सुरेश पटेल

कुछ लोग, कुछ विषय बहुत प्रिय हैं। इतने प्रिय कि उनके बारे में लिखना कठिन होता है। वे कोई एक घटना, एक प्रसंग, एक रिपोर्ट या एक अनहोनी तो हैं नहीं। वे समग्र चरित्र या प्रबंध हैं। उनपर क्या लिखा जाये और कितना लिखा जाये?!

सुरेश चाहते हैं कि मैं छोटी से छोटी बात पर लिखता हूं; राह में मिले हर छोटे-छोटे करेक्टर पर; तो उनपर भी कुछ लिखूं। मैं कई बार कोशिश करता हूं। कुछ चित्र एक फोल्डर में इकठ्ठे करता हूं। उनका फेसबुक प्रोफाइल देखता हूं। पर लिखना नहीं हो पाता। पता नहीं क्यों?

सुरेश पटेल

सुरेश बार बार मेरा ध्यान खींचते हैं। मैं बक्सर से गुजरती सोन नहर की बात करता हूं तो वे मिर्जापुर-शोणभद्र जिले की नहर की बात करते हैं। वह भी पुरानी नहर है। सिंचाई परियोजना का महत्वपूर्ण अंग। मेरे साथ वे वहां चल सकते हैं। सुरेश चुनार का तिलिस्म मेरे सामने बार बार रखते हैं, अपने घर आने का निमंत्रण भी दोहराते हैं। पर न जाना होता है, न देखना और न लिखना। सुरेश के बारे में सोचना बारबार होता है।

मैं जब रिटायर हो कर गांव में आया था तो अपेक्षा थी कि गांव मुझे अपनापन देगा। कुछ ही दिनों में साफ हो गया कि अपने निर्णय में – गांव में आ कर रहने में – मैंने बड़ी गलती की थी। यहां मेरे लिये स्थान नहीं था। स्थान मुझे खुद बनाना था। उस एकाकी समय में (और मुझे बड़ा ही विचित्र लगता है कि कैसे कोई मिल जाता है) जो अनूठे चरित्र मुझे मिले वे थे सुरेश पटेल। वे मेरी फेसबुक (और शायद ब्लॉग) के माध्यम से मेरा गांव में रीवर्स माइग्रेशन देख रहे थे। गांव में आने पर मुझे लगभग हर पोस्ट पर उनकी टिप्पणियां नजर आने लगी थीं। उनमें मेरे आसपास के बारे में यूं लिखा – कहा होता था मानो यह नौजवान 100-200 मीटर की दूरी से मुझे परख रहा हो।

कई लोग – लगभग 2-3 सौ लोग, जो मुझे मेरे लेखन के कारण नहीं, मेरे पद के कारण मुझसे सोशल मीडिया पर जुड़े थे, वे एक एक कर गायब हो रहे थे। पर जो जुड़ रहे थे, उनमें मैं सुरेश पटेल को ही याद करता हूं। वह जुड़ाव आज भी है। और समय के साथ ज्यादा ही हुआ है।

गांव में आने के बाद कुछ ही महीने बीते थे कि एक दिन सुरेश मिलने आये। औरों को तो घर की लोकेशन बतानी पड़ती थी। लोग इधर उधर भटक कर मेरे यहां पंहुचते थे। गांव में मेरे बारे में पूछते थे तो लगभग सभी बोलते थे कि ऐसा कोई पांड़े इधर रहता नहीं। यह तो दूबे लोगों का गांव है। मैं तो पर्सोना-नॉन-ग्राटा (persona non grata) था गांव के लिये। पर सुरेश को घर की लोकेशन बतानी नहीं पड़ी। उन्होने कहा – “बाऊजी, मैं आ रहा हूं”; और आ गये। उस घटना को सात साल बीत चुके हैं।

सुरेश नौजवान थे। लड़के ही। एक साठ साल के व्यक्ति से एक नौजवान का ऐसा लगाव हो सकता है – मैं कल्पना नहीं कर सकता था। मुझे पहली बार लगा कि यह व्यक्ति शायद एक अफसर रहे को अपने पास से देखना चाहता हो और एक बार देख कर कि उसमें कोई खास बात, कोई ठसक नहीं है, फिर नहीं आयेगा। पर मैं गलत सोच रहा था। पहली बार मेरा साक्षात्कार हो रहा था ऐसे व्यक्ति से जो कृत्रिम सोशल मीडिया से भी अपनत्व सृजित कर रहा था! और उस अपनेपन ने मुझे गहरे से सिंचित कर दिया।

