विनोद दुबे – माई की कृपा, बच गया

विनोद दुबे मर्यादी वस्त्रालय में काम करते हैं। हजारों रेडीमेड कपड़े होंगे वहां, पर उन सब की जानकारी उन्हें होती है। दुकान के कर्ताधर्ता विवेक चौबे के खास लगते हैं। उस दिन बाबूसराय-कटका पड़ाव के बीच सवेरे साढ़े सात बजे मिल गये। मैं अपनी सवेरे की साइकिल चला रहा था। वे बाबूसराय में किसी से दो हजार का तगादा कर लौट रहे थे।

मैं चुपचाप साइकिल चलाने और आसपास निहारने के मूड में था और वे अपनी कहने के। उन्होने साइकिल पर बैठे बैठे पैलगी-प्रणाम किया। खुद ही बोले – आप पहचान नहीं रहे हैं? हम मर्यादी में काम करते हैं। कल आपका जाकिट हम ही सिलवाये थे। पैदल ही टेलर के यहां लेने गये और आये थे। जाकिट की फिटिंग तो ठीक आ रही है न?

मैं “मर्यादी वस्त्रालय” के नाम से पहचान गया।

उन्होने बताया कि उनके दांये पैर में रॉड पड़ी है। “जांघ से घुटने के बीच हड्डी के तीन टुकड़े हो गये थे। भारी एक्सीडेण्ट था। विंध्यवासिनी दर्शन को गये थे। वापसी में पास के ही दो मोटरसाइकिल सवार बैठा लिये। आगे बड़ी दुर्घटना हो गयी। दोनो तो ऊपर चले गये। मेरा इलाज चला बनारस के ट्रॉमा सेण्टर में। चार पांच लाख खर्च आया। माई का दर्शन करने गया था। उनकी कृपा थी तो बच गया।”

माई पर विश्वास की यह आस्था तर्क के परे की चीज है। दर्शन तो उन दोनो ने भी किये होंगे। और वे परोपकार भी कर रहे थे इन्हें साथ बिठा कर लाने में। पर वे चले गये ऊपर। … वैसे ऊपर जाना बेहतर था या इस भवजगत में खटना?

मर्यादी वस्त्रालय में V आकार का वैष्णवी तिलक लगाये विवेक चौबे

श्रद्धा, तर्क, आस्था, न्याय आदि पहले भी तुम्हारे भेजे में नहीं पड़ता था और अब भी; 67+ की उम्र में भी नहीं पड़ता। तुम्हें ध्यान योग अभ्यास करना चाहिये जीडी! – मैंने अपने आप से कहा।

माई की कृपा क्या है? हम जैसे कुतर्कवादी को कैसे मिलेगी माई की कृपा? विनोद दुबे तो दुर्घटना में बचने को भग्वद्कृपा मान कर मगन हैं। उन्होने मुझे यह बताया, यह अनेकानेक लोगों को बता चुके होंगे। उनके पास बताने को यह मिराकेल है, मेरे पास तो कुछ भी नहीं है।

चलते चलते विनोद दुबे ने कहा – “आप रसूख वाले हैं। आपके परिचय में बहुत लोग होंगे। मेरी बिटिया की शादी के लिये कोई सही रिश्ता अगर आप जानते हों…”

मैं तुरंत अपनी अंतरमुखी खोल में घुस गया। मुझे ज्यादा जानकारी नहीं लोगों की। बाकी, “कभी कोई पता चला तो बताऊंगा।”

वहां से मैं आगे बढ़ गया और विनोद भी मर्यादी वस्त्रालय की ओर चले। दुकान खुलने का समय होने वाला था। मैं दिन भर सोचता रहा; अब भी सोच रहा हूं; माई की कृपा मुझ पर कैसे हो सकती है? या कहीं ऐसा तो नहीं कि मुझपर भग्वद्कृपा बरस रही है और मैं छाता लगाये उससे अनभिज्ञ हूं?

ॐ मात्रे नम:।

बाबूसराय-कटका पड़ाव के बीच सवेरे साढ़े सात बजे मिल गये विनोद दुबे।

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

आपकी टिप्पणी के लिये खांचा:

Discover more from मानसिक हलचल

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading

Design a site like this with WordPress.com
Get started