बड़ी नाव किनारे लगी थी। बालू ढोने वाली नहीं थी। उसका दो तिहाई रिहायशी था – तिरपाल से ढंका हुआ। उसके बगल में एक छोटी डोंगी भी थी। दोनो नावें मछली मारने के लिये निकली थीं।
गंगा में पानी कम हुआ है। सावन के मौसम में नदी पेटा में जाने लगे; ये संकेत अच्छे नहीं हैं। इस साल बारिश का हाल अच्छा नहीं। आगे एक पखवाड़ा अगर बरसात नहीं हुई तो संकट आ सकता है।
उतार पर गंगा तट पर जाना असुविधाजनक था। पानी कम होने के साथ तट पर कीचड़ फैल गया था। मैंने थोड़ा दूर रह कर ही चित्र लिये।

नाव पर खड़े आदमी ने बताया कि वे चुनार से आये हैं। कुल तेरह लोग हैं। मछलियाँ पकड़ रहे हैं। नाव में ही रुकते हैं। रक्षाबंधन के समय वापस लौटेंगे अपने गांव।
मैंने देखा – नाव पर थर्मोकोल के आइस बॉक्स लदे थे। मछलियों को प्रिजर्व करने का तरीका होगा। तिरपाल के नीचे सब्जियां काट रहा था एक आदमी। भोजन बनाने की तैयारी चल रही थी। एक और आदमी नाव पर लेटा था। तेरह लोग और दो नावें थीं तो एक साथ कई तरह की गतिविधियां हो रही थीं।

दो आदमी नाव से पानी बाहर उलीच रहे थे। उलीचने के लिये तिकोना सूप नुमा बर्तन था उनके पास। टीन के कनस्तर को काट कर बनाया गया। उलीचने वाले ने एक हाथ से उस तिकोने सूप का एक सिरा – जो लकड़ी की टहनियों से बना था, को पकड़ा था और त्रिभुज की सामने की भुजा साधी थी दो रस्सियों से। दोनो हाथ का प्रयोग कर पानी नाव से बाहर फैंक रहे थे वे।
मैंने उस उपकरण का नाम पूछा – उन्होने बताया कि टल्ला कहते हैं। बकौल उनके; शुद्ध देसी जुगाड़ है। मार्केट में नहीं मिलता। बनाते/बनवाते हैं वे।
किनारे की कीचड़ और बहती हवा के कारण ज्यादा पास जा कर बातचीत करना असुविधाजनक था। एक पटरे से वे लोग पार्क की हुई नाव से जमीन पर आ जा रहे थे, पर उन्हें भी नाव से उतर कर कीचड़ में तो चलना होता ही था। मैं उनसे ज्यादा बतियाना चाहता था पर वह हो नहीं पाया।
हवा भी थी, धूप भी और उमस भी। मेरे हाथ में एक गमछा था अपना पसीना पोंछने के लिये। टल्ला का ज्यादा पास जा कर चित्र लेने के फेर में वह गमछा कीचड़ के ऊपर गिर गया। कठिनाई से उसे कीचड़ में बिना धंसे, उठाया। कीचड़ की फिसलन में वहां रुकना ठीक नहीं लगा। यद्यपि नाव के लंगर डाल रखे थे उन लोगों ने पर यह पक्का नहीं कि शाम को या कल वे यहीं मिलेंगे।

मैं वापस चला आया। एक बार फिर जाऊंगा। शायद उनसे मुलाकात हो और कुछ और बातचीत कर पाऊं। अभी तक लोकल मछेरे ही देखे थे। गंगा में ये एक दर्जन की टीम में घुमंतू मछेरे सामान्यत: दिखते नहीं।
एक नया जुगाड़-उपकरण पता चला। टल्ला!

बरसात बीतने दीजिए पांडे जी,आपके यहा हफ्ता दस दिन आकर आपके साथ उन सभी स्थानों पर घूमूँगा जहा जहा का चित्रण आप पिछले पाँच सालों मे कर चुके है/रहने खाने की व्यवस्था आपके ऊपर डाल रहा हू/ दो मस्तकलंदर और घुमंतू मिलेंगे तो बात ही कुछ और होगी/आप तैयार है क्या? कभी कांनपुर शहर आना हो तो जरूर मिलिएगा/मेरा निवास और कार्यआफिस दोनों एक ही स्थान पर है और कानपुर रेलवे स्टेशन से सिटी साईड मे मात्र 250 मीटर की दूरी पर है/
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आपका स्वागत है बाजपेयी जी 🙏🏼
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प्रभु, हम पर कृपा करना, दया करना,हमारी भी यही योजना है, पर only रेजिडेंशियल सुविधा , भोजन का जुगाड़ लोकल कर लेंगे,
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😊
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