स्याही सूख गयी है। कलम को साफ करने के चक्कर में उंगलियों पर नीली-काली स्याही लग गयी है जो सबुन से धोने पर भी साफ नहीं होती। उंगलियां वाशबेसिन या पत्थर पर रगड़ने से कल्लाने लगती हैं। पेन की निब और जिब खींचने पर भी नहीं हिलती तो मुंह से फूंक मार कर स्याही उसमें से पास की जाती है; जिससे उसके बीच सूखा तत्व बाहर आ जाये। पल स्वरूप होठ पर भी स्याही लग जाती है।
कार्ट्रिज में स्याही भरने के लिये जो भी डिस्पोजेबुल सिरिंज घर में आते हैं, सहेज कर रख दिये जाते हैं। पर उनमें भी कई बेकार हो जाते हैं। उनकी सूई पर स्याही जम जाती है और उसका स्पिण्डल स्याही खींचता ही नहीं।

फाउण्टेन पेन को ठीक करने के बड़े झझट हैं। पर फिर भी फाउण्टेन पेन के प्रयोग का मोह जाता नहीं। कक्षा चार या पांच में, जब पहला पेन मिला था; सरकण्डे की कलम की जगह; तब से अब तक उसके प्रति प्रेम कम नहीं हुआ है। आठ दस कलम हैं मेरे पास आज भी। सरकारी अफसरी के दौरान भी लोग जानते थे कि यह खड्डूस रिश्वत के नाम से ही भड़क जाता है पर इसे अगर कोई पुस्तक या कोई अच्छा फाउण्टेन पेन गिफ्ट में दे दो तो मुलायम हो जाता है और कम से कम सीधे सीधे भड़कने की बजाय बात तो सुन लेता है! 😆

अब फाउण्टेन पेन या किताब गिफ्टकी का युग नहीं रहा। अब अगर लेना है तो खुद खरीदना होता है। पर खुद खरीदना अखरता नहीं। कभी भी प्रयाग या बनारस जाता हूं तो स्टेशनरी की या किताब की दुकान पर जरूर जाता हूं। मेरी पत्नीजी को वह बहुत पसंद नहीं है। पर मुझे भी उनका टेर्राकोटा या नर्सरी की दुकान पर पैसे खर्च करना पसंद नहीं है। लिहाजा हम दोनो शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व में जीते हैं। उम्र बढ़ने के साथ साथ यह सहअस्तित्व और भी समझ आता है और यह भी अहसास प्रगढ़ होता है कि उसके बिना गुजारा नहीं!
डायरी लेखन और फाउण्टेन पेन का प्रयोग अभी लम्बा चलेगा! बस स्वास्थ्य अच्छा बना रहे!