कालीन की फिनिशिंग

सड़क के किनारे नीचे की समतल जमीन पर वे रोज कालीन बिछाये कुछ नाप जोख करते दीखते हैं। उस जगह पर जाने के लिये नीचे उरतना कठिन लगता है। इसलिये मैं अपनी साइकिल सैर पर वहां रुकता नहीं। हर रोज उनकी गतिविधियाँ देखता निकल जाता हूं।

कल, आखिर वहां जाने का निश्चय कर लिया। एक पगडण्डी सी गयी है हाईवे की सर्विस लेन से। किनारे साइकिल खड़ी कर पैर साधते हुये मैं नीचे उतरा। अगर पैर इधर उधर पड़े तो टखने में मोच आना अवश्यम्भावी है। रपट गया तो हड्डी भी टूट सकती है।

नीचाई पर उतरने में ही दिक्कत होती है। रपटने का भय होता है। ऊंचाई चढ़ना सरल होता है।

लोहे के पाइप और बांस की डण्डियों से बंधी कालीन उलट कर बिछाई गयी थी। जो रस्सियां पाइप और बल्लियों से कालीन को जोड़ती थीं उनमें बल दे कर वे कलीन में सही जगह पर उचित तनाव वे दे रहे थे।

तीन आदमी और एक महिला वहां काम पर लगे थे। लोहे के पाइप और बांस की डण्डियों से बंधी कालीन उलट कर बिछाई गयी थी। जो रस्सियां पाइप और बल्लियों से कालीन को जोड़ती थीं उनमें बल दे कर वे कालीन में सही जगह पर उचित तनाव दे रहे थे। बार बार वे कालीन की लम्बाई चौड़ाई नापते थे और जहां अंतर होता था, वहां कालीन खींच कर उसका माप ठीक कर रहे थे।

बगल में एक महिला बाल्टी में कोई कैमीकल का घोल लिये उल्टी बिछी कालीन पर पोत रही थी। उस पोतने से कालीन कड़क हो जायेगी, ऐसा मुझे बताया गया। कालीन सीधी रहे, इसके लिये उसे कोने में कीलों से जमीन पर साधा गया था।

बगल में एक महिला बाल्टी में कोई कैमीकल का घोल लिये उल्टी बिछी कालीन पर पोत रही थी। उस पोतने से कालीन कड़क हो जायेगी, ऐसा मुझे बताया गया।

कालीन बुनने का काम सेण्टर पर होता है। खड्डियों पर। वहां से इन लोगों को कालीन फिनिशिंग टच देने के लिये मिलती है। इसके बाद कालीन मालिक लोग पैक कर बाजार में या निर्यात के लिये भेजते हैं।

उल्टी कालीन को सीधा कर एक व्यक्ति – अजय – ने मुझे दिखाया। उसने कहा कि उन्हें तो अपने काम की मजूरी मिलती है। मजूरी ही इस कालीन बनाने की चेन में लगे सभी लोगों को मिलती है। मजूरी यानी रोजी रोटी का जरीया। बाकी, असल में कमाई तो मालिक या निर्यातक की होती है।

उल्टी कालीन को सीधा कर एक व्यक्ति – अजय – ने मुझे दिखाया।

सभी व्यवसायों का यही हाल है। जो व्यक्ति दिमाग लगा कर पूंजी और नेटवर्क बनाता है; रिस्क लेता है, कमाता भी वही है। बाकी सब का तो रोजी-रोटी का ही मामला होता है यह खटकरम!

वहां रुकने में पांच सात मिनट लगे। नीचाई की उस जमीन पर कोई अच्छा वातावरण नहीं था। कोई साफ सुथरी जगह नहीं थी। एक कोने पर नुचे हुये मुर्गे के पंख पड़े थे। वहीं ये लोग अपना भोजन भी बनाते होंगे। पास में ही उनके रहने के कच्चे-पक्के मकान थे। जिज्ञासा नहीं होती तो मैं वहां नहीं जाता। कोई बैठने को कुरसी या बेंच जैसा भी नहीं था जहां रुक कर मैं अपनी जानकारी लिख सकता।

कोई उद्योग इस तरह, खाली जमीन में नीचे बिना सड़क की जगह खुले आसमान तले लगता और चलता है?! अच्छा नहीं लगा यह। कुछ बेसिक सुविधायें तो होनी चाहियें। पर सुविधायें मतलब खर्चा और खर्चा मतलब मुनाफे में कमी।

मेरे मन में पूरी प्रक्रिया को ले कर अब भी कई अनुत्तरित सवाल थे। पर जितनी जानकारी मिली, उससे मेरी जिज्ञासा काफी हद तक शांत हुई। वहां से चला आया मैं। अब शायद ही उस नीचे वाली जगह पर उतरूं। मेरे घर के पास खड्डी पर काम करने वाले कई लोग हैं। एक दो निर्यातक भी हैं। कभी उनसे बातचीत होगी!

भदोही में रहते हुये भदोही के मुख्य उद्योग – कालीन बुनकर का काम – मैं बहुत काम जानता हूं। यह एक ब्लॉगर के लिये अच्छी बात नहीं है, जीडी!

एक पगडण्डी सी गयी है हाईवे की सर्विस लेन से। किनारे साइकिल खड़ी कर पैर साधते हुये नीचे उतरा। अगर पैर इधर उधर पड़े तो टखने में मोच आना अवश्यम्भावी है।

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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