गांव, आस्ट्रेलिया, फिलिपींस और बुरुण्डी

नीलेश शाह के एक दो वीडियोंं में जिक्र है कि भारत में आजादी के बाद विकास असंतोषजनक रहा। जापान, चीन और कोरिया हमारे बराबर थे सन सैंतालीस में। पर ये सब आगे निकल गये। हमने विकास किया पर सबका नहीं। मसलन, भारत में इस समय सात प्रतिशत आबादी आस्ट्रेलिया के समतुल्य है। बीस प्रतिशत ने जो समृद्धि हासिल की वह फिलिपींस जैसी है। बाकी तिहत्तर प्रतिशत जनता सब-सहारा जैसी है।

भारत बहुत बड़ा है। मैं तो भारत की दशा उसकी समग्रता में नहीं सोच पाता। मेरे सामने तो यह गांव भर है। यह गांव और इसके आसपास के गांव। नेशनल हाईवे के समीप होने के कारण यह भारत के बेहतर गांवों में से होना चाहिये। लेकिन यहां भी, लगभग उसी अनुपात में, मुझे आस्ट्रेलिया, फिलिपींस और सब-सहारा वाले अफ्रीका के दर्शन हो जाते हैं।

यहां मेरे साले लोग हैं और उनके अलावा दे-तीन और परिवार हैं जो बम्बई-कलकत्ता आदि जगहों पर व्यवसाय कर ‘आस्ट्रेलिया’ बन गये हैं। कुछ लोग मध्यवर्गीय नौकरियों में हैं। बनारस अप-डाउन करते हैं। मोदी राज में हाईवे बहुत सुधर गया है। अब वाराणसी की कम्यूट घण्टे भर से कम समय लेती है। वे गांव की कम खर्चे में बेहतर जिंदगी और शहर की आमदनी – दोनो का लाभ ले पाते हैं। वे और कुछ अन्य, जिनमें मुझ जैसे पेंशनयाफ्ता रिटायर्ड लोग हैं, ‘फिलीपींस’ वाले हैं। वैसे गांव में ‘फिलिपींस’ बीस फीसदी नहीं, कुछ कम होगा। पर पिछले दशक में हुये विकास का लाभ ले कर यह तबका जल्दी ही बीस प्रतिशत पार कर जायेगा। मसलन, मेरे पास के करीब बीस परिवार बनारस के शैव मंदिरों के लिये रोज बिल्वपत्र और दूर्वा ले कर जाते हैं। इस तुच्छ सी सामग्री के बल पर बाबा विश्वनाथ उन्हें समृद्ध कर रहे हैं। पिछले आठ साल में मैने उनकी माली हालत में गजब का बदलाव देखा है। अब उनमें से बहुतों के पास मोटर साइकिल और मॉपेड हैं और यह पिछले पाच सात साल में खरीदे हैं उन्होने। ये और कई अन्य ‘फिलिपींस’ वर्ग में घुसने की दस्तक दे रहे हैं।

इस गठरी में बेल पत्ता और दूब घास है। गांव से यह सामग्री ले कर कई लोग बनारस जाते हैं। तुच्छ सी इस चीज से उन परिवारों में समृद्धि आई है। दो दर्जन परिवारों को रोजगार मिला है इस प्रकार बाबा विश्वनाथ के द्वारा!

इन सब के अलावा बड़ी आबादी खेतिहर किसानी मजदूरी, कालीन बुनाई सेण्टरों में काम करती और फुटकर काम तलाशती जनता की है। ये सब बुरुण्डी और नाइजर जैसी आर्थिक दशा वाले हैं और इनकी संख्या गांव का तीन चौथाई होगी। इनके पास, एक कमरे के ही सही, अब पक्के मकान हो गये हैं। घर में बिजली है। चांपाकल है। भाजपाई सरकार की अनुकम्पा से उन्हें कई सालों से राशन मिल जा रहा है। पर यह समृद्धि उनके पास सरकारी अनुकम्पा-अनुदान की बदौलत ही है। कोई उद्योग यहां लगा नहीं। माफिया-रंगदारी की पकड़ यहां ढीली पड़ी है, पर ब्लड-सकर्स के रूप में स्थानीय नेता, नौकरशाही, गांव का प्रधान और राशन का कोटेदार है ही। वे सब मिल कर अनुदान-अनुकम्पा में से पंद्रह बीस प्रतिशत गायब कर लेते हैं।


