पारसिंग का बकरा


पारसिंग की याद ने बहुत कुछ अतीत कुरेद दिया। वह सरल था और मेहनती भी। घर और बर्तनों की साफसफाई में उसका मुकाबला नहीं। पर शराब पीने की लत उसे हास्य का पात्र बना देती थी। जैसा मैंने पिछली पोस्ट में लिखा, उसे घर पर बुलाना अंतिम विकल्प हुआ करता था।

मेरी पत्नीजी से पैसा झटकने के वे कई उपाय करता था। एक बार वह मुंह लटकाये था। पत्नीजी ने पूछ लिया – क्या बात है पारसिंग?

जितनी शानदार पारसिंग की बकरे वाली कथा थी, उसी के टक्कर की कथा मेरी पत्नीजी की मुझे महा कंजूस घोषित करने वाली भी थी। दोनो संवेदना-सहानुभूति-पीड़ा के खेल के बराबर के खिलाड़ी थे।

“मम्मी, एक बकरा था मेरा। बहुत अच्छा था। मम्मी, क्या बताऊं, आज वह मर गया। घर पर उसकी लाश पड़ी है। उसे दफनाने के पैसे नहीं हैं। आप मम्मी बस सौ रुपये दे दें तो उसे दफना दूं।” – पारसिंग बोला।

मेरी पत्नीजी पारसिंग को पैसे देने की बात पर तुरंत सतर्क हो गयीं। उन्होने पारसिंग के टक्कर की अपनी कहानी बनाई – “क्या बताऊं पारसिंग, तुम्हारे साहब हैं न; वो बड़े कंजूस हैं। महा कंजूस। घर चलाने के लिये मुझे पैसे ही नहीं देते। अब देखो, सब्जी मंगानी है। किराने का सामान भी लाना है। पर मेरे पास पैसे ही नहीं हैं। सवेरे उनसे मांगे थे। और काम तो याद रहा पर पैसे देना कभी याद नहीं रहता…”

पारसिंग ने मेरी पत्नीजी से पूरी सहानुभूति जताई – “यह तो बहुत गलत बात है मम्मी कि साहब पैसा ही नहीं देते।” पारसिंग की टप टप टपकती संवेदना को पत्नीजी ने पूरी कृतज्ञता से ग्रहण भी किया।

जितनी शानदार पारसिंग की बकरे वाली कथा थी, उसी के टक्कर की कथा मेरी पत्नीजी की मुझे महा कंजूस घोषित करने वाली भी थी। दोनो संवेदना-सहानुभूति-पीड़ा के खेल के बराबर के खिलाड़ी थे। उसके बाद मोल भाव शुरू हुआ। पारसिंग सौ से पचास रुपये पर उतरा और पत्नीजी ने अपना बटुआ झाड़ कर दिखाया कि उनके पास कुल पांच रुपये हैं।

अंत में दस रुपये पर दोनो की कथायें पासंग में आयीं। पत्नीजी ने इधर उधर से चिल्लर गिन कर दस रुपये पारसिंग को दिये।

पारसिंग कुछ ऐसा दीखता था।
Photo by Mohan Nannapaneni on Pexels.com

एक दो दिन बाद स्टेशन मैनेजर साहब घर पर आये। बात बात में पारसिंग की बात भी चली। पारसिंग उन्ही के स्टेशन का एवजी कर्मचारी थी। स्टेशन मैनेजर साहब ने बताया कि महीना भर पहले पारसिंग का बकरा मर गया था और उसे दफनाने के लिये उन्होने सौ रुपये दिये थे।

“अच्छा?! वह तो परसों मुझसे बकरा दफनाने के लिये दस रुपये ले कर गया है!” – मेरी पत्नीजी ने आश्चर्य जताया।

स्टेशन मैंनेजर साहब जोर से हंसे। बोले – “मैडम आप से भी ले गया! वह कई कई बार बकरा मार चुका है। अपने दारू के लिये घर परिवार के कई लोगों को कई बार बीमार कर चुका है। मार भी चुका है। वह खुद नहीं याद रखता कि कब कब किसको मार या बीमार कर चुका है। हम सब उसकी कथायें जानते हैं। फिर भी गाहे बगाहे उसे पैसे दे ही देते हैं। आखिर जब काम करने वालों की कमी होती है तो पारसिंग ही काम आता है। और; काम में वह कोई कोताही नहीं करता।”

पच्चीस साल हो गये। पारसिंग पता नहीं होगा या नहीं। स्टेशन मैनेजर साहब तो कुछ साल पहले गुजर गये। पर हमारी यादों में; विशेषत: मेरी पत्नीजी की यादों में जिंदा है पारसिंग।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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