सुरेश मेरे लिये अपने बगीचे की सब्जियां लाये थे। और बहुत सारी थीं! इतनी कि हमें अपने पड़ोस वालों को भी बांटनी पड़ीं। सब्जी उगाने के अलावा सुरेश पावरलूम से साड़ियां बनाने का काम भी करते थे। मैं एक सेल्फमेड ऑन्त्रेपिन्योर से मिल रहा था।

उसके कुछ महीने बाद सुरेश का विवाह हुआ था। हम उनके रिसेप्शन में उनके गांव – यहां से लगभग चालीस किमी दूर अदलपुरा-चितईरोड (वाराणसी) के बीच उनका गांव है – गए। उनके घर का परिवेश ग्रामीण था। और वहां भी मुझे आश्चर्य हुआ कि कैसे सुरेश कैसे सामान्य गंवई अनपॉलिश्ड नौजवान के उलट इतने विनम्र और तहजीब वाले हैं। मुझे आज तक उत्तर नहीं मिला है। शायद वे इतना दूर (42किमी) न होते और यदा कदा उनके यहां मैं साइकिल चलाते पंहुचता होता तो उत्तर जान पाता।

फिलहाल तो मैं सुरेश को ही जानता हूं। उनकी जड़ों से परिचय अधिक नहीं है। उनके बालक का चित्र देखा है। बड़ी और भावयुक्त आंखें हैं बालक की। चित्र शायद चार साल पुराना है। अब तो स्कूल जाता होगा बालक!

कोरोना काल में सुरेश से सम्पर्क यदा कदा मैसेज या फोन से हुआ। कोरोना की त्रासदी से उनका गांव भी प्रभावित था। उनका पावरलूम का व्यवसाय भी बंद हुआ। बिजली मंहगी होने से वह चलाना घाटे का व्यवसाय हो गया था। अब वे मुख्यत: किसान हैं। सब्जियां उगाने वाले किसान। खुद उगाते हैं और खुद ही ले कर सवेरे सवेरे बनारस की मण्डी जाते हैं – चेनुआं सट्टी।

सुरेश मुझे वर्तमान सरकार के काल में हुये परिवर्तन के बारे मे बताते हैं। “बाऊजी, पुलीस भी अब कायदे की हो गयी है। पहले हम सब्जी ले कर चेनुआं सट्टी जाते थे तो रास्ते पड़ते हर थाने पर सौ रुपये का चढ़ावा लगता था। अब वह खतम हो गया है।”

आसपास के जिलों, स्थानों की अच्छी जानकारी लगती है सुरेश की। अगली सर्दियों में उनके साथ भ्रमण करने का इरादा है! वे नहरें, प्रपात और चुनार के किले का तिलस्म देखना है!

आसपास के जिलों, स्थानों की अच्छी जानकारी लगती है सुरेश की। अगली सर्दियों में उनके साथ भ्रमण करने का इरादा है! वे नहरें, प्रपात और चुनार के किले का तिलस्म देखना है!

मैंने उन्हें कहा था कि बिजली वाली साइकिल पता करें मेरे लिये बनारस में उन्होने पता भी कर लिय अगले दो तीन दिनों में, पर मैं ही ढीला पड़ गया। बिजली की साइकिल अगर कभी खराब हो गयी तो उसे ठीक करने वाला कोई लोकल कारीगर नहीं मिलेगा। एक-दो साल में जब बिजली की साइकिलें आम हो जायेंगी तो उसे ले कर सुरेश के गांव तक मैं चक्कर लगाया करूंगा। अभी मेरा दायरा 10किमी तक का है। तब वह 40 किमी का हो जायेगा – सुरेश के घर तक का! आशा है अगली सर्दियों तक तो वैसा हो ही जायेगा।

