मुझे एक सप्ताह लगा जुगेश के लिये हवाई चप्पल खरीद कर लाने में। और उसके बाद वह सवेरे दूध ले कर आते दिखा ही नहीं। पांच दिन और बीत गये। चप्पल का डिब्बा मेरे घर में पड़ा रहा।
गांव बहुत बड़ा नहीं है। उसमें पास वाली बस्ती तो और भी छोटी है। मैं उसका घर ढूंढ़ सकता था, पर वह किया नहींं। कुछ करने और कुछ न करने के बीच छोटे छोटे मानसिक अवरोध ही होते हैं। मैं और लोगों की नहीं कह सकता; मेरे अंदर वे मानसिक अवरोध ज्यादा ही हैं। उन सब के बावजूद मैं जिंदगी में कुछ कर पाया हूं तो वह ईश्वरीय कृपा-प्रसाद ही है। अन्यथा, जो मुझमें है, वह प्रोक्रेस्टिनेशन की पराकाष्ठा है।
कल एक लड़की टुन्नू पण्डित के घर दूध ले कर आती दिखी। मुझे लगा कि वह जुगेश की बहन होगी, जिसकी बात वह पिछ्ली बार कर रहा था। यह लड़की चप्पल पहने थी। उसको रोक कर मैने जुगेश के बारे में पूछा। “मेरा भाई तो सुमित है, जुगेश नहीं।” उस लड़की ने अनभिज्ञता जताई जुगेश के बारे में। तब मैने जुगेश का चित्र मोबाइल पर दिखाया। “यह! यह तो पड़ोस के फलाने का लड़का है।”

उस लड़की से बात कर यद्यपि जुगेश नहीं मिला पर उसको ढूंढने की ‘धुन’ की चिंगारी मुझमें ट्रिगर हो गयी। मेरे घर के बगल में एक औरत और उसकी लड़की उपले पाथ रहे थे। उनके पास जा कर, जुगेश का चित्र दिखा, उस महिला से मैने पूछा। औरत ने बताया कि जुगेश उसी का लड़का है। आजकल ‘मलकिन’ उसके यहां से दूध नहीं ले रहीं। पांच छ दिन से बंद कर दिया है; तभी जुगेश नहीं आ रहा।
महिला को मैने जुगेश को भेजने को कहा। वह आशंकित हो गयी। लगा कि शायद जुगेश ने कोई गलती की होगी। मेरी पत्नीजी ने पीछे से आ कर बात स्पष्ट की – फुफ्फा चप्पल लियाइ हयें। उहई दई के बा। (फूफा जी चप्पल लाये हैं, वही जुगेश को देना चाहते हैं।)
छोटी सी मुलकात के बाद मुझे दो चीजें समझ आईं। उसे एक जोड़ी चप्पल चाहिये। केवल उसकी चप्पल, साझे की नहीं। वह शायद मिलना आसान है। कठिन चीज है कि उसे जिंदगी में कुछ बनने के सपने चाहियें। पर सपने बोना शायद उतना आसान नहीं है।
जुगेश पर पिछ्ली पोस्ट से।
थोड़ी देर में जुगेश मेरे सामने था। सर्दी का मौसम। कोहरा अभी अभी खत्म हुआ था। मैं गर्म कुरते के ऊपर जैकेट पहने था; पर जुगेश केवल एक कमीज और नेकर में था। हमेशा की तरह पैर में चप्पल नहीं थी।
मैने उसे घर के अंदर से चप्पल ला कर दिखाई। उसे पहन कर देखने को कहा। डिब्बा खोलते, चप्पल निकाल कर पहनते उसके मुंह पर कोई भाव नहीं आया। निर्विकार। मुझे मायूसी हुई। मैने कल्पना की थी कि वह प्रसन्न होगा। चेहरे पर खुशी तो झलकेगी किसी प्रकार से।
मैने उसे चप्पल ले कर जाने को कहा। वह पैरों से चप्पल उतार कर डिब्बे में रखने लगा। “डिब्बे में क्यों रख रहे हो, पहन कर जाओ। डिब्बा ले जाना हो तो वैसे ही लेते जाओ।”
वह वैसा ही कर जाने लगा। फिर जाने क्या हुआ। वह मुड़ा और मेरे पैर छू लिये। मैने उसके सिर पर हाथ फेर कर उसे गले लगा लिया। और तब अचानक भावहीनता का कोहरा छंट गया। वह मेरे और समीप आ गया। आत्मीयता का चार्ज मेरे और उसके बीच तेजी से बहा।
