आज मैं साढ़े तीन बजे उठा था। चार बजे अपनी साइकिल निकाल ली थी। घर परिसर में ही एक दायरा चिन्हित कर रखा है मैने जिसमें साइकिल चलाई जा सकती है। कुल चालीस मीटर का एक चक्कर लगता है इसमें। दायरे में घूमते साइकिल चलाना – जेब में मोबाइल लिये और हेडफोन लगा कर एक पुस्तक का वाचन सुनते हुये … बढ़िया अनुभव है। बढ़िया दिनचर्या।
चार बजे सवेरे अंधेरा रहता है। घर के ऊपर लगी लाइट साइकिल दायरे के तीन चौथाई हिस्से को इतना रोशन कर देती है कि उसमें साइकिल चलाई जा सके। पर बाकी एक चौथाई हिस्सा पेड़ों की छाया में रहता है। वहां मौलीश्री, सागौन, शमी, दहिमन, चीकू और गुड़हल के वृक्ष हैं। वह हिस्सा सांप, गिरगिट और इस तरह के अन्य जंतुओं की ट्रेल का भी इलाका है। वह इतना संकरा भी है कि न दीखने पर साइकिल का संतुलन गड़बड़ा सकता है और किसी झाड़ी या पेड़ से टकरा कर छोटी दुर्घटना हो सकती है।


मैने उससे बचने के लिये एक सागौन के तने पर मैने एमरजेंसी लाइट टांगने का जुगाड़ बनाया। उससे मेरा पूरा साइकिल ट्रैक कामचलाऊ लाइट से चलने लायक हो गया।
माधव गाड़गिल की आत्मकथा – अ वॉक अप द हिल को ऑडीबल पर सुन रहा था। जब साइकिल चलाते सुनना शुरू किया तो पूरी तरह अंधेरा था। घर और पड़ोस के टुन्नू पण्डित के दरवाजे की रोशनी के अलावा कटका रेलवे स्टेशन की लाइटें भर दिख रही थीं। गांव में, उनके अलावा इक्कादुक्का बल्ब जल रहे थे। कोई पक्षी भी नहीं बोल रहा था। करीब चालीस पैंतालीस मिनट बाद पूर्व में अंधेरा कुछ ढीला पड़ा। भुजंगा की आवाज आने लगी। यह पक्षी अलग अलग आवाज में बोलता है। माधव गाडगिल की पुस्तक कर्नाटक, केरळ और पश्चिमी घाट के पर्यावरण, राजस्थान के बिश्नोई और उत्तराखण्ड के चिपको वाले लोगों की बात कर रही थी और मैं उसके कथ्य को अपने आसपास के वातावरण से जोड़ रहा था। इतने विचार इस साइकिल सैर में उठे और विलीन हुये मानो किसी झरने से फेन सा उठ गिर रहा हो। गाडगिल की भाषा किसी स्टडी-रिपोर्ट की भाषा सरीखी है। उसमें तथ्यात्मकता है पर भाषा लालित्य नहीं है। फिर भी बार बार मन में आया कि पुस्तक की हार्ड कॉपी खरीद ली जाये।
डेढ़ घण्टा साइकिल चलाई। उसके बाद साइकिल छोड़ उसी स्थान पर गोल गोल घूमते हुये ढाई हजार कदम चलते समय हनुमान चालीसा और अन्य भक्ति गायन सुने। दो घण्टे में दिन भर का शारीरिक श्रम भी हो गया, पुस्तक श्रवण भी और रामनाम स्मरण भी। सवेरे का समय इससे बेहतर कैसे व्यतीत किया जा सकता है?!

सवेरा हो गया था। पक्षी आ गये थे। मैं पोर्टिको में बैठ उन्हें दाना डालने लगा। कार के गैराज वाले शेड पर दो कव्वे बैठे थे। उनका आपसी व्यवहार मुझे मोह गया। एक कव्वा, शायद कव्वी; सिर झुकाये थी और दूसरा कव्वा उसकी कंघी कर रहा था। चोंच को उसके सिर और गर्दन पर फेर रहा था – बिल्कुल बालों में कंघी करने की मुद्रा में। एक दो बार ही नहीं करीब पांच मिनट तक वह करता रहा। कव्वी सिर झुकाये उसी मुद्रा में बनी रही। स्पष्ट था कि उसे बहुत अच्छा लग रहा था। मेरे मोबाइल का कैमरा बहुत पावरफुल नहीं है। फिर भी प्रतीकात्मक चित्र तो खींच पाया मैं। :-)
मैने बंदरों को एक दूसरे के सिर से जुयें निकालते देखा है। पर पक्षी (कव्वे) भी वैसा करते हैं; यह आज पहली बार देखा। अपनी पत्नीजी को यह दिखाने के लिये बुलाया। उन्होने भी ऐसा व्यवहार पहले कभी नहीं देखा था। सवेरे यूंही बैठ कर यह सब देखना भी अनूठा अनुभव है। … रोज कुछ न कुछ नया मिलता है पक्षियों और गिलहरियों, कीड़ों और मेढकों के व्यवहार में!
जो देखते हो, रोज लिखने की आदत डालो; जीडी!
लगता है यह एमरजेंसी लाइट की रोशनी में नियमित साइकिल चलाना एक अच्छी दिनचर्या रहेगी। गर्मियां आसन्न हैं। सूरज निकलते ही आग बरसने लगेगी। बेहतर यही होगा कि जो साइकिलिंग का व्यायाम करना है वह भोर में कर लिया जाये।

मुझे अपनी रेल सेवा के समय की याद हो आई। हमारे इंजीनियरिंग कर्मी ट्रेक मैण्टीनेंस के लिये गर्मियों में भोर का समय ही चुनते थे। उस समय गैंग-मैनों की कार्यक्षमता बेहतर होती थी। दिन में तो कोई काम हो ही नहीं सकता था। वैसे भी गर्म दिन में रेल की पटरी को खोलने का मतलब रेल की बकलिंग (रेल के टेढ़े मेढ़े हो जाना) को न्यौता देना होता है। और रेल की बकलिंग किसी भी रेल कर्मचारी अधिकारी के लिये एक भयंकर दु:स्वप्न ही है। मेरे जीवन काल में रेल बकलिंग के दो तीन मामले ही हुये हैं। उनमें किसी प्रकार की दुर्घटना नहीं हुई पर उसकी दहशत ऐसी है कि अभी भी कभी कभी उसके सपने आते हैं!
आगे गर्मियों के मौसम में एमरजेंसी लाइट में साइकिल चलाना और पुस्तक सुनना हुआ करेगा। रेलवे की याद आती रहेगी!

