पारसिंग की याद

जब से सर्दियाँ शुरू हुईं, तब से मैं वह जैकेट लटकाये था। पहनने में बहुत गर्म था और आनंददायक। लटकाये लटकाये वह मरे मूस सा गंधाने लगा होगा। अब सर्दी कुछ कम हुई तो उसे धोने के लिये निकाला। उसके लिये मार्केट से ‘ईजी’ की शीशी खरीदी गयी, जिससे गर्म कपड़े धोये जाते हैं। फिर जैकेट की सभी जेबें तलाशी गयीं। उनमें हरे रंग का मास्क, जप की पुरानी माला, एक कंचा, छोटे साइज का पेन जैसी चीजें मिलीं।

अब वह जैकेट धुल रहा है हाथ से रगड़ रगड़ कर।

कपड़ों को लम्बे अर्से बाद धोने के लिये निकालते समय जेबें चेक करने का अनुष्ठान पारसिंग की याद दिला देता है। तीन दशक पहले वह रेलवे स्टेशन पर एवजी कर्मचारी था। जहां जरूरत हो, वहां लगा दिया जाता था। कभी घर में कोई नौकर न हो तो स्टेशन से मांग की जाती थी और जवाब मिलता था – मैडम, कोई है नहींं, सिर्फ पारसिंग है। उसे भेज दें?

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घर के काम के लिये पारसिंग के बहुत फायदे थे। सफाई, बर्तन धो-पोंछ कर लगाना – सब वह चकाचक करता था। बहुत मेहनत और नफासत से। पर उसे घर के बर्तन मांजने या कपड़े धोने के पहले गिन कर देने होते थे। “पारसिंग, ये दस चम्मच हैं, दो कड़छियां हैं, तीन डस्टिंग के कपड़े हैं…” अगर आपने हिसाब नहीं रखा तो कुछ छोटे बर्तन गायब होना शर्तिया था!

ऐसा नहीं कि पारसिंग चोर था। उसे दारू पीने की जबरदस्त आदत थी। ये छोटी चीजें, सिक्के आदि वह ले कर शाम को मार्केट में औने पौने भाव पर बेचता था और उनसे जितनी भी दारू मिलती, पी जाता था।

और कपड़ों की जेब में कोई चीज या सिक्के रह जायें तो वे वापस कभी नहीं मिलते थे। वे पारसिंग गायब कर देता था।

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ऐसा नहीं कि पारसिंग चोर था। उसे दारू पीने की जबरदस्त आदत थी। ये छोटी चीजें, सिक्के आदि वह ले कर शाम को मार्केट में औने पौने भाव पर बेचता था और उनसे जितनी भी दारू मिलती, पी जाता था। एवजी कर्मचारी को भी रेलवे तनख्वाह ठीकठाक देती थी। पर उस समय तनख्वाह कैश में मिला करती थी। तनख्वाह वाले दिन पारसिंग कैशियर साहब के सामने लाइन में लगा रहता था और दूर उसकी पत्नी और लड़की झाड़ू ले कर खड़ी रहती थीं। पारसिंग तनख्वाह मिलने पर पैसे लिये भागता था और उसके पीछे पत्नी-बिटिया झाड़ू ले कर। पारसिंग से पैसे छीनने के लिये कभी कभी पत्नी-बिटिया को झाड़ू से उसकी ‘आरती’ भी करनी पड़ती थी। जितना पैसा वे छीन पायें, वही मिलता था घर का खर्च चलाने को। बाकी पारसिंग शराब की दुकान पर खर्च कर देता था।

पारसिंग जब हमारे घर काम करने आता था तो मेरी पत्नीजी का पहला सवाल होता था – पारसिंग, दारू पीना बंद किया कि नहीं?

और पारसिंग का स्टॉक रिप्लाई होता था – अरे मम्मी (मेरी पत्नीजी को वह मम्मी बुलाता था) मैं तो उसको छूता भी नहीं। सामने कोई रख दे तो मैं उसमें आग लगा दूं। राम राम! कब्भी नहीं पीता मैं।

पर पारसिंग की सरलता, काम में नफासत, काम के प्रति प्रतिबद्धता और उस सबसे ऊपर उसका दारू प्रेम – वह सब जानते थे।

पारसिंग के लिये यही फोटो तलाश पाया नेट से।
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रेलवे स्टेशन पर भी पारसिंग के क्रियाकलाप सुनने में आते थे। डीजल इंजन की सफाई कर जूट-कॉटन जो इंजन चालक फैंक देते थे, वह भी पारसिंग इकठ्ठा कर बेच आता था। लोग ईंधन के रूप में या दुकानदार भट्टी जलाने के लिये उस जूट का इस्तेमाल करते थे। लोगों के घरों से कटी लॉन की घास भी बेच कर दारू का इंतजाम करता था। … दारू ही पीता था। और कोई नशा करते उसके बारे में सुना नहीं।

दो तीन महीने में, विकल्प न होने पर, पारसिंग हमारे घर पर नजर आता था! :lol:

पारसिंग जैसे लोग भी; भगवान जब मूड में होते होंगे; तब गढ़ते होंगे। लम्बा अर्सा हो गया। उस स्टेशन के मेरे जानपहचान के लोग भी अब रिटायर हो गये होंगे। पारसिंग तो काफी बूढ़ा हो गया होगा। क्या पता अब न भी हो। पर पारसिंग की याद आज आ गयी!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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