सवेरे तीन बजे नींद खुल गयी। नींद जल्दी खुलने का कोई न कोई निमित्त होता है। आज वह “मॉर्निग पोजीशन” था।
रेलवे की जिंदगी जो नहीं जानते उनके लिये मॉर्निंग पोजीशन अजीब शब्द हो सकते हैं, पर रेलवे अफसर के लिये वे दैनिक धर्मग्रंथ सरीखे हैं। पच्चीस तीस पन्नों की गठ्ठी समय अपने हाथ में लिये या कांख में दबाये चलने की कल्पना अब भी करता हूं। तीन दशक से ज्यादा समय उनके साथ गुजरा है। रेलवे अफसर ही नहीं, उनके परिवार के लोग भी उस पोजीशन को देखने समझने लग जाते हैं!
जब मैंने रेलवे की नौकरी ज्वाइन की थी तो पहली पोस्टिंग रतलाम में सहायक परिचालन सुपरिण्टेण्डेण्ट (बाद में उसे सहायक परिचालन प्रबंधक कहा जाने लगा) के रूप में हुई थी। उस समय परिचालन विभाग में पोस्टिंग मिलना और वह भी रतलाम जैसी “कठिन” डिवीजन पर – यह चुनौती भरा असाइनमेण्ट था। मेरे पास चार बड़े अखबार के जैसे और लगभग 10-15 ए4 साइज के पन्ने सवेरे कण्ट्रोल का चपरासी दे कर जाने लगा। उन पोजीशन के पेजों का खाका (प्रोफार्मा) या तो मुद्रित होता था या साइक्लोस्टाइल्ड। पर उसमें आंकड़े हाथ से भरे होते थे। आंकड़ों के अलावा मुख्य अनहोनी घटनाओं का विवरण – जिसे अनयूजुअल शीट कहा जाता था, वह रेलवे की कूट भाषा में छोटे छोटे वाक्यों में लिखी होती थी।
मॉर्निग पोजीशन ने रेल परिचालन की जिंदगी व्यवस्थित की थी। उसने आंकड़ों के पिजन-होल्स बनाये थे मस्तिष्क में – जो रोज अपडेट किये जाने की मांग करते थे। अब जिंदगी अलग प्रकार से चल रही है। पर मेण्टल पिजन होल्स बनाने की और उन्हे अपडेट कर जिंदगी बेहतर करनी की जरूरत मुझे महसूस हुई सवेरे उठते समय।
सबसे जूनियर अधिकारी होने के कारण मुझे कार्बन लगा कर बनाई गयी अंतिम प्रति मिलती थी मॉर्निंग पोजीशन की और उस धुंधली पोजीशन को समझना बहुत बड़ा सिरदर्द होता था। मेरा बहुत सा समय न समझ में आये धुंधले आंकड़े या अक्षर पुन: लिखने मेंं बरबाद हुआ करता था।
रेलवे की दैनिक पोजीशन के अनुसार दिनचर्या कैसे चलती थी, कैसे तनाव भरे दिन गुजरते थे और आंकड़े पढ़ने, समझने तथा त्वरित निर्णय लेने की वृत्ति कैसे विकसित हुई, वह अलग कथा है। उसने मेरे जीवन को बहुत गढ़ा-बदला है। पर यहां बात उन मॉर्निग पोजीशन की शीटों भर की कर रहा हूं।

वह पोजीशन रात्रि शिफ्ट में आये कण्ट्रोलरों/ट्रेन क्लर्कों की टीम बनाती थी। मशीन की तरह वे काम करते थे। अलग अलग जगहों से आंकड़े जुटाना, अलग अलग चौपड़ियोंं(रजिस्टरों) से आंकड़े उठाना, लिखना और उनका जोड़ आदि लगा कर अंतिम आकार देना बहुत ही मशीनी काम होता था; जो वे दक्षता से करते थे। सवेरे पांच साढ़े पांच बजे तक उन्हें वह पोजीशन तैयार करनी होती थी। उसके बाद कण्ट्रोल का चपरासी हम अधिकारियों के घर पर मॉर्निग पोजीशन का बंडल पंहुचाता था। बहुत कुछ अखबार वाले की तरह।
नाइट शिफ्ट में वे कैसे काम करते थे और किस तरह अपनी नींद पर जीत कर वह पोजीशन बनाते थे, उसे देखने के लिये मैंने एक रात उनके साथ गुजारी थी और कण्ट्रोल सेण्टर की वह रात आज भी मुझे स्मरण है। उस रात ने मुझे कण्ट्रोल परिवार का अंतरंग सदस्य बना दिया। वे लोग मेरे आधीन कर्मचारी नहीं वरन सुख दुख के साथी बन गये!
