आसन्न मानसून की मानसिक हलचल

गांव, जहाँ जीवन अब भी (कमोबेश) कृषि आर्धारित है; मौसम बहुत मायने रखता है। आज भी यहां मौसम के एप्प के हिसाब से नहीं, नक्षत्र के हिसाब से मृगशिरा या देशज भाषा में ‘मिरघिसिरा’ तपता है। ग्रामीण जीवन में चांद्र मास, नक्षत्र, राशि, तारे (सुकुआ, सप्तर्षि, ध्रुव आदि) अपनी पैठ अभी भी बनाये हैं। यूट्यूब और ह्वाट्सएप्प के युग में भी! घाघ और भड्डरी की कहावतें कोट करने वाले अभी भी हैं – उनकी संख्या भले कुछ कम हुई हो। वैसे तो लगता है कि क्लाइमेट चेंज के युग में उनकी लोकोक्तियों का नया रूप भी बनना चाहिये।


जून 15 2022 –

इस साल तपन कुछ ज्यादा ही चली है। अभी तापक्रम 44-45 डिग्री सेल्सियस बना हुआ है। आद्रता भी है। उसके कारण 44 डिग्री का प्रभाव 49 डिग्री होता है। ऐसे में भी कल पुन्नवासी (पूर्णिमा) को अगियाबीर के दो मित्र – गुन्नीलाल और प्रेमनारायण जी – सवेरे विंध्यवासिनी देवी के दर्शन के लिये निकले थे। एक कप चाय मेरे यहां पीते हुये गये। इतनी तपन में भी, जब पूरा वायुमण्डल झऊंस रहा है, लोग मातृशक्ति के प्रतिश्रद्धा रखते हुये अस्सी किलोमीटर मोटर साइकिल चलाते पंहुचते हैं। गजब श्रद्धा, गजब लोग। विंध्यवासिनी माँ से शायद बारिश की मांग करने गये होंगे। मां जब बारिश भेज देंगी तो खेती बहेतू जानवरों और घणरोजों से बचाने के लिये फिर एक चक्कर लगायेंगे माता के दरबार मेंं। मौसम, उद्यम, श्रद्धा और भग्वत्कृपा – सब साथ साथ चलते हैं यूपोरियन गांव में!

अभी तापक्रम 44-45 डिग्री सेल्सियस बना हुआ है। आद्रता भी है। उसके कारण 44 डिग्री का प्रभाव 49 डिग्री होता है। ऐसे में भी कल पुन्नवासी को अगियाबीर के दो मित्र – गुन्नीलाल और प्रेमनारायण जी – सवेरे विंध्यवासिनी देवी के दर्शन के लिये निकले थे। एक कप चाय मेरे यहां पीते हुये गये।

गुन्नीलाल जी ने लौट कर बताया कि वहां विंध्याचल में बहुत भीड़ थी। विंध्यवासिनी कॉरीडोर का काम चल रहा है तो बहुत अव्यवस्था भी थी। वहां उन्होने कुछ भोजन-जलपान नहीं किया। पण्डा जी ने अपने फ्रिज से एक बोतल पानी पिलाया। कलेवा बंधाई बीस रुपया दिया उन्हें। दर्शन किये जैसे तैसे और लौट पड़े। वापसी में टेढ़वा पर पेड़ा खाये सौ सौ ग्राम। हनुमान जी के मंदिर में कथा चल रही थी, वह दस मिनट सुनी। घर आ गये। बकौल गुन्नी पांड़े; लोग दूर दूर से कष्ट सह कर त्रिवेणी स्नान करने, विंध्यवासिनी और बाबा विश्वनाथ का दर्शन करने आते हैं। वे लोग तो तीन घण्टे और सौ ग्राम टेढ़वा के पेड़ा खा कर दर्शन कर लिये। …. यह श्रद्धा होती है। पैंतालीस डिग्री के तापक्रम पर भी चैतन्य श्रद्धा!

इस श्रद्धा का पांच परसेंट भी मुझमें आ जाये!


