ठल्लू के चूल्हे का एक चित्र

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सवेरे कोहरा मामूली था। पत्नीजी और मैं बगल में रहते ठल्लू के घर तक यूं ही चले गये। उसके आंगन में एक ओर कोने में कऊड़ा जल रहा था। उसके आसपास बैठी उसकी पतोहू और छोटी लड़की सब्जी काट रही थीं। पतोहू के गोद में महीने भर का लड़का था और बड़ा लड़का, जो अभी डेढ़ दो साल का होगा, पास में बैठा राख में खिलौना चला रहा था। खिलौना एक जेसीबी था – खिलौने भी समय के अनुसार बदल गये हैं।

आंगन के दूसरे ओर हमेशा की तरह चूल्हा रखा था और पीढ़ा पर बैठी ठल्लू की बड़ी बिटिया कुछ बनाने का उपक्रम कर रही थी। ध्यान से देखा तो पाया कि बटुली में अदहन चढ़ा है। एक बरतन में चावल धो कर तैयार हैं बनाने के लिये। एक परात में आटा है, पलथन। शायद रोटियां सिक चुकी हैं। चूल्हा और बटुली – धुयें में जगर मगर करती; मुझे बचपन के मेरे गांव के अतीत में ले गई। (चित्र ज्ञ1)

मैने अपनी पत्नीजी को कहा कि वे मेरा एक चित्र चूल्हे के पास खींच लें।

हम लोग कैजुअल तरीके से ठल्लू के यहां चले गये थे। मैने तो ऊपर कुरते पर हूडी और नीचे मात्र लोवर पहन रखा था। सर्दी से बचाव के लिये पैर में मोजे थे। कुल मिला कर तस्वीर खींचने लायक वेश था ही नहीं। पर पत्नीजी ने मेरा अनुरोध मान फोटो खींच लिया। ठल्लू की बिटिया हंसते हुये बोली – ऐसे छूंछा फोटो कैसे आयेगा? वह मेरे बैठने के लिये एक ऊंचा स्टूल और बटुली में चलाने के लिये एक पल्टा ले आई। पीढ़े पर मैं बैठ नहीं पाता तो स्टूल पर बैठा और बटुली के पानी में बिना किसी जरूरत के पल्टा घुमाया। मेरा चित्र खिंचा गया। (चित्र ज्ञ2)

चित्र अच्छा आया। इसके अलावा आंगन के चित्रों से ठल्लू की गृहस्थी के कई पक्ष उभर कर सामने आये। कई चीजें नजर आ रही थीं – सिल, बुहारने वाली ताड़ की झाड़ू, खटोला, उपलों का ढेर, चकरी, डारा, सूखते कपड़े, रतनजोत मिला तिल का तेल, प्लास्टिक की पाइप और पन्नी… एक ओर खाट उंठगाई हुई थी रखी थी। रसोई का सामान आंगन में जमाया गया था। एक कोने में बकरी और उसके नये जन्मे बच्चों की खांची थी। परिवार के लिये दो कमरे और यह आंगन; एक आरामदायक घर था – ग्रामीण जीवन को दर्शाता एक विस्तृत कोलाज।

ठल्लू दम्पति की दो लड़कियां, पतोहू साथ रहते हैं। पांच लोगों (और ठल्लू के दो छोटे पोतों) के लिये यह घर गांव के स्तर से ठीकठाक ही है।

कऊड़ा और चूल्हा जलने के कारण ठल्लू का आंगन बहुत आरामदायक तापक्रम वाला लग रहा था। अगर ठल्लुआइन एक कप चाय की पेशकश करती तो मैं बेझिझक मान लेता। पर भोजन बनाने के इस समय चूल्हे पर चाय रखना उनके काम को अनावश्यक रूप से बढ़ा देता।

घर लौट आने पर पत्नीजी के मोबाइल से मैने अपने चित्र निकाल कर लैपटॉप में भरे। यह करते समय पत्नीजी का कहना था – यह चित्र पोस्ट करोगे तो गांव-समाज के ‘समृद्ध’ लोग जरूर कहेंगे कि पांडे जी क्या इधर उधर घूमते, केवटाने में चूल्हे पर बैठ फोटो खिंचाते नाक कटा रहे हैं! उनके लिये तो किसी के यहां जा कर यूं चूल्हे पर बैठना अकल्पनीय जातीय-अपराध होगा! शहर में तो लोग बहुत बदल गये हैं पर गांवदेहात में अब भी सवर्ण अभिजात्य की ग्रंथि पाले लोग तो अपने घर में भी चौका-बासन के आसपास नहीं फटकते; किसी अजातीय की रसोई में बैठना तो बहुत दूर की बात है!

पर मेरे लिये हूडी और लोवर पहने ठल्लू के चूल्हे पर स्टूल ले कर बैठे, बटुली में पल्टा चलाते अपना चित्र एक प्राइज-कैच है। बढ़ती उम्र, बेफिक्री और टूटती वर्जनायें – यह सब उस चित्र से पूरी तरह उभर कर आता है। सवर्ण की सुपीरियॉरिटी की नाक कटे तो कटे! :lol:

#गांवदेहात #आसपास


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

6 thoughts on “ठल्लू के चूल्हे का एक चित्र

  1. यही हमारे देश का असली ग्रामीण जीवन है- सरलता, सहजता, भाईचारा, और सामाजिकता। जो आज विकास कि भेंट चढ़ गया है।

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  2. गाँव का जीवन -आनंद आया देखकर। चाय न मिली ऐसे मौसम तो थोड़ा दुख तो स्वाभाविक है :)

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    1. वे लोग चाय तो शायद नहीं पीते हों, या दिन में एक ही बार सेवन करते हों। लोगों की आवाभगत में चाय का उतना महत्व नहीं होता जितना हमारे घरों में। इसलिये बहुत खला नहीं! :-)

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