कुछ दिनों से मैं जुगेश के जरीये गांव की गरीबी की सोचता रहा हूं। उस बच्चे के लिये हमने चप्पल खरीदी। कल हम उसके लिये स्वेटर खरीदने गये। मेरी पत्नीजी ने तीन स्वेटर-जैकेट खरीदे। एक कम्बल भी। वे कुछ दिन पहले भी दस कम्बल खरीद कर बांट चुकी हैं। इसके लिये ज्यादातर मेरी बिटिया-दामाद अर्थदान करते हैं। उसके साथ हम भी अपना कण्ट्रीब्यूशन जोड़ते हैं। पर इस साल कुछ ज्यादा ही खर्च हो गया है धर्मादे खाते। हमारी सामर्थ्य से ज्यादा।

और यह धर्मादा मात्र हमें ही सुकून देता है। “कुछ न कुछ करने की हमारी ईगो” की तुष्टि हो जाती है। उन गरीब लोगों की आर्थिक दशा में कोई सार्थक प्रभाव नहीं पड़ता। सार्थक प्रभाव के चार-पांच घटक हैं। सरकार इंफ्रास्ट्रक्चर और कानून व्यवस्था की ओर काम करती नजर आती है। कम्यूनिकेशन, इण्टरनेट, संचार बहुत बेहतर हुआ है। पर शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था लचर बनी हुई है। स्वास्थ्य व्यवस्था तो आसपास कहीं नजर आती ही नहीं (वह कभी दिखती भी है तो पोलियो की ड्रॉप पिलाने में)। पूरा देहात झोलाछाप डाक्टरों और सोखा-ओझाओं के हवाले है। स्कूलों के रंगरोगन के बावजूद पढ़ाई का सॉफ्टवेयर बेहतर नहीं हो पाया। सरकारी स्कूलों में मास्टर-मास्टरानियां अच्छी तनख्वाह के बावजूद पढ़ाने में यकीन ही नहीं करते। शायद एआई और इण्टरनेट का सार्थक प्रयोग इस दिशा में कर प्राइमरी शिक्षा सुधारी जा सकती है। मुझे अगर दाव लगाना हो तो मैं ‘चैटजीपीटी’ पर लगाऊंगा, इन स्कूल टीचर्स पर नहींं।

प्रशांत किशोर की बिहार के गांवों में पद यात्राओं के वीडियो मैं सुनता-देखता रहा हूं। उन यात्राओं में प्रशांत जी के संवादों से मुझे यह स्पष्ट हुआ है कि इस अंचल में सार्थक रोजगार टाटा बिड़ला अडानी अम्बानी की कम्पनियों से नहीं आयेगा। वह दशकों से बंद पड़ी चीनी और सीमेण्ट मिलों को चालू करने से भी नहीं आयेगा। वह आयेगा उद्यमों के लिये छोटी पूंजी की उपलब्धता से। मैं नेट पर आंकड़े छानता हूं और मुझे समझ आता है कि बैंक पूर्वांचल-बिहार में छोटी पूंजी के लिये लोन देने में उत्सुक नहीं हैं। और जो लोन बैंक देते भी हैं, उसका बड़ा हिस्सा यहां के ‘आस्ट्रेलिया’ के हिस्से चला जाता है।


मैं चैट जीपीटी को बुरुण्डी की प्रति व्यक्ति आय बताने को कहता हूं। उसका दन्न से उत्तर आता है। वह (परचेजिंग पावर पेरिटी के आधार पर) लगभग 50 हजार रुपया बनती है। बिहार की प्रतिव्यक्ति आय भी वैसी ही है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के आंकड़े आसानी से नहीं मिलते पर समग्र उत्तर प्रदेश के आंकड़ों में सम्पन्न पश्चिमी भाग को डिसकाउण्ट कर दिया जाये तो पूर्वांचल का भदोही, गाजीपुर, बलिया, आजमगढ़ आदि वैसा ही होगा जैसा बिहार। ये इलाके और बुरुण्डी-नाइजर एक समान हैं – अगर मात्र प्रति-व्यक्ति आय के आधार पर देखा जाये! इथियोपिया और सोमालिया कहीं बेहतर होंगे। और इथियोपिया/सोमालिया वे देश हैं, जिनको हम दुनियां की गरीबी के प्रतीक के रूप में देखते हैं! :-(