जून 18 2022 –

मृगशिरा नक्षत्र लगा हुआ है। बाईस जून तक है पंचांग के हिसाब से। उसके बाद तेईस जून से आर्द्रा। तेईस के पहले ही एक दो शॉवर गिरने चाहियें। कब तक भूंजेंगे भगवान भास्कर। वे जो भांति भंति के भयंकर नरक बताये हैं हमारे पुराणोंं में – जिनमें शरीर को ग्रिल किया जाता है या जलते तेल में डाला जाता है – वे भयंकर नरक वैसे ही होते होंगे जैसा इस समय शरीर-मन-प्राण सह रहे हैं। रोज सुबह दोपहर शाम मोबाइल पर वेदर चैनल एप्प खोल कर देखा जा रहा है कि तापक्रम कुछ कम बता रहा है और/या बारिश के दो चार छींटों की भविष्यवाणी बन रही है या नहीं। अभी तक तो मायूसी ही हाथ लगी है।

एक परिवार जन लपेटा पाइप लगा रहा है बेहन की सिंचाई के लिये। उसके दिन तो बेहन और लपेटा पाइप में लिपटे हैं। उसके लिये यही विन्ध्यवासिनी हैं और यही टेढ़वा का पेड़ा!

मैं तो वेदर चैनल और तापक्रम के चक्कर में पड़ा हूंं, पर किसान अपने काम पर लग गया है। उसको कोई पगार या पेंशन तो मिलती नहीं। उसे तो खरीफ की फसल की तैयारी करनी ही है। मेरे घर के बगल में मेजर साहब का अधियरा धान के बेहन के लिये नर्सरी बना चुका है। उसके परिवार का एक नौजवान लपेटा पाइप लगा रहा है बेहन की सिंचाई के लिये। उसके दिन तो बेहन और लपेटा पाइप में लिपटे हैं। उसके लिये यही विन्ध्यवासिनी हैं और यही टेढ़वा का पेड़ा!

वह नौजवान लपेटा पाइप खोलते हुये मुझे सलाह देता है कि मैं भी एक ट्यूब-वेल बिठा दूं। बैठे बैठे पानी बेंच कर कमाऊं। उसके खेत तक नाली बनवा दूं, जिससे उसे भी आराम हो। लपेटा पाइप खोलने, लगाने का झंझट भी न हो।

धान की नर्सरी बनाने का उपक्रम।

“एक ट्यूब-वेल कितने में लगता है?” मेरे यह पूछ्ने पर वह ब्लैंक लुक देता है। उसे रुपया कौड़ी का हिसाब नहीं मालुम। जैसे मुझे भी धान के बेहन का खेत-पानी का हिसाब नहीं मालुम। हम सभी का दूसरे के काम का आकलन नहीं आता। पर हम सभी अपनी अज्ञानता में विशेषज्ञ बने घूम रहे हैं। वह तो फिर भी खाने भर को धान उपजा लेगा; मैं तो सिवाय ब्लॉग पोस्ट लेखन के और कुछ नहीं कर सकता!

खड़ंजा बनना प्रकृति से संस्कृति की ओर कदम है। और जब उस खडंजे के बीच, ईंटों के सांसर में, घास उगने लगती है तो संस्कृति का पुन: प्रकृति करण होने लगता है। संस्कृति और प्रकृति के बीच का सामंजस्य, माधुर्य ही गांव का प्लस प्वॉइण्ट है।


जून 23 22 –

मुझे गांव में रहते छ साल हो गये। अब कुछ दिन बाद आने वाला मानसून यहां का सातवां होगा। पहले मानसून में अनजाने मौसम और क्रियाकलाप की सनसनी भी थी और हम उसके लिये तैयार भी नहीं थे। हमेशा यह आशंका रहती थी कि कब कोई सांप घर में घुस कर किसी कोने में बैठा मिलेगा। घर के बाहर चलने के लिये रास्ते भी नहीं थे। पैर कीचड़ में सन जाते थे। वह साल अनुभव और कठिनाई का समांग मिश्रण रहा। उत्तरोत्तर हम मौसम परिवर्तन के अभ्यस्त होते गये। अब भी मानसून आने पर जीवन अस्तव्यस्त होता है, पर उसमें आश्चर्य के तत्व कम ही होते हैं। और जब आश्चर्य नहीं होता तो एक स्तर पर उसकी पूर्व तैयारी भी हो जाती है।