रेल के अधिकारी रेलवे कॉलोनी में रहते थे। सभी दो तीन किलोमीटर के अंदर। सो चपरासी को बहुत दिक्कत नहीं होती थी। कभी कभी ही कोई नया या लापरवाह या रात में लिये अल्कोहल के प्रभाव में कोई चपरासी देरी या घालमेल करता था। पर अधिकांशत: पोजीशन बनाने-बांटने का सिस्टम सुचारू काम करता था। एक ऑर्केस्ट्रा की तरह।
कालांतर में मॉर्निग पोजीशन का आकार और प्रकार बदला। किर्र किर्र आवाज करते डॉटमेट्रिक्स लाइन प्रिन्टर का युग जल्दी ही खत्म हो गया। इंक-जेट और लेसर प्रिण्टर से पोजीशन का स्वरूप बेहतर हुआ। हाथ से भरे शब्द और आंकड़े कम होते गये। पर पोजीशन का कण्ट्रोल सेण्टर में बनना और ‘छपना’ बदस्तूर होता रहा।
जब मैने अपने रेलवे के जूते फाइनल तौर पर टांगे, तब तक मैं मॉर्निग पोजीशन के साथ जिया।

सन 2008-09 में इलाहाबाद में जब मुझे उत्तर मध्य रेलवे के माल यातायात का मुख्य प्रबंधक बनाया गया, तब मैं रेलवे कॉलोनी की बजाय अपने पिताजी के घर में रहने लगा था। वह घर दफ्तर से बीस किमी दूर, शहर के दूसरे छोर पर था। समस्या यह खड़ी हुई कि मेरी मॉर्निग पोजीशान मेरे पास कैसे पंहुचे? समाधान के रूप मुझे मेरे घर पर एक अलग फोन चैनल, एक लेसर प्रिण्टर और ए4 साइज के कागजों के बण्डल सप्लाई किये गये। कण्ट्रोल के कर्मी मुझे तीस पैंतीस पेज की भारी भरकम पोजीशन फैक्स या ई-मेल करते थे। मैं उसे तुरंत डाउनलोड पर प्रिण्ट और स्टेपल कर अपनी सवेरे की ‘रामायण’ प्रारम्भ करता था। अपने घर में मैं चपरासी, क्लर्क, अटेण्डेण्ट और अफसर – सब था। कभी कभी जब बीएसएनएल की लाइन खराब होती थी तो फैक्स/डाउनलोड/प्रिण्ट होने में एक घण्टे से ज्यादा लग जाता था।
उत्तर मध्य रेलवे के महाप्रबंधक महोदय – जो मेरे शुरुआती दिनों से मेरे मेण्टोर थे, ने मेरी घिसाई से तरस खा कर मुझे एक और बेंग्लो-पीयून देने का प्रस्ताव रखा, पर मैंने उसे स्वीकार नहीं किया। घर वालों के बीच एक और रेल कर्मी घूमे, यह मुझे अपनी प्राइवेसी में अतिक्रमण सा लगा। अफसरी की टीम-टाम पसंद करने वाले मेरे बंधु इस व्यवहार को अजीब मानते होंगे; पर यह मेरे पर्सोना का अंग सदैव रहा है। दफ्तर में भी बहुत से अधिकारियों के साथ फाइलेंं और ब्रीफकेस थामे चपरासी चलते थे, पर मैं अपनी फाइल-ब्रीफकेस खुद उठाने में यकीन करता था। वह तब जब मैं विभागाध्यक्ष बन गया था!
