आखिर सुंदरलाल आ ही गये!

सिर के बाल ज्यादा ही बढ़ गये थे। बचपन में महीने भर से पहले ही नाऊ के दर्शन करने होते थे। एक दशक पहले तक एक डेढ़ महीने में बाल कटवाने पर काम चल जाता था। अब दो महीने के बाद भी सिर आईने में देख असेसमेण्ट किया जाता है कि एक पखवाड़ा या एक महीना और चलाया जा सकता है क्या!

सुंदर हमारा ऑफीशियल नाऊ है। उसकी भाषा में मैं उसका जजमान हूं। जब कभी रास्ते चलते सुंदर दिख जाता है तो मैं उसका चेहरा देखता हूं और वह मेरे सिर के बाल। मैं आकलन करने लगता हूं कि सुंदर और कितना बूढ़ा या बीमार दिखता है। वह आकलन करता है कि मेरे बाल कितने दिन बिना उसकी कंची के चल सकते हैं। फिर वह पूछ ही लेता है – अईतवार के आई? (रविवार को आऊं क्या?)

सुंदर का उस्तरा, कैंची, कंघी और पानी का मग।

सुंदर मेरे बाल घर आ कर काटता है। गांव की जिंदगी के जो थोड़े बहुत प्रिविलेज हैं, उनमें यह भी है कि नाऊ के सैलून पर नहीं जाना होता। नाऊ खुद घर आ जाता है।

पर इस बार गड़बड़ हो गया। सुंदर गांव में आते जाते दिखना बंद हो गया। मेरे सिर के साईड के बाल कानों को खुजलाने लगे। हर समय सुरसुराहट सी होती रही। चेहरा भी ज्यादा ही बदरंग, ज्यादा ही बूढ़ा दिखने लगा। सुंदर लाल की दरकार बढ़ी और बढ़ती गई पर सुंदर नदारद। पता चला कि सुंदर बंबई चले गये हैं।

अचानक कल अशोक को सुंदर दिखे। अशोक ने उसने कहा जल्द मेरे घर आने को। अगले दिन सुन्दर अपना थैला ले कर हाजिर थे।

उम्र और बीमारी (उसका दिल का इलाज हो चुका है) के साथ सुंदर की आवाज में गुड़गुड़ाहट बढ़ती गई है। अब भी वह ज्यादा ही लगी। उसकी बात समझने में पहले से ज्यादा मेहनत करनी पड़ी। उसने बताया कि पंद्रह बीस दिन पहले वह बंबई गया था। वहां दवाई लेने का काम किया। लोगों से मिला जुला। गांव के कई लोग वहां हैं। “अशोक के बाबू भी मिले। खाना भी खिलाये। मेरे लड़के वहां हैं। काम धाम ठीक ठाक कर लेते हैं।” – बम्बई की रिपोर्ट कुछ पूछने पर और कुछ अपने आप सुंदर ने दी।

अनारक्षित डिब्बे में बम्बई जाने और वहां से वापस आने का सफर किया सुंदर ने। गर्मी का मौसम और जनरल बोगी की यात्रा! मुझे तो अपनी जिंदगी की जनरल बोगी की दो यात्राओं की स्मृति है। तब मैं छात्र था। जवान था और असुविधा झेल सकता था। तब भी, उन यात्राओं की याद दु:स्वप्न है। सुंदर तो उम्र और बीमारी झेलता हुआ भी जनरल बोगी में लम्बी दूरी की यात्रा कर ले रहा है।

“गर्मी के मौसम में ट्रेन में तो भीड़ रही होगी? कैसे जगह मिली।?”

“हां, भीड़ त रही। लहाई क बैठि ग रहे।” सुंदर साठ से ज्यादा उम्र का है। लम्बी दूरी की ट्रेन में, बिना आरक्षण की बोगी जिसमें लोग ठुंसे रहते हैं, उसमें भीड़ उसके लिये कोई बहुत असुविधा की बात नहीं है। अपने हिसाब से “एडजस्ट” कर बैठा आया वह! शायद टिकट भी नहीं था उसके पास। उसने बताया कि कोई टिकट चेक करने वाला नहीं दिखा। जनरल बोगी में कोई टिकट चेकर जाता भी नहीं होगा!

