<<< नीलगाय >>>
गंगा किनारे का इलाका नीलगाय के कारण बंजर होता जा रहा है। यह एक ऐसा कथ्य है, जो ऑफ्ट-रिपीटेड है और इसमें कोई मौलिकता बची नहीं। कोई ऐसी सक्सेस स्टोरी भी नहीं सुनने में आई कि, एक पाइलट प्रॉजेक्ट के रूप में ही सही, नीलगाय आतंक का कोई तोड़ निकल पाया हो। भारतीय वन्य जीवन संरक्षण अधिनियम नीलगाय को ले कर इतना सख्त बताया जाता है कि नीलगाय की संख्या का नियंत्रण कानूनन बहुत मुश्किल है। और जो उपाय बताये जाते हैं उनको आर्थिक आधार पर बहुत उपयोगी नहीं पाया गया, अब तक।
मैं जब तक गांव में स्थानंतरित नहीं हुआ था, नीलगाय मुझे एक वन्य पशु के रूप में आकर्षित करती थी। उसका आतंक और उसका ‘दानवीय’ पहलू तो यहां आने पर ही पता चला।
मैं अपने मित्र गुन्नीलाल जी के घर जाता रहता हूं। वे छ-आठ बीघा जमीन रखते हैं। उनके पिता और वे भी खेती करते थे पर अब कई साल से उन्होने खेती से किनारा कर लिया है। खेत में कुछ भी लगायें, नीलगाय का एक झुंड आता है और एक रात भर में ही सारा किया कराया चौपट कर देता है। उनका गांव, अगियाबीर; गंगा तीरे है और नीलगाय तो रहती ही उसी गांव के आसपास हैं। गंगा के कछार में चरने को मिलता है और पीने को गंगा का पानी खूब है। बड़े बड़े कद्दावर घणरोजों ने इलाके को अपना अखाड़ा बना रखा है।
गुन्नीलाल जी तो शिक्षा विभाग से पैंशन पाते हैं, इसलिये खेती के शून्य हो जाने पर भी झेल पा रहे हैं। वहीं पास में रिटायर्ड प्रिंसिपल साहब हैं। अब पचहत्तर साल के हो गये हैं। लड़के ठीक से काम धाम में लग नहीं पाये और परिवार बड़ा है। बेचारे हर मौसम में रात रात भर जाग कर खेत की घणरोजों (नीलगाय) से रखवाली करते हैं। बुढ़ापे में रात भर सर्दी में जागने का कष्ट तो है ही, उन कद्दावर घणरोजों से जान का भी खतरा उठाना पड़ता है। कोई समाधान नहीं है उनके पास। … इलाके का हर किसान थोड़ी देर की बातचीत में घूम फिर कर नीलगाय पर चला आता है।
जमीन पर खेती का दबाव हुआ तो नीलगायों को मानव बस्ती के साथ द्वंद्व करना पड़ा। अन्यथा दोनो अलग अलग डोमेन में रहते थे। नीलगायों ने खेती और चरागाह चट कर डाली तो गंगा पट्टी के पेड़ भी खतम हुये। पिछले आठ दस साल में मैने गंगा किनारे के कीकर के पेड़ भी कम होते पाये हैं। और यह तब है कि कीकर-बबूल बहुत जिद्दी पेड़ है। पर वह भी हार मान रहा है।
लोग बताते हैं कि वे गंगा किनारे के खेतों में गन्ना, धान, गेहूं और मोटा अनाज – सब उगाया करते थे। उस इलाके में मुझे कई कुंये दिखे जिनसे खेतों में सिंचाई होती थी। पुरवट चला करते थे और धान लगता था। अब केवल अरहर लगाते हैं वह भी आधे तीहे मन से। साल भर में केवल एक फसल बोई जा रही है। कई कई जगह तो वह भी नहीं। किसान खेती नहीं कर पा रहा तो मिट्टी बेच कर काम चलाने लगा है। विकास कार्यों में और ईंट भट्ठा चिमनियों के लिये बहुत मिट्टी चाहिये। मिट्टी हाथोहाथ बिक रही है। खेत उत्तरोत्तर बंजर होते जा रहे हैं। मिट्टी/मृदा बेचने में तो समय नहीं लगता। जेसीबी मशीनें और ट्रेक्टर रात रात भर में खेत को चार फुट गहरा तालाब बना डालते हैं। पर उसी खेत की मिट्टी पुन: उपजाऊ बनाने के लिये तो दशकों या शताब्दी लगेगी। शायद वे खेत पुराने रूप में कभी आ ही न पायें।
यहां मेरे खुद का खेत नीलगाय से आतंकित होने लगा है। मैने एक डेढ़ लाख खर्च कर कंटीली बाड़ लगवाई थी। अब नीलगाय उसे तोड़ कर घुस जाती हैं। मेरी अधियरा सुग्गी आये दिन मेरी पत्नीजी को आ कर नीलगाय द्वारा खेत चर जाने का रोना रोती है। मुझे तो खेती की कोई खास जरूरत नहीं। मेरा काम तो पैंशन से चलता है। पर सुग्गी का परिवार तो उसी खेत पर ही निर्भर है। दिन भर खेत में मेहनत और रात भर खेत की रखवाली करता है उसका परिवार। फिर भी पच्चीस तीस फीसदी फसल तो चौपट हो ही जा रही है। सुग्गी तरह तरह के उपाय करती है। उनकी कहानियां बताती है। पर ज्यादातर असफलता की कहानियां हैं वे!