आश्चर्य और पूर्व तैयारी? कुछ ज्यादा तैयारी सम्भव ही नहीं है। यह गांव है, अरण्य तो नहीं पर अरण्य के तत्व तो हैं ही। मेढ़क आ गये मौसम की पहली बरसात के बाद। और बारिश भी क्या झमाझम थी। रात इग्यारह बजे हम शयन कक्ष से निकल कर अपने पोर्टिको में बैठे। पानी की फुहार कभी दक्षिण से उत्तर को थी और कभी उत्तर से दक्षिण को। छ्त के नीचे रह कर भी पूरा भीग गये हम। फिर ठण्ड कम करने को एक एक ग्लास दूध और स्नेक्स का सहारा लिया। रात बारह बजे पानी और हवा की आवाज के बीच झूमते पेड़ों को निहारना और बीच बीच में मेढ़क की आवाज सुनना एक अनूठा ही अनुभव है।

मेढ़क निकले तो सांप कहां पीछे रहेंगे? अगले दिन एक असाढ़िया सांप मेरे पैर के पीछे से निकल गया। सरसराता। मैंने तो देखा तब जब मित्र गुन्नीलाल पांड़े जी ने मुझे आगाह किया। बड़ा था। दो मीटर का। मोटा भी। अंदाज न हो तो उसकी कद काठी देख कर आदमी भय से जड़वत हो जाये। … ऐसे अनुभव शहर में नहीं ही मिलते। मुझे रेल के जीवन में कम ही मिले ऐसे अनुभव। उस हिसाब से नौकरी के चालीस साल पर पोस्ट रिटायरमेण्ट के छ साल भारी हैं।

जून 26 2022 –

निरुद्देष्य साइकिल चलाना अच्छा लगता है जब गर्मी और उमस के बाद बारिश के पहले की ठण्डक भरी सुबह हो। कल मैं गया एक दूसरे गांव की ओर। बसंतापुर को एक खड़ंजा जाता है। उसपर कुछ दूर बाद कच्ची सड़क है – या पगडण्डी। देखा उसपर म-नरेगा का काम चल रहा है। राधेश्याम पाल काम करा रहे थे। कुल छबीस लोग काम पर थे। सड़कों का बनना प्रगति है। खड़ंजा बनना प्रकृति से संस्कृति की ओर कदम है। और जब उस खडंजे के बीच, ईंटों के सांसर में, घास उगने लगती है तो संस्कृति का पुन: प्रकृति करण होने लगता है। संस्कृति और प्रकृति के बीच का सामंजस्य, माधुर्य ही गांव का प्लस प्वॉइण्ट है। अन्यथा नये जमाने की विकृतियां तो घेर-दबोच ही रही हैं।

बसंतापुर को एक खड़ंजा जाता है। उसपर कुछ दूर बाद कच्ची सड़क है – या पगडण्डी। देखा उसपर म-नरेगा का काम चल रहा है। राधेश्याम पाल काम करा रहे थे। कुल छबीस लोग काम पर थे।

बारिश में बसंतापुर जाने का रास्ता पुख्ता हो जायेगा! चौमासा कहता है हम अपने घर में दुबके रहें। म-नरेगा की सड़क जोड़ने की जद्दोजहद में लगी है। यह कशमकश ही जीवन है। मानसिक हलचल उसी उद्वेलन का दस्तावेजीकरण होना चाहिये। नहीं?


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

One thought on “आसन्न मानसून की मानसिक हलचल

  1. पांडे जी ,चौमासा हर साल आता है और एक एक दिन बिता करके चला जाता ही/बचपन मे चौमासा देखते और बिताते थे वह अब कही नहीं दिखाई देता/बरसात होती थी तो हफ्ते हफ्ते भर पानी बरसता रहता था/घास पात की सब्जी चौलाई पुनर्नवा मकोह नारी जैसी पत्तीदार सब्जी खाने को मिलती थी/अब कहा वो मंजर,जब टपकते हुए घरों मे बड़ी थाल के नीचे बैठे हुए बरसात के पानी से बचने का उपक्रम करते थे/ अब गावों मे आना जाना सरल है उतना कठिन और दुरूह नहीं जैसा बचपन मे झेला करते थे /

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