यह एक संयोग ही था कि मैं वैकल्पिक चिकित्सा के उपाय तलाशते हुये वहां पंहुच गया।
सर्दी के मौसम में मुझे सप्ताह भर पहले हल्का कफ हुआ और वह तरह तरह की देसी-विलायती दवाओं के कब्जे से बचता हुआ ज्यादा ही कष्ट देने लगा था। पिछले छ साल में ऐसा जबरदस्त कफ नहीं हुआ था जिसमें शरीर जकड़ा हुआ लगे। पता नहीं, कोरोना की व्याधि, जो उस काल में टीके, काढ़े और पुन: टीके के बूस्टर डोज से दबी कुचली थी, अब समय पा कर त्रास देने लगी हो और इस तरह की सर्दी जुकाम की बढ़ती संख्या उसी का परिणाम हो। आजकल दीख भी रहा है कि लोग सर्दी-जुकाम-बुखार से ज्यादा ही पीड़ित हो रहे हैं।
मेरे एक मित्र ने बताया कि पास के महराजगंज कस्बे में राजकीय आयुर्वेदिक चिकित्सालय है। वहां अधिकृत डाक्टर/वैद्य की व्यवस्था है। जरूरी कुछ दवायें भी वहां (बिना शुल्क) मिल जाती हैं। मैं ढूंढते-पूछते वहां पंहुच गया। एक बड़े ताल के किनारे अच्छा बड़ा परिसर था अस्पताल का। चार पांच कमरे थे। डाक्टर साहब का कक्ष ठीकठाक था। एक कक्ष में दवायें थीं, दूसरे में चिकित्सा के उपकरण और एक अन्य वार्ड था मरीजों के भर्ती करने के लिये। कुल मिला कर हार्डवेयर व्यवस्था एक अस्पताल की थी, मात्र डिस्पेंसरी की नहीं। पर अस्पताल में एक चिकित्सक, एक फार्मासिस्ट और दो अन्य कर्मचारियों की टीम मात्र थी। वे भी महराजगंज के स्थानीय नहीं हैं। अप-डाउन करते हैं। उतने से तो केवल ओपीडी मरीज ही देखे सकते हैं।
पर यह व्यवस्था भी मेरी अपेक्षा से बेहतर थी। एक कस्बे में यह भी होना सुखद है।

यह जरूर खटका कि डाक्टर साहब (डा. जीतेंद्र कुमार सिंह जी) वहां मौजूद नहीं थे। आला लगाये फार्मासिस्ट श्री शिवपूजन त्रिपाठी जी परिसर में खुले में धूप सेंकते मेज लगा कर बैठे थे। उन्होने मेरी समस्या सुनी और बताया कि दवा मिल जायेगी। एक रजिस्टर में मेरा पंजीकरण किया। फोन नम्बर और पता लिखा। समस्या और निदान दर्ज किया। फिर मुझे दवाओं का प्रेस्क्रिप्शन और दवायें दीं। एलोपैथी की चिकित्सा पद्यति में शायद प्रेस्क्रिप्शन लिखने को अधिकृत न होते हों, पर यहां आयुर्वेदिक चिकित्सा में था। मुझे भी कोई उहापोह नहीं था उनसे दवाई लेने में। हम आयुर्वेदिक दवायें सामान्यत: सेल्फ-मेडीकेशन के रूप में लिया करते हैं भारतीय घरों में। यह स्थिति तो उससे कहीं बेहतर थी। एक जानकार पैरामेडिक दवा दे रहे थे।
त्रिपाठी जी ने मुझे आयुष का एक वेलनेस किट ही दे दिया। बताया कि ये किट कोरोना काल में सप्लाई किये गये थे। इनमें कफ-फ्लू की सभी औषधियां हैं। वे इलाज भी करती हैं और इम्यूनिटी बूस्टर भी हैं। उनमें क्वाथ/काढ़ा, संशमनी वटी, आयुष-64 टैबलेट, च्यवनप्राश, अणु तेल आदि है। सौ ग्राम च्यवनप्राश के साथ दवायें इतनी थीं उस किट में कि एक व्यक्ति का इलाज तो मजे से हो जाये। यह किट भारत सरकार की संस्था आईएमपीसीएल का बना हुआ है।

मैं तो मात्र दवा का प्रेस्क्रिप्शन लेने गया था वहां पर मुझे दवाओं का पूरा किट, वह भी मानक तौर पर बना हुआ और मुफ्त दिया त्रिपाठी जी ने। त्रिपाठी जी के साथ मेरा एक चित्र भी खींचा हिमांशु गिरि – वार्डकर्मी – ने। उसके उपरांत मेरे अनुरोध पर पूरे चिकित्सालय का भ्रमण भी कराया हिमांशु जी ने। शायद वे मुझे ‘विशिष्ट’ मरीज का दर्जा दे रहे थे। अस्पताल की साफ सफाई की व्यवस्था से मैं प्रभावित हुआ!
महराजगंज का यह आयुर्वेदिक अस्पताल देखते समय मेरे दिमाग में ताराशंकर बंद्योपाध्याय का उपन्यास ‘आरोग्य निकेतन’ कौंध रहा था। उसमें उपन्यास के मुख्य पात्र – ग्रामीण पृष्ठभूमि के नाड़ी वैद्य जी, उभर रहे एलोपैथिक चिकित्सा के घटकों/पात्रों से, अपनी गुणवत्ता के बावजूद भी हाशिये में जाते प्रतीत हो रहे थे। आज की भाजपा सरकार उस सौ साल के हाशिये के संकरेपन को कम करने का प्रयास कर रही है। इस अस्पताल की सुविधाओं को देख कर लगता तो है कि प्रयास पूरे मन से किया गया है। पर यह भी है कि प्रयास सरकारी भर है। जो सुविधायें विकसित की गयी हैं, उनका पूरा दोहन नहीं हो रहा।
अब भी इस पद्यति की बजाय पूरे परिवेश में झोलाछाप डाक्टरों की भरमार है। आम जनता को पुन: उस दृढ़ता से आयुर्वेद के प्रति भरोसे की सीमा में नहीं लाया जा सका है। शायद युग भी इंस्टेंट निदान का है। लोग भी पुख्ता निदान की बजाय पैरासेटामॉल और ब्रूफेन के आदी हो गये हैं। उन्हें लगता है कि इलाज का अर्थ सुई लगा कर इण्ट्रावेनस तरीके से शरीर को ‘ताकत’ देना ही है! लोग गांवदेहात में सोखा-ओझा, झाड़ फूंक और झोलाछाप डाक्टरी के बीच झूलते हैं। 😦