गांव का बालक! उसे भाव व्यक्त करना, कृतज्ञता दर्शाने को शब्द कहना सिखाया नहीं गया है। उसने किसी अजनबी से सौ रुपये की चीज मिलने की कल्पना भी शायद पहले नहीं की रही होगी। उसका अटपटा व्यवहार शायद इसी कारण था। शहरी बालक होता तो चप्पल को ध्यान से उलटता पलटता। पाने पर बोलता – थैंक्यू अंकल! वह सब व्यवहार उसके मैनरिज्म में डाले ही नहीं गये।
चप्पल पहने और चप्पल का डिब्बा हाथ में लिये वह मेरे घर के गेट के पास पंहुचने को था, तब मुझे याद आया कि उसका एक चित्र लिया जा सकता था। मैने अपने फीचर फोन को निकाल कर क्लिक किया।
जाते हुये मैने देखा कि उसकी आदत चप्पल पहन कर चलने वाली नहीं थी। कुछ अटपटा चल रहा था। जल्दी ही चप्पल उसके पैर में और वह चप्पल के साथ एडजस्ट हो जायेंगे।
और तब मुझे लगा – सर्दी बढ़ रही है। उसके पास स्वेटर तो होना चाहिये। पहने क्यों नहीं है?
मेरी पत्नीजी कहती हैं – स्वेटर नहीं ही होगा ही नहीं उसके पास।


aapke jitni aatm-chetna har vyakti ke andar hona chahiye.. anivarya roop se.. agar koi bhi do-paaya apne liye aadam ki aulad kahlata hai to.. lekin aisa nahi hota.. dar asal empathy naam ki koi cheej hai hi nahi hamaare andar… sympathy ki jarurat hi nahi.. lekin har do-paaya aadmi nahi hota… aur haan.. chetan manushya ko ek nishchit samay ke baad paise ki jarurat shayad utni nahi rahi jaati jitni ek do-paaye ko hoti hai.. avashyaktaon ko kam kar dusro ko aage badhne me madad avashya ki ja sakti hai.. aur ye insaan hone ki naitik jimmedari hoti hai.. banti hai..
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बहुत वाजिब कहा आपने। आप ढनाढ्यता के किसी भी पायदान पर हों, अपनी जरूरतें सीमित करते हुये दूसरों की सहायता हमेशा की जा सकती है। हमेशा!
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आपकी लेखनी की विशेषता है पारदर्शिता और सच्चाई। कोई बनावटी बात नहीं लिखते अपने बारे में। अपनी खूबियों व खामियों के साथ ही आप उपस्थित रहते हैं। मन में उस बालक को एक चप्पल खरीद कर देने की चाह पैदा हुई लेकिन इसके लिए आपने अपनी सहूलियत को नहीं छोड़ा और इस आलस्य को सहजता से स्वीकार किया। यह हम पाठकों को आपकी कही हर बात पर विश्वास करने का आधार देता है।
एक बात और। दूसरों की जरूरतों के बारे में हम जो आकलन करते हैं वह अपने अनुभव के आधार पर करते हैं। लेकिन यह जरूरी नहीं कि अगला भी उसे वैसे ही महसूस कर रहा हो। कड़ी थ्यानद में जब हम कंबल के ऊपर रजाई जमा रहे होते हैं तब फुटपाथ पर सोने वाले गांधी आश्रम की एक पतली चादर पाकर भी धन्य हो जाते हैं।
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बहुत अच्छा लगा आपका प्रोत्साहन, सिद्धार्थ जी! आपकी जय हो!
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पढ़ते हुए जब देखा कि जुगेश चप्पल लेने के बाद पैर छू रहा है तभी एकाएक आँखें नम हो गईं.
टिप्पणी करने में लॉगिन वॉगिन का झंझट था तो यूं ही टीप दिया
– सतीश पंचम…सफ़ेद घर वाले 🙂
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जय हो सतीश जी! बहुत अर्से बाद आपका टीप मिला। धन्य हुआ! आपकी जय हो!