इस तरह बात करना खराब लग सकता है। मुझे भी लगता है; पर यही वस्तुस्थिति है। जुगेश का पिता अण्डे का ठेला लगाता है। उसका परिवार एक बीघा जमीन पर आधे की बंटाई के आधार पर खेती करता है। घर में शायद कुछ बकरियां और दो भैसें हैं। बकरियां रिकरिंग डिपॉजिट की तरह हैं। भैसों के दूध को वे बेंचते हैं और गोबर से उपले बना कर ईंधन का काम लेते हैं। भोजन के लिये कोटेदार पांच के अंगूठे पर चार किलो अनाज देता है। एक कमरे का घर आवास योजना से मिला है। बस यही उनका आर्थिक आधार है।

मेरी पत्नीजी ने जुगेश को बुलाया। पता चला कि आज वह स्कूल गया है। उसका भाई आ कर उसके लिये स्वेटर और एक कम्बल ले कर गया। वह देना हमारे लिये भावनात्मक सुकून है। पर यह हम अच्छी तरह जानते हैं कि हम कोई समाधान नहीं दे रहे।


सोशल मीडिया पर मैने पाया कि मेरी तरह कई अन्य लोग भी इस भावनात्मक सुकून की तलाश कर रहे हैं। सुरभि तिवारी जुगेश को चप्पल देना चाहती थीं। किरीट सोलंकी जी ने मुझे सीधे सन्देश में अपना सहयोग भेजने की पेशकश की। केप्टन अमरनाथ सिंह और अर्चना वर्मा जी ने मेरे जुगेश को चप्पल देने पर साधुवाद दिया। कई अन्य बंधु भी वैसा ही व्यक्त कर रहे हैं। मेरे ख्याल से वे सब समझते हैं कि यह सुकून की तलाश कोई पुख्ता समाधान नहीं है अति-गरीबी का। पर और किया भी क्या जा सकता है?

दोपहर स्कूल टाइम के बाद जुगेश आया। वह स्वेटर पहने था। आज उसका चेहरा निर्विकार नहीं था। उसके सफेद दांत दिख रहे थे। उसने मेरे पास आ कर ‘थैंक्यू’ बोला। मैने उसकी पीठ पर हाथ फेरा तो उसका चेहरा और प्रसन्न हो गया। उसने बताया कि स्वेटर उसके नाप का है। देखने से भी लगता था कि थोड़ा ढीला है तो एक दो साल बढ़ती उम्र में भी छोटा नहीं पड़ेगा। गर्म कपड़ा और चप्पल अगर उसे और उसके परिवार को इस बीच लग्जरी की बजाय जरूरत लगने लगें तो शायद परिवार इन चीजों की उपलब्धता को तरजीह देने लगे – मसलन पान मसाला जैसी फालतू चीजों की बजाय इनके लिये पैसे बचाये। या फिर भारत की सात फीसदी सालाना ग्रोथ का कुछ बढ़ा हिस्सा उन तक पंहुचने लगे। … मैं जानता हूं, और हम सब जानते हैं कि चप्पल और स्वेटर देना हमारे लिये भावनात्मक सुकून हो सकता है; समस्या का कोई समाधान नहीं।

वह जाते समय गेट के पास पंहुचा तो मैने देखा कि नये स्वेटर का टैग लटक रहा था। उसने काट कर अलग नहींं किया था। वह पहनते ही दौड़ कर मुझे दिखाने चला आया था। मेरे कहने पर उसने रुक कर वह टैग अलग किया। टैग के हटने से मेरे प्रति कृतज्ञता का उसपर बोझ शायद कुछ कम हो सके। एक बच्चे और एक बूढ़े के बीच शायद सहज मैत्री विकसित हो सके।

तुम ज्यादा ही सोचने और अपेक्षा करने लगते हो जीडी! इस प्रकरण को सुखद भाव से भूलो और आगे बढ़ो!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

