ईंटवा का गंगा तट

वह श्मशान घाट है। वीरान सा। उसके बोर्ड के अक्षर भी धुंधले पड़ते जा रहे हैं। श्मशान से गंगा किनारे जाने के लिये एक पगडण्डी भर है। करार में गंगा जी तक पंहुचने के लिये कोई सीढ़ी नहीं बनी। वहां कोई चिता नहीं थी। शवदाह के लिये बने स्थान पर कोई राख के चिन्ह भी नहीं थे। बहुत समय से वहां कोई दाह हुआ नहीं शायद।

गंगा घाट पर गहरी उतराई है। उस नीचे जाती पगडण्डी पर दो लोगों के सिर उभरे। फिर पूरी देह। वे लोग गंगा से जरीकेनों में गंगाजल ले कर लौट रहे थे। पास में शौच कर दातुन तोड़ने के लिये जाते एक आदमी ने पूछा – नहाये?

गंगा घाट पर गहरी उतराई है। उस नीचे जाती पगडण्डी पर दो लोगों के सिर उभरे। फिर पूरी देह। वे लोग गंगा से जरीकेनों में गंगाजल ले कर लौट रहे थे।

“नहाये कौन? ये (गंगा) इतनी गहरी हैं और इतना पानी है कि कब पैर फिसले, पता न चले। पानी लिये हैं। घर जा कर नहायेंगे।” – वे लोग जरीकेन में गंगा लिये जा रहे हैं। घर की सेफ्टी में गंगास्नान करेंगे। आज के जरीकेन-भागीरथ! भले ही उन्हें गंगा के जलबढ़ाव और बहाव में तेजी से भय लगता हो, गंगा के प्रति श्रद्धा तो है कि जरीकेन में तीस फुट से ज्यादा चढ़ाई चढ़ जल निकाल लाये हैं और घर तक ले जा रहे हैं। गंगा माई उनका कल्याण करेंगी। मेरा थोड़े जो दशकों से गंगा किनारे घूम रहा हूं पर कभी गंगा स्नान के लिये जल में नहीं उतरा।

गंगा बढ़ी हैं। जल भी मटमैला है। दो बच्चे गंगा किनारे जा रहे थे। एक के मुंह में टूथब्रश था। दूसरे के हाथ में एक प्लास्टिक की पोटली। पोटली वाले ने कुछ धर्म-आध्यात्म की बात की। दोनों में वह कम ऊंचाई का था, पर शायद उम्र में बड़ा था। उसकी दाढ़ी-मूछें आ गयी थीं। किशोर वय। उससे पूछा तो बताया कि गंगा किनारे जा रहा है मछलियों को दाना खिलाने। यहीं पास में ही घर है। रोज आता है मछलियों को दाना डालने। इतने लोग आते हैं मछलियां पकड़ने – अपने बंसी-कांटे लिये। दूर दूर से। मोटर साइकिल पर। पर यह उनके उलट उन्हें दाना खिलाने आता है।

दो बच्चे गंगा किनारे जा रहे थे। एक के मुंह में टूथब्रश था। दूसरे के हाथ में एक प्लास्टिक की पोटली।

चार पांच मिनट में ही वह वापस लौटा। बताया कि मछलियों को खिला आया। दाना डालते ही मछलियां आ जाती हैं। उसके साथ के टूथब्रश वाले ने भी हामी भरी – “किनारे आते हुये दिखती हैं।” लगता है ये मछलियां गंगा के जल में बह कर आगे नहीं निकल जातींं। यहीं रहती हैं। गंगा किनारे की मछलियां। मैं सोचता था कि जो जल में है सब बहता है। सब यात्रा पर है। पर वैसा नहीं है। कुछ जलचर भी एक ही जगह रहते हैं। कछुआ और मगरमच्छ जैसे उभयचर ही नहीं, मछलियां भी एक स्थान पर रहने वाली हैं।

बहुत दिनों बाद मैं घर से निकला था। बहुत अर्से बाद तट पर आया था – कैजुअल तीर्थयात्री की तरह। पर कैजुअल गंगा किनारे पर जाना भी बेकार नहीं जाता। कुछ नया जानने को मिलता ही है। हर हर गंगे, भागीरथी!

किनारे से लौटते एक झोंपड़ी के सामने आधा दर्जन लोग खटिया डाले बैठे बतकही करते दिखे।

किनारे से लौटते एक झोंपड़ी के सामने आधा दर्जन लोग खटिया डाले बैठे बतकही करते दिखे। सवेरे सवेरे इतने लोग एक झोंपड़ी के सामने देख मुझे लगा कि शायद कोई चाय बनाने वाला हो और लोग चाय पीने आते हों। पर मैं भूल गया था कि यह ठेठ देहात है। यहां लोग सवेरे सवेरे चाय पीने के लिये किसी चाय की चट्टी पर जाने का रोग नहीं पाले हैं। उन्होने बताया कि कोई गमी हो गयी है। इसलिये वे वहां हैं। उनके बताते ही सवेरे का खुशनुमा, चाय तलाशता मेरा पैराडाइम झटके में बदल गया। आनंद का स्थान वैराज्ञ ने ले लिया। श्मशान पर तो कोई चिन्ह नहीं थे किसी दाह संस्कार के। शायद ये लोग मुस्लिम बस्ती के हों। ईंटवां में मुसलमान काफी संख्या में हैं। एक मजार/मस्जिद भी है।

चित्र तो मैं अपनी साइकिल रोक ले चुका था। वहां से चला आया। ईंटवा के गंगा तट पर इतना ही हुआ। पर यह भी काफी था।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

आपकी टिप्पणी के लिये खांचा:

Discover more from मानसिक हलचल

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading

Design a site like this with WordPress.com
Get started