मेरे बाल काटता सुंदर

मधुमेह का भी घोर मरीज है सुंदर। कभी कभी मुझे लगता है कि उसके हथेली और उंगलियों कें कम्पन प्रारम्भ हो गया है। उसके उस्तरे और नुकीली कैंची से मुझे भय होता है कि कांपता हाथ कहीं कोई घाव न कर दे। पर वह कुशल नाऊ है। घाव करने जैसा कुछ हुआ नहीं। वह भूल जरूर गया। उस्तरे में ब्लेड लगाना रह गया था। मैने टोका कि ब्लेड लगाया है या नहीं; तब पास में निकाल कर रखा टोपाज का आधा अनयूज्ड ब्लेड उस्तरे में उसने फिट किया।

सुंदर का टूलकिट मिनिमल है। कंघी मैने अपनी रखी है। कैंची सुंदर गांव के लुहार से बनवाई इस्तेमाल करता है। बाजार की कैंची का प्रयोग उसे नाऊ धर्म की तौहीन लगता है। पर उस्तरा जरूर खरीदा हुआ इस्तेमाल करता है। मैं सोचता हूं कि अपना एक उस्तरा और ब्लेड का पैकेट भी खरीद कर रख लूं। अमेजन पर उस्तरा 290 रुपये का है। सुंदर ने सवा सौ का खरीदा है। कई बार कहने पर भी मेरे लिये उस्तरा नहीं लाया। हर बार कहता है कि “भुलाइ गये!”

मेरे सिर पर बाल नाममात्र को बचे हैं। कनपटी के बालों की सुरसुराहट अगर सहन करने लग जाऊं तो बाल कटवाने से मुक्ति पाई जा सकती है। पर दो तीन महीने में सौ-पचास रुपये की बचत का क्या औचित्य? वह करने लग जाऊंगा तो सुंदर से मुलाकात कैसे होगी? उसपर लिखना कैसे होगा?

बाल काटने के बाद सुंदर अपने कमजोर हाथों से मेरे सिर पर चम्पी-अनुष्ठान करता है। मन होता है कि उसे कहूं – हर पखवाड़े वह आ कर चम्पी ही कर जाया करे। उसी बहाने उससे मुलाकात तो होती रहेगी!

बाल काटने के बाद सुंदरलाल एक कप चाय पी कर अपना मेहनताना ले कर चले गये। हर पखवाड़े आने का कहने वाली बात मेरे मन में ही रह गई। वैसे भी मैं तो बैठे ठाले हूं पर सुंदर के पास तो डेढ़ गांव की जजमानी है। वह व्यस्त जीव है!

सुंदर से अगली मुलाकात का इंतजार रहेगा! बाभन और नाऊ का तो साथ शाश्वत है! जहां गंगा तहां झाऊ (एक वनस्पति); जहां बाभन तहां नाऊ! सुंदर यूं ही आते रहें!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

4 thoughts on “आखिर सुंदरलाल आ ही गये!

  1. दोनों चित्र में आप एक से दिख रहे हैं, स्मार्ट। गमलों में पौधे बढ़ गये हैं। ब्लेड अपनी रखें।7 बजे वाली। डिटोल भी।

    पढ़कर अच्छा लगा। सरकार को जनरल डिब्बा एक फ्री कर देना चाहिए।

    आप आज कल ज्यादा गायब हो जाते हैं,यह अनुचित है।

    मोदी जी की अगली टर्म में बुजुर्गों का रोज हाजिर न होना,(सोशल मीडिया पर), कानूनी तौर पर गुनाह पास कराना पड़ेगा।

    बस कुछ दिन आप और गायब हो लें।

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