर पर हुआ था। चूंकि लॉकडाउन लम्बा चला, उनमें से कई ने यहीं पर अपने व्यवसाय तलाशे। लॉकडाउन हटने के बाद बड़ी संख्या में कामकाजी लोग वापस लौट गये पर कुछ, जिन्होने अपना कारोबार यहीं जमाने की पहल की थी, वे यहीं रह गये। उनके पास कुछ पूंजी थी और उससे ज्यादा व्यवसाय करने की प्रतिभा थी।

ये दोनो घटक मिल कर नेशनल हाइवे के किनारे व्यापक परिवर्तन के कारक बन गये हैं।

महराजगंज कस्बे के बाजार में एक दुकान के पास दीवार पर एक पैम्फलेट चिपका दिखा प्लॉट बिकाऊ के बारे में। दुकान वाले ने पहले तो उस पोस्टर के बारे में अनभिज्ञता दर्शाई, फिर पूछा – पलोट क बात करत हयअ का?

पलोट यानी प्लॉट। मेरे हाँ कहने पर उसने बताना प्रारम्भ किया। प्लॉट वाला उनकी बिरादरी का है। बर्फी सोनकर का लड़का। जिला पंचईती का चुनाव भी लड़ा था और अब जमीन खरीद फरोख्त का धंधा करता है।

मुझे क्लियर हुआ कुछ कुछ। बर्फी सोनकर कछवां सब्जीमण्डी का एक प्रतिष्ठित आढ़तिया है। उसके और उसके लड़के रंगीला सोनकर से मेरी कई साल पहले मुलाकात हुई थी। यह लड़का शायद रंगीला की बजाय कोई और हो। पर सब्जी की आढ़त से इतर जमीन खरीद-बेंच में अपना व्यवसाय बढ़ाना मुझे यूं लगा कि इस इलाके में भी उद्यमिता का टोटा नहीं। नई पीढ़ी नये नये फील्ड में अपना हाथ अजमा रही है। यह बहुत अच्छा है।

नौजवान पीढ़ी का किसी बाहुबली का कट्टा धारी शागिर्द बनने की उम्र शायद लद गयी। अब तो बाहुबली भी बुलडोजर और गाड़ी का पलटना झेल रहे हैं। इधर उधर की जेल में आबाद हैं। अब रंगदारी की बजाय काम धाम करने का युग आ रहा है। यह छोटा परिवर्तन सही, इसी के माध्यम से विकास आयेगा।

चक्केश्वर बट्टाफरोश, महराजगंज में आवासीय प्लॉट का विज्ञापन

मुझे अपने गांव और महराजगंज/बाबूसराय बाजार के बीच जमीन के डेवलेपमेण्ट और दुकानों के खुलने के कम से कम एक सौ प्रकरण नजर आये। पिछले दो साल में तीन पेट्रोल पम्प आ गये हैं। तीन डेयरी की किराना आउटलेट वाली दुकानें आसपास खुल गयी हैं। बम्बई के एक फर्नीचर वाले ने यहां दो किमी दूर अपनी बड़ी दुकान खोल ली है। तीन नये ढ़ाबे कम रेस्तराँ चल निकले हैं। चौरी रोड़ पर एक वातानुकूलित बेंक्वेट कम मैरिज हॉल खुल गया है। … गांव तेजी से शहराता जा रहा है। रूरर्बिया (rural+urban) बन रहा है।

हाईवे और रेल लाइन के बीच की आधा किलोमीटर की पट्टी में बड़े फीवरिश पिच पर प्लॉटिंग, दुकानों और रिहायशी इमारतों का निर्माण और जमीन के खरीद-फरोख्त की गतिविधि प्रारम्भ हो गयी है। मेरे गांव से आधा किलोमीटर दूर भी प्लॉटिंग हो रही है। सड़क बन रही है। बड़े फ्लैक्सी-शीट पर प्लॉट बिकाऊ हैं के विज्ञापन लग गये हैं। कल तक जहां जमीन बीघा और बिस्वा में बिक रही थी; अब वर्ग गज और वर्गफुट में बिकाऊ होने लगी है। लोग धनी होने के स्वप्न देख रहे हैं और आसपास दुकानों, ढाबों, नर्सिंग होम और मैडीकल शॉप खोलने की सोचने लगे हैं।

नया उगा प्रॉपर्टी डीलर का दफ्तर

चीजें तेजी से बदलती दीख रही हैं। इस सब का सामाजिक ताने बाने पर क्या प्रभाव होगा, वह देखना बाकी है। अगले दशक में उसी पर नजर रहेगी। अगले एक दशक में मेरे गांव के पांच-दस किलोमीटर के दायरे में हो रहे परिवर्तन देखना रोचक होगा। जब गांव में मैंने रीवर्स माइग्रेट किया था तो इसकी कल्पना बहुत धुंधली थी। अब वह साफ होती जा रही है। गांव तेजी से शहराता जा रहा है। :-)


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

One thought on “शहराता गांव

  1. पांडे जी, बचपन मे यही कोई 10-12 साल की उम्र मे कानपुर से लखनऊ बस से गया था/कई बार कानपुर लखनऊ रेलवे पैसेंजर गाड़ी से भी आना जाना होता था/ रेलवे और सड़क दोनों से आते जाते मुझे जंगल,खेत के अलावा सुनसान सड़क दिखाई देटी थी और इसके अलावा बहुत कम ट्रैफिक और न के बराबर चाय वाले या ढाबा वाले दिखाई देते थे/ आज का हाल यह है की कानपुर से लेकर लखनऊ तक दुकाने मकान वाणिज्यक संस्थान और न जाने क्या क्या पूरे 70-80 किलोमीटर तक सड़क के दोनों किनारों पर निर्माण हो गए है और आलं यह है की अब सड़क के किनारे जमीने नहीं है/ मेरा मकान ईसी हाईवे पर है और जब मेरे पिता जी यहा आए थे तो चारों तरफ जंगल था और आदम ना एडम जात थी/आज आलं यह है की की मिल तक बस्ती ही बस्ती है/हा,यह जरूर मै कह सकता हू जि एक ऐसा शहर जो मेरी आँखों के सामने बसा है और मेरी आँखों ने एक पूरे शहर को बसते हुए देखा है और गवाह है /

    Liked by 1 person

आपकी टिप्पणी के लिये खांचा:

Discover more from मानसिक हलचल

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading

Design a site like this with WordPress.com
Get started