चौदह अप्रेल की शाम को वह आयी थी हम लोगों के साथ बनारस से। हमारी छोटी आल्टो कार में। कल शाम को उसका वाहन आया और आज सवेरे वह चली गयी।
आना अच्छा लगता है और जाना बहुत खराब लगता है। हमेशा। पर क्या कर सकते हैं? बिटिया का अपना घर होता है। अपना पति और बच्चा। बच्चा भी बड़ा हो रहा है। इस बार नौवीं कक्षा में गया है। उसका पति अपने को पेरता है अपने बिजनेस में।

जो प्रिय लगते हैं, उनके बारे में लिखने का मन होता है। खूब होता है। उनकी ही सोचते हैं। पर लिखते समय कुछ लिखा ही नहीं जाता। विचार कहीं ज्यादा होते हैं और लेखन की स्पीड बहुत कम। हमेशा लगता है जो लिखना था वह तो आ ही नहीं रहा। … एक ब्लॉगर और एक लेखक में शायद मूलभूत अंतर होता है। ब्लॉगर जब लेखन की भट्टी में तपता है, तब लेखक बनता है। मैं वह तपा ही नहीं अब तक।
डेढ़ दिन रही वह। माँ से लड़ते झगड़ते और सोते समय गुजारा।
जाते समय मां बेटी बदाम के पेड़ के नीचे खड़े होते हैं। मैं टेनटेटिव सा चित्र खींच लेता हूं। वह अपनी कार में बैठ रही है। माँ का शायद इमोशन उसपर हावी है। वह पास नहीं गयी। दूर से देख रही है। सामान सहेज कर वही पास आती है। अपनी माँ से गले मिलती है। मैं उसका मुंह और सिर सहलाता हूं।

बस, वह चली जाती है। हम अंग्रेजी तरीके से हाथ हिलाते हैं।
जब तक वह बोकारो पंहुच नहीं जाती, हर आधे घण्टे माँ-बेटी फोन करते ही रहेंगे। कोई बात नहीं होगी, फिर भी करेंगे – “खाना खा लिया? फोन नहीं उठाया, नींद आ रही है क्या? कितना देर लगेगी पंहुचने में? फिर अगले महीने आना पक्का है न?” … इसी तरह की ट्रीवियल बातचीत!
वह आई और चली गयी। बेटियाँ आती ही जाने के लिये हैं!