मैं यह जो लिख रहा हूं, वह तो रेण्डम लेखन है। बेतरतीब। सुरेश के प्रति जो स्नेह, लगाव है वह झलक ही नहीं रहा है। पर सुरेश के खुद के लगाव के शब्द मेरे पास हैं। वे मेरे पास आते थे तो वापस जा कर एक दो पैराग्राफ लिख भेजते थे। मैं उनमें से एक नीचे प्रस्तुत कर रहा हूं। उससे पता चलेगा कि कितना अनूठा इंसान है सुरेश! –

प्रिय बाउजी ‘
आज आप से सन 2023 साल की दुसरी मुलाकात आप के आवास हुई।
कल जब मै घर से निकला मामा के यहां शादी में जाने के लिए तो मामा के घर की छवि मन में कम और आप की घर ही छवि ज्यादा बन रही थी कि बाउजी ऐसे बैठे होगें या साइकिल चला कर घुमने निकले होगें आदि ऐसी बातें सोचते हुए मै अपनी बाइक से बढता जा रहा है बढता जा रहा था।
फिर जब मै ओवर ब्रिज के पास पहुंचा जहां से आपके घर के तरफ सड़क मुडती है वहां मै ओवर ब्रिज के उपर करीब 2 मिनट रुका और सोचा कि क्यों न एक सेल्फी खिचकर बाउजी को भेजा जाए।
फिर मेरे मन और हृदय में द्वंद्व युद्ध होने लगा कि सेल्फी ली जाए या नहीं यह सोचते हुए मै ओवर ब्रिज से नीचे उतर गया और उस पेट्रोल पंप के पास पहुंचा जहां की कुछ तस्वीरें आपने एक दिन पहले पोस्ट की थीं। और फिर वही सोचा क्युं न यहाँ से सेल्फी खिचकर आप को भेजी जाए और कहा जाए कि देखिए मै आ गया …
फिर मेरे मन कर दिया।
कि छोड़ो जब कल आना ही है आपके पास तो क्या सेल्फी खिचकर भेजना।
यह सोचते हुए मै मामा के घर चला गया।
और शाम को 5बजे के बाद आपको मैसेज किया कि बाउजी कल मै आ रहा हूं आप के पास।
यकीनन बाउजी जब आपने कहा कि स्वागत है तब मन हृदय और रोम रोम से बस एक ही आवाज आने लगी कि एक बार फिर आपसे गले लगने का मौका मिला या यूं भी कह सकते हैं आपने दिया।
फिर अगले दिन सुबह जब आपको फोन किया कि मै 15 से 20 मिनट में आ रहा हूं तब उस समय आपकी आवाज (आइए आइए) सुन कर भी बहुत बहुत अच्छा लगा बाउजी।
घर पहुचने पर जो आदर सत्कार आप और मम्मी जी देते हैं न बाउजी उतना तो कोई अपना भी नहीं करता 😢।
जब मै आपके घर निकलकर चलता हूं न पुरे रास्ते भर बाउजी आप का चेहरा आंखो के सामने रहता है और वो गीत है न – अकेला गया था मै ना आया अकेला मेरे संग संग आया तेरी यादो का मेला – कुछ ऐसा भी मेरे साथ होता है।
घर आने बाद एक दो दिन तक तो बस आप का ही चेहरा आखों के सामने रहता है फिर धीरे धीरे धुंधली होती चली जाती है!… न जाने ये कौन सा रिश्ता है बाउजी जो आपसे जुड गया है
लिखना तो दिल आप के बारे में बहुत कुछ चाहता है बाउजी मगर आखों मे नीद आ रही है।
बाकि फिर कभी।
शुभ रात्री बाउजी; सादर चरण स्पर्श॥

मैने इस तरह का इमोशनल जुड़ाव कुछ महान लेखकों के पाठकों के संस्मरणों में पढ़ा था। मुझे अपने में वैसी लेखनी का कोई मुगालता नहीं है। पर सुरेश के कथन में इतना अपनापन है कि भीग जाता हूं। सुरेश की पंक्तियों की बराबरी करता कुछ कह ही नहीं सकता। और शायद यही कारण है कि मैं अब तक कुछ लिख नहीं पाया।

आगमी सर्दियों में अगर हम साथ साथ घूमे तो शायद लिखूं। फिलहाल तो सुरेश और उनके परिवार को आशीर्वाद दे कर यह लेख समाप्त करता हूं।

ॐ मात्रे नम:!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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