(बांये – आयुष किट देते शिवपूजन त्रिपाठी जी। दांये – हिमांशु गिरि)
खैर, मुझे त्रिपाठी जी के आयुष किट से लाभ हुआ है। पर्याप्त लाभ। मैं किट की सभी दवायें नियम से ले रहा हूं। क्वाथ दिन में तीन बार पी रहा हूं। थूक में गाढ़ा बलगम-कफ काफी कम हुआ है और खांसी भी कम है। इस पूरे किट का सेवन तो कर ही जाऊंगा। इस बार तो उस अस्पताल तक मेरा वाहन चालक मुझे ले कर गया था। एक बार और साइकिल भ्रमण करते हुये वहां जा कर उन लोगों से मिलना है। तब शायद डाक्टर साहब से भी मुलाकात हो जाये; इस बार तो वे किसी सर्जरी करने के लिये किसी अन्य सेण्टर पर गये हुये थे।
यह प्रकरण मुझे अगर आयुर्वेद-भक्त बना दे तो मेरी पर्सनालिटी में एक और आयाम जुड़ जाये।

आदरणीय ज्ञान दत्त जी, प्रणाम
आपका कल का ब्लाग पढ़ते हुए मुझे बड़ा आनंद आया। बड़ी सहजता से आपने साँझ की धूप और सरकती हुई शाम के नज़ारे की व्याख्या की है। अचानक मुझे भाभी जी की टीप जो बतौर शाबाशी उन्होंने आपके लिए की थी कि सकारात्मक लिखने का क्रम जारी रखना चाहिए। मैं आज का और कल के दोनों ब्लॉग्स को उसी अनुक्रम में देख रहा हूँ।
आयुर्वेदिक चिकित्सा वास्तव में एक संपूर्ण चिकित्सा पद्धति है पर हमारी सोच और जल्दी ठीक होने की आतुरता ने इसे हाशिये पर सरका दिया है। जहाँ तक मुझे याद पड़ता है हमारे परिवार में बाबूजी हमें होमियोपैथिक गोलियाँ दिया करते थे। शुस्लर की १२ बॉयकोमिक दवाइयाँ हमेशा तैयार होती थीं। सर्दी, जुकाम नजला में तो यही बहुत काम कर जाती थीं और कुछ ज़्यादा हुआ तो होम्योपैथी दवाइयाँ दी जाती थीं। हम सारे भाई बहन इन्हीं से ठीक रहते थे। मैंने अपने बच्चों को भी यही दवायें दीं और आज वे अपने बच्चों को भी यही दवायें देकर ठीक कर रहे हैं। ऑफ लेट मेरी आयुर्वेद में रुचि बढ़ी तो नये नये प्रयोग शुरू हो गये। पर आपकी सोच बड़ी सार्थक है कि परिवार में आयुर्वेदिक चिकित्सा को उचित स्थान मिलना चाहिए।ऐलोपैथिक दवाओं के होने वाले साइड इफ़ेक्ट बड़े कष्टदायी होते हैं और वो पता तब लगते हैं जब उम्र ढलान पर आने लगती है। आपकी लेखनी से बड़े सहज और उपयोगी लेख निकलते रहें यही आशा है। आपके प्रयास के लिए अनेक साधुवाद।
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अपने मेरे लेखन को सार्थक और उपयोगी कहा, उसके लिए बहुत धन्यवाद पीयूष जी 🙏🏼
आपकी भाभी जी को भी सादर नमस्कार!
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आप जिस प्रकार किसी विषय पर वृहद विश्लेषण करते हैं, आपको तो बहुत पहले आयुर्वेद का रुख कर लेना चाहिए था। Corona कॉल से पहले ही भारत सरकार आयुष मंत्रालय में बहुत काम बिना शोर शराबे के कर रही है। पहले जहां आयुर्वेदिक चिकित्सक और दवाएं पूरी तरह नदारद थे वहीं अब फुल कैपेसिटी के अस्पताल तैयार हो रहे हैं, आम लोगों की मानसिकता में बदलाव होने में अभी समय लगेगा।
आपको नियमित रूप से वहां जाना चाहिए, रिटायर्ड सरकारी कर्मचारियों के लिए तो बहुत सुविधाएं हैं। खासतौर पर आपकी आयु वर्ग के लोगों को जिन बुस्टर्स की जरूरत होती हैं, वे आयुर्वेद और होम्योपैथी के पास ही है।
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यही समझ नहीं आता कि भारत में आयुर्वेद के प्रति उर्वरा भूमि होनी चाहिए. लोग अपनी विरासत और परम्परा की बात खूब करते हैं पर कल्ट अंग्रेजीदां होने की ही है. 😔
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बहुत अच्छा |
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Thanks! 😊
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