नवान्न

अठारह अप्रेल 2010 की पोस्ट। हम लोग प्रयागराज के शिवकुटी में रह रहे थे। यहां कटका से टुन्नू पण्डित ने नया गेहूं भेजा था। एक खेत खरीदा था मेरी पत्नीजी ने और उसमें खेती करा कर उससे मिला था गेहूं। उस समय मैं उत्तर मध्य रेलवे का मुख्य माल यातायात प्रबंधक था तो रेल सिस्टम पर प्रभाव था ही! गेहूं कटका स्टेशन पर लाद दिया गया पैसेंजर गाड़ी में। रामबाग स्टेशन पर उतार कर हमारे यातायात निरीक्षक साहब – बाबू एसपी सिंह – घर पर ले कर आये। उस समय अम्मा-पिताजी भी थे। इस घटना को तेरह साल हो गये हैं। बाबू एसपी सिंह भी अब रिटायर हो गये हैं। अम्मा-पिताजी अब नहीं हैं।

आज हम उसी कटका स्टेशन के बगल में रह रहे हैं। नवान्न सफराया जा रहा है।

आज हम उसी कटका स्टेशन के बगल में रह रहे हैं। नवान्न सफराया जा रहा है। अब यह पोस्ट फिर से देखना एक नोस्टॉजिया उद्दीप्त कर रहा है। प्रस्तुत है तेरह साल पुरानी पोस्ट।


वैशाखी बीत गई। नवान्न का इन्तजार है। नया गेहूं। बताते हैं अरहर अच्छी नहीं हुई। एक बेरियां की छीमी पुष्ट नहीं हुई कि फिर फूल आ गये। यूपोरियन अरहर तो चौपट, पता नहीं विदर्भ की अरहर की फसल का क्या हाल है?

ज्वान लोग गूगल बज़ पर ध्रुव कमाण्डो कॉमिक्स आदान-प्रदान कर रहे हैं और मेरे घर में इसी पर चर्चा होती है कि कित्ते भाव तक जायेगी रहर (अरहर)। कहां से खरीदें, कब खरीदें, कितना खरीदें?!

रहर की भाव चर्चा में तो सारा सामाजिक विकास ठप्प हो रहा है। 

खैर गेहूं तो आ रहा है। कटका स्टेशन पर लद गया है पसीजड़ में। कित्ते बजे आती है? शाम पांच बजे रामबाग। अभी हंड़िया डांक रही है। लेट है। रामबाग से घर कैसे आयेगा? चार बोरा है। तीन कुन्तल? साल भर चल जायेगा?

मेरे पत्नीजी इधर उधर फोन कर रही हैं। उनके अनुसार मुझसे तो यह लॉजिस्टिक मैनेजमेण्ट हो नहीं सकता। कटका पर चार बोरे लदाना (“सुरजवा अभी तो कर दे रहा है काम, पर अगली बार बिधायकी का चुनाव लड़ेगा तब थोड़े ही हाथ आयेगा!”), इलाहाबाद सिटी स्टेशन पर उतरवाना (“स्टेशन मास्टर साहब का फोनै नहीं लग रहा”), फिर रोड वैहीकल का इन्तजाम रामबाग से शिवकुटी लाने का (“सिंह साहब संझा साढ़े चार बजे भी तान कर सो रहे हैं – जरूर दोपहर में कस के कढ़ी-भात खाये हैं! चांप के।”)।

और हम अलग-थलगवादी नौकरशाह यह पोस्ट बना ले रहे हैं और एकान्त में सोच रहे हैं कि कौनो तरीके से चार बोरी गोहूं घर आये तो एक ठो फोटो खींच इस पर सटा कर कल के लिये पोस्ट पब्लिश करने छोड़ दें। बाकी, गेंहूं के गांव से शहर के माइग्रेशन पर कौन थीसिस लिखनी है! कौन सामन्त-समाज-साम्य-दलित-पूंजीवाद के कीड़े बीनने हैं गेंहू में से। अभी तो टटका नवान्न है। अभी तो उसमें कीड़े पड़े भी न होंगे।


गेंहूं के चारों बोरे आये। घर भर में प्रसन्नता। मेरी पत्नीजी के खेत का गेंहूं है।

हम इतने प्रसन्न हो रहे हैं तो किसान जो मेहनत कर घर में नवान्न लाता होगा, उसकी खुशी का तो अंदाज लगाना कठिन है। तभी तो नये पिसान का गुलगुला-रोट-लपसी चढ़ता है देवी मैय्या को!

नवान्न के बोरे पर बैठी, सहेजती मेरी पत्नीजी और गेंहूं के दाने परखते पिताजी। पुराने चित्र को स्केच में बदल दिया है। चित्र 1.3 मेगापिक्सल के कैमरे से खींचे थे। धूमिल और रात के समय।

हम लोगों ने रिटायरमेण्ट तक यहां गांव में कुछ जमीन और खरीदी। अब कुछ चना – मटर -सरसों-तीसी-अरहर भी मिल जा रही है खेती से।

अब कुछ चना – मटर -सरसों-तीसी-अरहर भी मिल जा रही है

नये पिसान की लपसी गुलगुला की बात पर एक टिप्पणी नरेंद्र सिंह राठौड़ जी की थी उस समय ब्लॉग पर। वह नीचे दिये दे रहा हूं –

आपकी नीचे वाली लाइन से जुडी बात यह है की आज कल किसान इतना बाजार वादी हो गया है की वो गुलगुला रोट और लपसी नहीं बनाता है अनाज निकालते ही सीधा बाजार में भेजता है। पहले हमारे यहां भी सवा मन अनाज का चूरमा बनाया जाता था अनाज निकालने के बाद। लेकिन आजकल इस परम्परा का एक प्रतिशत भी पालन नहीं किया जाता है।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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