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मिर्च-लहसुन-प्याज के पानी का स्प्रे करना, कमर्शियल रिपेलेंट का प्रयोग, नीम की पत्तियां, गेंदा और एरंडी की पट्टी लगाना आदि कई उपाय हैं जिनपर सुग्गी सोच चुकी है। पर कोई उपाय पुख्ता उपाय नहीं बन सका। वह अपनी मेहनत के अलावा ज्यादा खर्च करने की भी नहीं सोच सकती। बार बार इलेक्ट्रिक फेंसिंग की बात करती है। पर वह कैसे हो सकता है? कितनी लागत आयेगी? कितना प्रभावी होगा वह? इस सब के बारे में वह जानकारी नहीं रखती। इसके अलावा मेरी पत्नीजी को वह इलेक्ट्रिक फेंसिंग की बात बार बार इसलिये कहती है कि जैसे हमने कंटीली बाड़ लगवाई है, वैसे हम ही इस बिजली की फैंसिंग का काम भी करायें।
मैं खेती में ज्यादा इनपुट्स देने की सोच भी नहीं सकता। पर बार बार सुनने पर इंटरनेट खंगालता हूं। नेट बताता है कि इलाके में श्रमिक भारती नामक कोई एनजीओ है जो इस फैंसिंग को लगवाने में सहायक हो सकता है। पचास हजार रुपये प्रति किमी फैंसिंग का खर्च आयेगा। बिजली के लिये एक सोलर पैनल का खर्चा अलग से। यह खर्च प्रयोगधर्मिता के पाले में किया जा सकता है। प्रयोग असफल भी हो तो भी खर्चे का धक्का सहा जा सकता है।
फिर भी; कौन तलाशेगा इस या इस तरह के एनजीओ को? कौन सरकारी सबसिडी के चक्कर लगायेगा? उस खटरम के लिये मन नहीं करता। आराम से जिंदगी गुजर रही है। काहे को यह प्रॉजेक्ट हाथ में लिया जाये। वह तब जब उससे कोई आर्थिक लाभ मुझे होने नहीं जा रहा।
सुग्गी नीलगाय के झुंड के अगले हमले के बाद फिर आयेगी अपना रोना ले कर। शायद कोई नया समाधान खुद ही खोज ले! शायद।


भारत के दोपाये ने प्रकृति का सत्यानाश करके रख दिया. पृथ्वी सबके लिये है. बढ़ती आबादी के लिए अलग से कहाँ जमीन आयेगी. प्राकृतिक संस्थान तो सीमित ही हैं, जनसँख्या असीमित.
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दोपायों ने दर्द दिया है। वे ही दवा देंगे! :-)
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sahi h sir neelgay nam k sath gay judne se bhi samashya inki badhat bhi bahut h aur kheton ko sahi kaha sir chat kar jati h ye kafi unchi jump Marti h so katili wad bhi koi upay inke uper nahi . Kuchh din pehle Bihar Govt ne Inka safaya karaya tha lekin uske uper kafi sorgul kiya pasu premio ne
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गाय/सांड, नील गाय, वानर, गली के कुत्ते, चूहे, कबूतर आदि धर्म और अहिंसा की आड़ में बहुधा कष्ट देते हैं। यह कुछ कुछ वैसा ही ही है जैसे सेक्युलरिज्म के निर्वहन में हिन्दू राष्ट्र की आहुति दी जा रही है। सांप और छछूंदर की सी स्थिति है।
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गाय/सांड, नील गाय, वानर, गली के कुत्ते, चूहे, कबूतर – सब आदमी को कोसते होंगे कि कौन पाप हुआ था हमसे कि भगवान ने आदमी बना डाला! :-)
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