आज सवेरे तीन बजे नींद खुली तो मन में विचार था कि जैसे दिनचर्या रेलवे परिचालन की मॉर्निग पोजीशन के इर्दगिर्द घूमती थी, वैसे ही अब रिटायर्ड जिंदगी को व्यवस्थित करने के लिये मुझे दैनिक या साप्ताहिक पोजीशन बनानी चाहिये। उसमें पांच सात म्यूचुअल फण्ड या स्टॉक्स की पोजीशन हो, दिन भर में पढ़े गये पन्नो का हिसाब हो, लोगों को फोन पर कॉण्टेक्ट करने का लेखा हो, नित्य कितनी साइकिल चलाई और कितना व्यायाम किया वह भी हो। करीब 25-50 आंकड़े युक्त एक पेज की शीट। उस शीट को बनाना और उसमें आंकड़े भरना एक तरीका होगा जिंदगी व्यवस्थित करने का।
मॉर्निग पोजीशन ने रेल परिचालन की जिंदगी व्यवस्थित की थी। उसने आंकड़ों के पिजन-होल्स बनाये थे मस्तिष्क में – जो रोज अपडेट किये जाने की मांग करते थे। अब जिंदगी अलग प्रकार से चल रही है। पर मेण्टल पिजन होल्स बनाने की और उन्हे अपडेट कर जिंदगी बेहतर करनी की जरूरत मुझे महसूस हुई सवेरे उठते समय।
पता नहीं उस तरीके के काम करूंगा या नहीं, पर आज मन बन रहा है कि एक नया रजिस्टर खोला जाये और उसमें नित्य मॉनीटर किये जाने वाले आंकड़ों का एक प्रोफार्मा बनाया जाये। रोज रात में डायरी लिखने के अलावा होगा यह काम – मॉर्निग पोजीशन के जरीये दिनचर्या को व्यवस्थित करने का काम! :-D

बढ़िया यादगार। लिखते रहें।
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श्रीमान परिचालन अधिकारियों के निर्णय के अच्छे या खराब होने का यह विषय नही है।
यह तो कम्प्यूटराईजेशन के डिजिटल युग में जानकारियों को कागज पर ही मेंटल कंडीशनिंग की जड़ता में रमे रहने की बात है और डिजिटल व्यवस्था को अपनाने में झिझक की बात है।
कोटा में जब कंट्रोल में आटोमेटिक ट्रेन आपरेशन मंडल रेल प्रबंधक जी के आदेश से वरिष्ठ मंडल परिचालन प्रबंधक जी के अनिच्छुक आदेश से मुझे लागू करना पड़ रहा था, तो सभी परिचालन अधिकारी तथा गाड़ी नियंत्रक बहुत ही नाखुश रह रहे थे, इसी कागजी मेंटल कंडीशनिंग की जड़ता से, उप गाड़ी नियंत्रक तो अपनी पोजीशन की वर्कशीट का बड़ा सा रजिस्टर छोड़ने को तैयार ही नही थे, पर बाद में वो इसे छोड़ कर बहुत ही तनाव मुक्त होकर काम करने लगे। मनुष्य का स्वाभाव यथास्थिति का ही होता है विशेषकर भारत में, परंतु जब विकल्प शेष नही होता है तो वो एडाप्ट कर ही लेता है सामांजस्य बैठा ही लेता है। अब कागजी करेंसी रूपए को ही देखिए अब डिजिटल करेंसी का लेन देन अधिकायक होने ही लगा है।
इससे मुझे एक और बात स्मरण हो आई कि 1988 में जब भारत के सरकारी कार्यालयों में कम्प्यूटर का प्रवेश अभी होना ही था, मैंने मजदूर संघ के कोटा कार्यालय में कम्प्यूटर से यूनियन का कार्य शुरू कर दिया था।