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आपकी पोस्टें यदा-कदा पढ़ता तो रहता ही हूँ लेकिन इस मुंबईया शहरी दंद फंद के बीच ज्यादा पढ़ने से बचता हूँ क्योंकि ये मुझे ये नॉस्टॉल्जियाने लगती हैं और मैं खुद को रिटायर्ड बूढ़ा भी महसूस करने लगता हूँ जो कि फिलहाल मेरे जैसे कॉर्पोरेट कल्चर वाले के लिये उचित नहीं है। हाँ, रिटायर हो जाउंगा तो जरूर ये जीवन जीना चाहूंगा जिसमें चेक्स वाली लुंगी पहन कर बकरी चराऊँ….गर्मियों में किसी आम के पेड़ के नीचे बैठ कर भौरी लगाउं…पना बनाउं :)
वो कहा है न… हजारो ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पर दम निकले :)
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चलिये, इसी में सुकून है कि यदा कदा ब्लॉग पर आ जाते हैं आप! जय हो!
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“…… स्वेटर नहीं ही होगा ही नहीं उसके पास ।” आपने क्लिफहैंगर छोड़ दिया है इस पोस्ट में । वैसे लोगों को अंदेशा हो गया होगा ही आगे क्या होने वाला है ।
आपकी लगभग हर पोस्ट पढ़ी है । लेखन हमेशा से बेहतरीन रहा है, पर पिछली कुछ पोस्ट्स में मानवीयता का पहलू बहुत उभर कर आया है। एक साधारण चप्पल जिस के बारे में हमनें न कभी खरीदते हुए और नाही उसे फेंकते हुए उसकी अहमियत के बारे में सोचा होगा, ना कभी सब्ज़ी खरीदते हुए सोचा होगा की कितने श्यामधर कड़ी मेहनत करते होंगे तक जाके ये सब्ज़ी हमारी रसोई तक पहुँचती है, कितने लोग अपने घर-परिवार से दूर रहके पानी-बिजली की लाइन्स डालते हैं ताकि हम घर में आराम से बैठ सकें ।
लिखते रहिये ताकि हम जैसे लोग पढ़ते रहें ।
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इस जानदार टिप्पणी के लिये बहुत बहुत धन्यवाद मित्रवर!
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“…… स्वेटर नहीं ही होगा ही नहीं उसके पास ।” आपने क्लिफहैंगर छोड़ दिया है इस पोस्ट में । वैसे लोगों को अंदेशा हो गया होगा ही आगे क्या होने वाला है ।
आपकी लगभग हर पोस्ट पढ़ी है । लेखन हमेशा से बेहतरीन रहा है, पर पिछली कुछ पोस्ट्स में मानवीयता का पहलू बहुत उभर कर आया है। एक साधारण चप्पल जिस के बारे में हमनें न कभी खरीदते हुए और नाही उसे फेंकते हुए उसकी अहमियत के बारे में सोचा होगा, ना कभी सब्ज़ी खरीदते हुए सोचा होगा की कितने श्यामधर कड़ी मेहनत करते होंगे तक जाके ये सब्ज़ी हमारी रसोई तक पहुँचती है , कितने लोग अपने घर-परिवार से दूर रहके पानी-बिजली की लाइन्स डालते हैं ताकि हम घर में आराम से बैठ सकें ।
लिखते रहिये ताकि हम जैसे लोग पढ़ते रहें ।
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Bahut marmik lekha hai
Bhawan aap ko khush rakhyai
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आपको टिप्पणी के लिये धन्यवाद जी!
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आपकी जय हो, बंधुवर!
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बेहतरीन सर , आप बहुत नेक दिल इंसान है , वरना आज के इस मतलब भरी दुनिया में कोई किसी के लिए नहीं सोचता ..इस पोस्ट ने मेरा दिन बना दिया ।
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आपकी टिप्पणी मेरे लिये बहुत कीमती है आशीष जी। बहुत धन्यवाद।
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वह वैसा कर जाने लगा। फिर जाने क्या हुआ। वह मुड़ा और मेरे पैर छू लिये। मैने उसके सिर पर हाथ फेर कर उसे गले लगा लिया। और तब अचानक भावहीनता का कोहरा छंट गया। वह मेरे और समीप आ गया। आत्मीयता का चार्ज मेरे और उसके बीच तेजी से बहा।
best in
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आप की जय हो!
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