जब मैं गांव आया था – सन 2015 में – तो विश्वनाथ देवेंद्र भाई की गायों का दूध उनके दो बेटों के लिये ले रोज बनारस जाया करता था। अब वह अपने घर के बाहर तख्ते पर बैठा सुरती मलता या खटिया पर लेटा सोता रहता है। चलते फिरते कम ही देखा है।
बकौल उसके, वह पचहत्तर साल का हो गया है। देवेंद्र भाई से कुछ ही महीने छोटा है। मेरे श्वसुर जी, जब गांव में अहाता छोड़ इस जगह पर आ बसे तो विश्वनाथ ही उनका पड़ोसी था। उस बात को तीन दशक बीत गये। मैं उन तीन दशकों की बात ब्लॉग पर उतारना चाहता हूं। दो तीन ही लोग हैं जो उस समय की बात बता सकते हैं। विश्वनाथ उनमें से एक है। और शायद सबसे महत्व का है।
आज वह एक जाल ठीक कर रहा था। केवट है तो भले ही कोई काम कर रहा हो, नदी-पानी-नाव-मछली से उसका जीनेटिक नाता है। जाल ठीक करना देख मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। पर इससे पहले मैंने उसे जाल के साथ नहीं देखा था। मैंने साइकिल रोक उससे बात की।

जाल पुराना नहीं है। पर कहीं कहीं से कट गया है। क्या पता घर में रखे रखे चूहों ने काट दिया हो। वह उनकी मरम्मत कर रहा था। उसने बताया कि नया जाल पांच सौ तक में आता होगा। पांच सौ का नया जाल खरीदने की बजाय बार बार मरम्मत करके काम चलाना गांवदेहात की नैसर्गिक प्रवृत्ति है। और अभी तो यह जाल ठीक ठाक लग रहा था।
मेरे पास दो विकल्प हैं – उसे अपने घर बुला कर बातचीत करूं या फिर अपने लेखन औजार के साथ उसी के बराम्दे में उसके तख्ते पर बैठ कर चर्चा करूं। मेरे ख्याल से मैं एक थर्मस चाय ले कर उसी के यहां जा कर उसके साथ चाय पीते हुये बातचीत करूंगा।
आजकल वह आता जाता नहीं, क्यों? यह पूछने पर विश्वनाथ ने अपने घुटने छू कर बताया कि बहुत तकलीफ रहती है। इस कारण से उसका बनारस जाना भी बंद हो गया। … सरकारी नौकर को सरकार उम्र होने पर रिटायर कर देती है। पर अपने से काम काजी आदमी को उसके घुटने रिटायर कर देते हैं। सो विश्वनाथ को सत्तर साल की उम्र में घुटनों के रिह्यूमिटाइड दर्द ने बिठा दिया।
वह मुझे अपना घुटनों पर मलने वाला तेल दिखाता है। एक सौ बीस रुपये की छोटी शीशी। चीता मार्क घुटनों की मालिश का तेल। मुझे वह शीशी बहुत अच्छी नहीं लगती, पर विश्वनाथ का कहना है कि उससे आराम मिलता है।

बोलने में अभी बुढ़ापे की गुड़गुड़ाहट नहीं है विश्वनाथ के। वाणी साफ है। उसकी याददाश्त भी अच्छी लगती है। ये दोनो मेरे ब्लॉग लेखन के काम की चीज हैं। मैं उससे कहता हूं कि उसके पास अपनी कलम कॉपी ले कर बैठा करूंगा, पिछले तीस साल की बातें जानने के लिये। कोई आपत्ति नहीं है विश्वनाथ को। उसके हाव भाव से लगता है कि उसे यह अच्छा ही लगा। मेरे पास दो विकल्प हैं – उसे अपने घर बुला कर बातचीत करूं या फिर अपने लेखन औजार के साथ उसी के बराम्दे में उसके तख्ते पर बैठ कर चर्चा करूं। मेरे ख्याल से मैं एक थर्मस चाय ले कर उसी के यहां जा कर उसके साथ चाय पीते हुये बातचीत करूंगा। गांवदेहात की हाइरार्की के हिसाब से वह निहायत अटपटी बात होगी। पर वैसा ही उचित रहेगा मेरी प्रवृत्ति के अनुसार।
देखें, कब बैठना होता है विश्वनाथ के तख्ते पर। कब होती है उससे दोस्ती!