8 thoughts on “गांव, आस्ट्रेलिया, फिलिपींस और बुरुण्डी

  1. तो अंदेशा सही निकला, एपिसोड 2 मैं जुगेश को स्वेटर मिल ही गया।
    आपके स्कूल और सरकारी स्कूल के टीचर्स के बारे में लिखने से एक वाकिया याद आ गया। एक मित्र सरकारी स्कूल के बच्चों को भविष्य में वे क्या कर सकते हैं, किस तरह के जॉब के लिए किस तरह से शिक्षा की प्लानिंग करें , इस तरह की जानकारी देने के लिए वर्कशॉप आयोजित करना चाहते थे पर एक स्कूल बिल्कुल भी तैयार नहीं हो रहा था, थोड़ी खुदाई करने पर पता लगा की स्कूल ने जितने बच्चों का नामांकन दिखा रखा था उससे कहीं कम बच्चे उस पूरे एरिया में थे। टीचर्स को डर था की पोल खुल जाएगी। सरकारी स्कूलों एवं अस्पतालों की व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है अगर हम गावों में जीवन स्तर को बेहतर बनाना चाहते हैं। शिक्षित एवं स्वस्थ लोग ही भारत को आगे बढ़ा सकते हैं। अन्यथा 5 ट्रिलियन डॉलर की इकॉनमी का क्या फायदा जब आधी से ज्यादा पापुलेशन बमुश्किल जीवन जी रही।
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    1. मेरे घर के बगल में सरकारी स्कूल है। बच्चे अब स्कूल आते हैं और खुशी की बात है मास्टरानियांं भी आती हैं। नियमित। बाकी, बच्चों को खास आता जाता नहीं। पढ़ाने का कमिटमेण्ट नहीं लगता। :-(

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      1. दुःख होता है ये सोच कर की इन बच्चों में से कितनों का भविष्य तुलनात्मक रूप से कहीं बेहतर हो सकता है अगर उन्हें ठीक से प्रारंभिक शिक्षा मिले। शायद कभी कोई प्रशासन इस ओर ध्यान दे। ज्यादातर लोगों के लिए अध्यापन एक नौकरी मात्र बन गया है, बिना किसी जवाबदेही के। कोई एक मानक होना चाहिए जिससे सरकारी प्राथमिक शिक्षा के अध्यापकों का द्विवार्षिक मूल्यांकन हो। पर यहाँ टाइप करना बहुत आसान है, जमीनी हकीकत कुछ और है।
        R

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        1. आपकी व्यथा मेरी भी है। इन अध्यापकों में से कोई ही होगा शायद जो अपने बच्चे को सरकारी स्कूल में पढ़ाये।

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  2. “…मसलन, मेरे पास के करीब बीस परिवार बनारस के शैव मंदिरों के लिये रोज बिल्वपत्र और दूर्वा ले कर जाते हैं। इस तुच्छ सी सामग्री के बल पर बाबा विश्वनाथ उन्हें समृद्ध कर रहे हैं। पिछले आठ साल में मैने उनकी माली हालत में गजब का बदलाव देखा है। अब उनमें से बहुतों के पास मोटर साइकिल और मॉपेड हैं और यह पिछले पाच सात साल में खरीदे हैं उन्होने। ये और कई अन्य ‘फिलिपींस’ वर्ग में घुसने की दस्तक दे रहे हैं।…”

    यह तो हुआ है. उदाहरणार्थ, मेरे मुहल्ले में, खाना बनाने वाले दैनिक-कर्मी ने, हाल ही में 35 हजार रुपए का मोबाइल खरीदा! और पिछली दीवाली में सपरिवार छुट्टियों में घूमने भी गया. बस, ये बात है कि उनका परिवार सिगरेट दारू आदि में पैसे नहीं उड़ाता. इसके उलट उसका एक साथी घोर गरीबी में जिंदगी बिता रहा है क्योंकि उसे रोज शाम को दारू चाहिए. उसका बस चले तो वो सुबह से ही बोतल में घुस जाए.

    मेरे यहाँ माली का काम करने वाला एक बालक 5 हजार रुपए में एक नर्सरी में काम करता था. यूँ ही एक दिन पौधा खरीदते समय उसे मैंने पूछा मेरे घर हफ़्ते में एक बार आकर कुछ निदाई गुड़ाई कर जाना. उसने पहले तो हाँ-ना कहा, फिर एक दिन आ गया. साल बीतते न बीतते उसने नौकरी छोड़ दी और दूसरे साल से तो वो अपने साथ दो आदमियों को नौकरी पर रख लिया.

    अर्थ यह कि यदि व्यक्ति चाहे तो वो अपना स्तर सुधार सकता है, अब तो बहुत से रास्ते हैं.

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    1. मेहनत करने वाले के लिये हजार रास्ते हैं। भारत में जो आदमी एम्प्लॉयेबल है, उसके पास काम है! :-)

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