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आप तो फारवर्ड सोच वाले हैं अन्यथा अधिकांश यूनियन कर्मी सशंकित थे कि कम्प्यूटर या इलेक्ट्रानिक टाइप राइटर से उनकी नौकरियां चली जाएंगी. लंबे समय तक कंप्यूटर ढंके पड़े रहे थे. पर बाद में काम ना हो पाने का ठीकरा कंप्यूटर खराब होने और वायरस आ जाने पर फूटने लगा. 😊
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हमारे कम्प्यूटर से पीएनएम मीटिंग के लिए एजेंडा, चर्चा के लिए अधिकारी विशेष के आइटम की लिस्ट आदि कार्य एक क्लिक पर ही निकल जाते थे। पेंडिंग आइटम की लिस्ट मंडल कार्मिक अधिकारी को भेज देते थे, इसकी चर्चा हेडक्वार्टर तक हुई तो तब महाप्रबंधक बालाकृष्णन जी हमारे कोटा कार्यालय में विशेष रूप से आए थे इसका अवलोकन करने के लिए।
वो भी क्या दिन थे।
आपके कोटा के समय हमारे यूनियन से रिटायर्ड इश्यू विवाद पर संघर्ष के दिन थे ऐसे में आपका सपोर्ट बहुत ही राहत का था मेरे लिए।
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जय हो 🙏🏼
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जीवन में मार्निंग पोजीशन और रात्रि की डायरी का क्रम बना रहे।
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हाहाहा! आपके लिए भी! 😊
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आपके इस रेल जीवन के यथार्थ संस्मरण से मेरी स्मृति पटल पर आपके अधीन मुख्य नियंत्रक आंकड़ा के बतौर निरर्थक समय व्यतीत करने की याद ताजा हो गई।
इसी के साथ ही बाद में बतौर मुख्य गाड़ी नियंत्रक परिचालन की मार्निंग पोजीशन के प्रोफार्मा तथा इनमें सभी आंकड़ों को डाटालागर की तकनीक से आटोमेटिक कम्प्यूटराईज्ड कंट्रोल ट्रेन आपरेशन के द्वारा पेपरलेस करने की आंकड़ों को कम्प्यूटर में ही फीड करने की विधा विकसित करने की भी याद ताजा हो गई जिससे मार्निंग पोजीशन की कागजी गठ्ठी की आवश्यकता ही नही रह गई, हालांकि मुख्यालय से लेकर मंडल परिचालन अधिकारियों की मांग के अनुसार इसका प्रिंट आउट भी निकाला जाता रहा। परिचालन अधिकारियों को यह व्यवस्था डाटालागर सिग्नल विभाग के अधीन होने के कारण एवं कागजी पोजीशन हाथ में होने की कंडीशनिंग के कारण से भी यह आटोमेटिक ट्रेन कंट्रोल चार्टिंग की व्यवस्था बंद कर दी गई।
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आपका कहना सही है कि ऑपरेटिंग अफसरों की जड़ता के कारण कागज पर छापी पोजीशन चलती चली आई.
पर वही तर्क अन्य विषयों के लिए भी है. मसलन हम रुपये पैसे का निवेश किसी स्प्रेड शीट के विश्लेषण से नहीं करते – वह साधारण कागज पर लिखे तथ्यों के माध्यम से या फोन पर मिली सलाह से होता है.
रेल परिचालन के निर्णय भी उसी प्रकार होते हैं और आप यह नहीं कह सकते कि वे किसी प्रकार खराब निर्णय होते हैं. 😊
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