कल पीटर हिग्स की बायोग्राफी के बारे में मानसिक हलचल थी। लार्ज हेड्रॉन कोलाइडर, गॉड पार्टीकल या पीटर हिग्स के बारे में लोगों को ज्यादा जिज्ञासा नहीं। उसकी बजाय गीतांजलि श्री की टूम्ब ऑफ सैण्ड पर बहुत चर्चा होती है। यद्यपि रेत समाधि और हिग्स बोसॉन – दोनो ही पढ़ने-समझने में कष्ट देते हैं। रेत समाधि तो पल्ले पड़ी नहीं। हो सकता है अनुवाद पढ़ने में समझ आये। पर हिंदी की किताब अंग्रेजी में पढ़ना कितना सही होगा?
मेरा विचार है कि बुकर या मेगसेसे पुरस्कार एक गिरोह के लोगों का उपक्रम है जो अपनी गोल के लोगों को प्रोमोट करता है। केजरीवाल, संदीप पाण्डेय, अरुंधति राय या अब गीतांजलि श्री उसी गोल के जीव हैं। हो सकता है मैं गलत होऊं। पर ‘मानसिक हलचल’ जो है सो है।
आज मन हुआ कि उन आसपास के चरित्रों को समेटा जाये, जो पिछले कुछ दिनों में मुझे दिखे।
इस्लाम
इस्लाम नाम का फकीर दिखा जो गांव की सड़क पर अकबकाया सा खड़ा था। वह तय नहीं कर पा रहा था कि किधर जाये। गांव में मैंने मुसलमान कम ही देखे हैं। दूर ईंटवा की मस्जिद से कभी कभी रात में अजान सुनाई पड़ती है। वहां गरीब तबके के मुसलमानों की बस्ती है। इसके अलावा गांव में कुछ नट परिवार रहते हैं जो मुसलमान बन जरूर गये हैं पर हैं वे जन जातीय। इस्लाम को मानते हुये कोई लक्षण उनमें नजर नहीं आते।

यह बंदा तो फकीर लग रहा था। बूढ़ा। दाढ़ी-मूछ और भौहें भी सफेद। तहमद पहने और सिर पर जालीदार टोपी वाला। बताया कि वह अंधा है। फिर भी मुझे लगा कि उसे आंख से थोड़ा बहुत दीखता होगा। उसके हाव भाव पूरे अंधे की तरह के नहीं थे। उसके हाथ में एक अजीब सी मुड़ी बांस की लाठी थी। कांधे पर भिक्षा रखने के लिये झोला। उसने बताया कि वह माधोसिन्ह का रहने वाला है। उसकी पत्नी भी साथ है। शायद रेलवे स्टेशन के आसपास कहीं बैठी हो। वह भोजन के जुगाड़ में निकला है। मैंने उसे दस रुपये दिये। पास में मुझसे बात करने रुके रवींद्रनाथ जी ने भी दस रुपये दिये। बीस रुपये में उनके भोजन का तो नहीं, नाश्ते का इंतजाम हो ही सकता था।
उसने अपना नाम बताया – इस्लाम। इस्लाम को बीस रुपये की भिक्षा मिल गयी और हमें यह संतोष कि बिना जाति-धर्म का भेद किये हमने दान दिया।
शिवशंकर दुबे

टिल्लू की दुकान के सामने मजमा लगा रखा था शिवशंकर दुबे ने। वे उमरहाँ के हैं। बातूनी। गंगा स्नान करने जाते हैं। रोज नहीं; कभी कभी नागा हो जाता है। मुझे देख अनवरत बोलने लगे। उनके गले से उलटे जनेऊ की तरह एक छोटी सी पीतल की शीशी लटकी थी। बताया कि उनके पिताजी की देन है। वे चार धाम की यात्रा करते समय इसे साथ ले गये थे और इसी में गंगोत्री का जल लाये थे। पिता की चिन्हारी के रूप में बंटवारे में यह उन्होने चुनी।
साथ में गंगा स्नान को विभूति नारायण उपाध्याय जा रहे थे। उन्होने मुझे बताया कि शिवशंकर नास्तिक है। घोर। नास्तिक पर गंगा स्नान को जाते हैं? अजीब लगा। मैं शिवशंकार से पूछ्ना चाहता था, पर शिवशंकर तो सिंगल ट्रैक आदमी हैं। वे अपनी ही कहते रहे। उनसे जान छुड़ाना कठिन हो गया! 😆

धर्मेंद्र सिंह
बुलंदशहर के धर्मेंद्र सिंह कल औराई में एक कदम्ब के पेड़ के नीचे, अपना मोमजामा बिछाये बैठे दिखे। एक डोलू से निकाल कर दूध पी रहे थे। तीन चार दिन में वे दण्डवत यात्रा करते हुये 10 किमी की दूरी तय कार सके हैं। वे चंदौली से बुलंदशहर की दण्डवत पदयात्रा कर रहे हैं। मेरे द्वारा लिखी गयी पोस्ट के कारण वे प्रसन्न थे। उन्होने बताया कि वह उन्होने अपने फेसबुक पर शेयर भी कर दी है।

कम चल पाने के बारे में उनका कहना था कि बारिश हो गयी। कल वे बारिश में भीग भी गये। आज रात में दस इग्यारह बजे आगे निकलने का विचार है – “सारी रात दण्डवत चलूंगा आज रात।”
धर्मेंद्र की टोन पश्चिमी उत्तर प्रदेश वाली है। पर वे उतने ही आत्मीय लगे, जितने यहां के लोग! पता नहीं आगे कभी उनसे सम्पर्क होगा या नहीं। वैसे जुनूनी व्यक्ति मुझे बहुत अच्छे लगते हैं।
पांडे जी आपने सही गुंनताड़ा लगाया/दुनिया भर के जीतने भी पुरस्कार है ये सब एक सधे हुए गिरोह की तरह काम कर रहे है/ये सब अपने गिरोह मे शामिल लोगों को ही प्रमोट करते है और किसी दूसरे को घुसने नहीं देते/ बहुत पालिटिक्स है इसमे/बकवास कथानक को ये दुनिया का बेहतरीन साहित्य बताकर पुरसकृट करते है और फिर दुदुंभी पीटते है ताकि लोग खरीदे और आपस मे आमदनी बाँट ले/ सब पैसे का खेल है/इनको साहित्य या भाषा से कोई मतलब नहीं ,इनकी जेबे भरनी चाहिए/यह सब एक अन्तराष्ट्रीय गिरोह की तरह काम करते है/
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आप का कहा सही लग रहा है. बहुत से लोग इस विचार से यकीन रखते हैं…
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दिनेश कुमार शुक्ल फेसबुक पेज पर –
पुरस्कारों का एक गैंग होता है। बोसोन वाले एस एन बोस को नहीं दिया गया लेकिन अमर्तिया सैन को मिल गया जिसकी लिबरल सर्किट में पहुंच थी और जो मूलत: भारतीय संस्कृति विरोधी अंतरराष्ट्रीय कैबाल का कृपापात्र रहा तो वह तो शासक वर्गका है ही। लेकिन बोसोन जो कि ब्रह्माण्ड का आदिकण है के अन्वेषक को घोर उपेक्षा मिली। रही बात मैगसेसे और बुकर आदि की तो यह अधिकांश उन्हे ही मिलता है जो भारतीयता को अपमानित करते हों।
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“रेत समाधि तो पल्ले पड़ी नहीं।”
सर, हमने तो लगभग १५ साल से ये बुकर या नोबेल वाली किताबें पढ़ना ही छोड़ दिया है। कुछ पल्ले पड़ती ही नहीं, और जो पैसा बर्बाद हो वो अलग। लगता है हम जैसे अति साधारण आम पब्लिक के लिए, जिन्हें मनमोहन देसाई टाईप फिल्में पसंद आती हों, उनके लिए ऐसी किताबें समझना दुरूह है।
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आपने पहले बताया होता तो न पैसे बर्बाद होते और न समय! 😆
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